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प्रभु जोशी

वक्त ज्यादा नहीं लगा और यह होने लगा कि आखिरकार, धीरे-धीरे, हिन्‍दी की वह पर्त झड़ने लगी, जो हमारे प्रधानमंत्री की भाषा पर चढ़ी हुई थी। अब वे अँग्रेजी बोलने लगे हैं। हालाँकि इसमें कोई अफसोस की बात कतई नहीं है और यह प्रश्‍न भी नहीं है कि हमारे प्रधानमंत्री अँग्रेजी में क्यों बोलते हैं? 
मुझे तो और अधिक खुशी होती, अगर वे हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की तरह, हिन्दी-भाषी न होने के कारण, हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री भी केवल अँग्रेजी में ही बोलते। वे सालभर में, एक बार लाल किले से 'लिखी हुई' हिन्‍दी में, अटक-अटक कर अपनी बात करते। इस बात को याद दिला कर, यहाँ मैं अपने पूर्व राष्ट्र-प्रमुख में, कोई दोष नहीं देख रहा हूँ बल्कि उनका उपकार मान रहा हूँ। वह इसलिए कि लाल किले से पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा दिए जाने वाले उनके 'लिखित-भाषण' से एक बहुत महत्वपूर्ण सूचना जाती थी। वह यह कि दुनिया के इस जनतान्त्रिक महादेश में वहाँ की कोई भाषा अँग्रेजी के बराबर ही है और वह सौ करोड़ लोगों तक अपने 'लिखे हुए' रूप में भी ठीक-ठाक से पहुँच रही है। साथ ही, यह भी सुखद लगता था कि उनके अर्थात्‌ मनमोहनसिंह के भीतर भी यह आशंका और अविश्‍वास नहीं था कि 'वे जो बोल रहे हैं', वह देश के नागरिकों, अखबारों तथा प्रसार-माध्यमों द्वारा समझा नहीं जा रहा है। 
 
लेकिन हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री के हिन्‍दी में बोलने से यह सूचना जाती है कि उन्हें गुजराती भाषी होने के बावजूद हिन्‍दी आती है और बहुत अच्छी आती है। यह हमारे लिए सौभाग्य की भी बात है कि उनकी 'वाग्मिता' अद्‌भुत है और वे हिन्दी के किसी भी धुरंधर पेशेवर-बोलाक से कई गुना अच्छा बोलते हैं। अधिकांश लोगों को याद होगा कि जब उन्होंने पहली बार लालकिले की प्राचीर से देश को सम्बोधित किया था, तब लोगों ने उनके द्वारा बिन-कागज-पत्तर के दिए गए भाषण की तुलना वल्लभ भाई पटेल, विंस्टन चर्चिल और फिदेल कास्त्रो के प्रवाहमय भाषणों से की थी। तब भी इससे एक अलग ही तरह की सूचना गई थी। 
 
लेकिन अब जबकि वे रोज ही इधर-उधर, देश-परदेस में, छोटे पर्दे पर हिन्‍दी बोलते दिखाई देते रहते हैं, उससे एक बिलकुल भिन्न सूचना जा रही  है, जो औपनिवेशिक-विचार की वकालत करने वालों की 'स्थापना' को दृढ़ करती है कि हिन्‍दी पिछड़े समाज में चलते बतरस की भाषा है। किसी हद तक वह सामने वाले को मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए भी, बहुत उपयुक्त भाषा होने का सबूत भी देती है। लेकिन वह भद्र भाषा नहीं है। उससे 'सोचने-समझने' का काम नहीं लिया जा सकता। 
 
शायद, अप्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री की भाषा से यही सूचना जाती है कि जैसे ही आप, परिवार, देश समाज, या राज्य या अन्य 'ज्ञान केन्द्रित' किसी भी विषय पर बोलने के लिए तत्पर हों, आप तुरन्त अँग्रेजी की शब्दावली की तरफ मुड़ जाइए। हिन्‍दी में ऐसे 'सामान्य' से चिंतन के लिए भी शब्दावली नहीं है। नतीजतन,  प्रधानमंत्री जैसे ही 'मुद्दे की बात' रखने के लिए अग्रसर होते हैं, उनकी वाग्मिता से हिन्‍दी की वह पर्त झड़ जाती है। उनके बोलने में हिन्‍दी के 'कारक' (फंक्शनल वर्ड्‌स) भर रह जाते हैं। हिन्दी की स्थिति केवल अँग्रेजी के शब्दों के बीच, उनको जोड़ने में, सीमेन्ट की जैसी ही भूमिका होती है। 
 
अब प्रधानमंत्री को यह याद दिलाना तो धृष्टता होगी कि बीसवीं सदी में तमाम अफ्रीकी भाषाओं का संहार, अँग्रेजी के 'साम्राज्यवाद' ने इन्हें युक्तियों से किया। अर्थात्‌ वहाँ की मूल भाषाओं के भीतर अँग्रेजी के शब्दों को 'शामिल-शब्दावली' (शेयर्ड-वक्युब्लरि) के नाम पर मिलाते-मिलाते अँग्रेजी के शब्दों के प्रतिशत को सत्तर के आँकड़े तक कर दिया और बोलने में, उन भाषा में, उनके केवल कारक भर रह गए।
 
यह सबसे पहले उन्होंने वहाँ रेडियो (एफएम) के जरिए किया। अर्थात्‌ सत्तर प्रतिशत अँग्रेजी के शब्दों से भरी भाषा, रेडियो के जरिए युवाओं के बीच लोकप्रिय बना दी गई। युवा पीढ़ी को उस 'मिश्रित-भाषा' अन्धत्व में उतार दिया गया। उसमें 'संगीत, हास्य और मनोरंजन' ही प्रमुख प्रसारण सामग्री थी। यह 'आनन्द के द्वारा दमन की सिध्दान्तिकी' कहलाती है। इस काम के लिए रेडियो के जरिए वहाँ 'लैंग्विेज विलेज' यानि भाषा-ग्राम (लेंगवेज विलेज) बनाए गए, जिसमें ऐसी मिश्रित' भाषा बोलने वालों को कई तरह के पुरस्कार दिए जाते। उनकी स्थानीय अखबारों में तस्वीरें छापी जातीं। आखिर में उनकी इतनी बदतर स्थिति हो गई कि उनसे अपनी मूल (अमिश्रित) भाषा में बोलना ही मुश्किल हो गया। यह मूल भाषाओं को 'विचार की भाषा' बनने से रोकना था।
 
दरअसल, यह साम्राज्यवादी रणनीति थी कि जिस भाषा का विस्थापन करना हो, उसको सिर्फ 'एक ही युवा पीढ़ी' के बीच बदल दिया जाए। यदि वह पीढ़ी प्रौढ़ हो गई और आप उस भाषा को इस अवधि के भीतर बदल नहीं पाए तो वह पीढ़ी प्रौढ़ होते ही 'भाषा के विस्थापन की कूटनीति' को समझ जाएगी और पुनः अपनी मूल-भाषा की ओर लपकती हुई लौट सकती है। इसलिए अभी हमारे 'चौदह से पच्चीस-तीस वर्ष' के युवा के भीतर अँग्रेजी की प्यास इतनी बेकाबू बना दी गई है कि अब हिन्दी उनके लिए कठिन, लध्दड़ और सिर्फ 'मसखरी के कारोबार' के साथ ही साथ किसी को लतियाने-गरियाने की भाषा है। वह 'सोचने-विचारने' की भाषा नहीं है। इसलिए सोचने की तरफ बढ़ते ही अँग्रेजी की तरफ लपक जाइए।
 
बहरहाल, प्रधानमंत्री द्वारा जो 'शामिल-शब्दावली वाली' भाषा, पता नहीं किस आशय से बोली जा रही है, उसे रेडियो अर्थात्‌ 'आकाशवाणी' और 'दूरदर्शन' ने मूर्ख उत्साह से लपक लिया है। प्रधानमंत्री की भाषा, उनके लिए नया प्रतिमाणीकरण है। एक दिशा संकेत है। अब ये दोनों ही संस्थान, अपने वहाँ से हिन्दी की शब्दावली को अपने प्रसारण से चुन-चुन कर हटाने में लग चुके हैं। यदि हम सूचना के अधिकार का उपयोग करके जानकारी हासिल करें तो यह तथ्य सामने आएगा कि मोदी-सरकार के आने के बाद इन दोनों प्रसारण माध्यमों के तमाम कार्यक्रमों के नाम बदल दिए गए हैं और उनके साथ आगे या पीछे, अँग्रेजी का शब्द जोड़ा जा चुका है। अभी तक देश में हिन्दी का प्रसारण माध्यम दूरदर्शन और आकाशवाणी ही थे। वहीं हिन्दी दिखाई देती थी। बाकी सारे निजी प्रसार-माध्यम तो जिसे कहा जाता है 'लैंग्विज शिफ्ट' के गुप्त अभियान में कभी के ही लगे हैं। वे तो अँग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद की नीति के निर्लज्ज योद्धा हैं। कहने की जरूरत नहीं कि हिन्दी के सारे अखबार भी उसी मुहिम के निर्लज्ज हिस्सा हैं। जनसत्ता को छोड़कर।
 
तो पूछा जा सकता है कि क्या प्रधानमंत्री की इस भाषा का चरितार्थ अब आकाशवाणी और दूरदर्शन की भाषा की नीति का हिस्सा है? क्या ये हिन्दी के हित में है कि हिन्दी की, अफ्रीकी देशों की भाषाओं की तरह ही बिदाई की पटकथा लिखी जा रही है? क्या यह सच नहीं है कि हिन्दी के साथ ही साथ अन्य भाषाओं की बिदाई भी तो इससे 'क्रियोलीकरण' की कूटनीति से नहीं जुड़ गई है?
 
जब कोई अन्य राष्ट्र का प्रमुख हमारे देश में आकर अपनी भाषा में बोलता है तो उसका अँग्रेजी अनुवाद भी पढ़ा या बोला जाता है। ठीक इसी तरह हिन्दी में बोलने वाले हमारे प्रधानमंत्री का वक्तव्य भी अँग्रेजी में अनूदित होकर पढ़ा जाता है। ऐसे में यह जानने की सहज ही उत्सुकता पैदा होती है कि क्या प्रधानमंत्री को किसी विद्वान ने यह सलाह दे दी है कि यदि वे किसी अन्य राष्ट्र के राजनयिक से हिन्दी में बात करते हुए सारी नीति संबंधी शब्दावली हिन्दी के बजाए अँग्रेजी में बोलेंगे तो वह उस अतिथि के लिए अधिक संप्रेष्य हो जाएगी। 
 
क्या अन्य देश का वह राजनय, प्रधानमंत्री के इस 'क्रियोलीकृत' भाषा से अर्थ ग्रहण करता है कि साथ ही साथ अँग्रेजी में अनूदित होकर पढ़े जा रहे भाषण से? अगर ऐसा माना जा रहा हो तो फिर सोचा जाना चाहिए कि 'यह कहीं अपनी भाषा में बोले जाने के प्रति अविश्वास और कोई हीनताबोध तो नहीं है, जो ऐसी हिंग्लिश' को ही हमारे राष्ट्र-प्रमुख की सम्बोधन की भाषा बना रहा है। क्या भाषा के उस घोर औपनिवेशिक विचार से हमारे प्रधानमंत्री भी बाहर नहीं आ पाए हैं? जो विदेशी या गौरांगों को देखकर, हीनता में भरकर टूटी-फूटी अंग्रेजी की शरण में चला जाता है।

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