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अनेक नाजुक मोड़ों से गुजरते भारत-नेपाल रिश्ते

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शरद सिंगी

नेपाल में एक ही चीज स्थिर है और वह है वहां की राजनीतिक अस्थिरता। पिछले आठ वर्षों में यह राष्ट्र आठ प्रधानमंत्री देख चुका है, नौवें प्रधानमंत्री प्रचंड ने तीन अगस्त को शपथ ले ली है और दलों के बीच समझौते के अनुसार दसवां प्रधानमंत्री भी निर्धारित हो चुका है। विगत रविवार को तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली ने हार के भय से अविश्वास मत से पूर्व ही इस्तीफा दे दिया था। 
उनकी सरकार मात्र नौ महीने ही टिक पाई। सन् 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद नेपाल में लोकशाही का प्रारंभ तो हुआ किन्तु संविधान सशक्त, समावेशी और त्रुटि रहित नहीं बन पाया। यही वजह है कि भारत के लाख सहयोग के बावजूद नेपाल का लोकतंत्र अपने  पैरों पर खड़ा ही नहीं हो पा रहा है। ऊपर से नेपाल का एक धड़ा राजनीतिक अस्थिरता के लिए भारत को दोषी  मानता है और भारत पर नेपाल के अंदरुनी मामलों में हस्तक्षेप का आरोप लगाता है। राजनीति इतनी उलझ चुकी है कि महाभूकंप आने के एक वर्ष पश्चात् भी  लोगों के पुनर्वास की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं हो पाई है। किसी नेता का ध्यान जनता पर नहीं है, सारे दल ओछी राजनीति में उलझे हैं।  
 
हम सभी जानते हैं कि नेपाल के साथ भारत के मैत्री सम्बन्ध सदियों पुराने हैं। दोनों देशों में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक कारणों से जुड़ाव है। नेपाल का दक्षिण क्षेत्र  भारत की उत्तरी सीमा से सटा है। यह तराई वाला इलाका है जो मधेश के नाम से जाना जाता है।  इसी प्रांत  में मिथिला प्रदेश है जिससे भारतवासी आध्यात्मिक कारणों से भलीभांति परिचित हैं। राजनीतिक कारणों से नेपाली नेताओं ने पहाड़ी रहवासियों और तराईवासियों  के बीच एक अविश्वास की दीवार खींच  रखी  है और यही मुख्य कारण है राजनीतिक अस्थिरता का। 
 
मधेश निवासी भारत के साथ रोटी-बेटी के संबंधों से जुड़े हैं जबकि उत्तरी क्षेत्र में भारत विरोधी खेमा सक्रिय है। पिछले प्रधानमंत्री ओली भारत विरोधी  खेमे से हैं, अतः उनके कार्यकाल में भारत के साथ संबंधों पर अप्रिय प्रभाव हुआ। संविधान में अपना उचित प्रतिनिधित्‍व नहीं होने से मधेशी  जनता ने बगावत करते हुए भारत से नेपाल को रसद तथा ईंधन तेल की आपूर्ति की सारे मार्गों की नाकाबंदी कर दी उसकी वजह से उत्तरी नेपाल में रहने वाली जनता को रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं की भारी किल्लत का सामना करना पड़ा था। ओली  ने इस नाकाबंदी का सारा दोष भारत पर मढ़ दिया और नेपाल में भारत विरोधी स्वरों को हवा दी। इस तरह उनके कार्यकाल  में भारत नेपाल सम्बन्धों में कड़वाहट आई। पाकिस्तान और चीन ने इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश की। चीन ने  ओली सरकार को  अनेक प्रलोभन भी दिए। 
 
ओली सरकार की भारतीय प्रशासन से दूरी और चीन से नजदीकियां बढ़ाने  की कोशिशें  भारतीय कूटनीति को परेशान कर रहीं थीं। यद्यपि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेपाल में चल रही उथल-पुथल को उनके अंदरुनी मामले मानते हैं किन्तु यह किसी से छुपा नहीं है कि नेपाल के राजनीतिक समीकरणों में भारत की एक प्रमुख भूमिका होती है। अब तो यह अनिवार्य हो गया है, जब से नेपाल के भारत विरोधी दलों ने चीन के हाथों खेलना शुरू कर दिया है। भारत के साथ नेपाल की सीमा खुली होने से भारत की चिंताएं स्वाभाविक हैं। 
 
नेपाल की अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से भारत पर निर्भर है। उद्योग-धंधे नगण्य हैं। विकास के नाम पर कुछ नहीं होता। भारत में लगभग पचास लाख नेपाली नागरिक काम करते हैं। उसी तरह खाड़ी एवम अन्य देशों में भी काम करते हैं जहां से वे  नेपाल में अपने परिवारों को आमदनी का हिस्सा भेजते हैं। यही आमदनी नेपाल की जीडीपी का प्रमुख हिस्सा है। 
 
प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने से भारत-नेपाल रिश्ते पुनः पटरी पर आ जाएंगे, ऐसा विशेषज्ञों का विश्वास है, किन्तु यह कोई स्थाई हल नहीं है क्योंकि जिस तरह की राजनीति नेपाल में चल रही है वहां भारत का समर्थन और चीन का समर्थन करने वाली सरकार आती-जाती रहेगी। स्थाई हल तभी संभव है जब संविधान समावेशी बने जिसमें नेपाल की  सभी  जनजातियों को समान  अवसर और अधिकार प्राप्त हों। हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान  संविधान सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि विद्वान लोग संविधान ऋषि मन से बनाएं ताकि संविधान में सबको समान अधिकार और उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। 
 
भारत तो यही चाहता है कि नेपाल में मधेशियों के साथ प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रजाति के साथ न्याय हो, राजनीति स्थिर हो ताकि नेपाल विकास के मार्ग पर चहुंओर प्रगति कर सके। विगत 26 वर्षों में 24 प्रधानमंत्रियों का भार वहन करने वाली जनता को एक सशक्त नेता और संविधान की दरकार  है किन्तु निकट भविष्य में इसकी संभावनाएं क्षीण हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नेपाल उन विशिष्ट देशों में से है जिसका कोई स्वतंत्रता दिवस नहीं है अर्थात भगवान पशुपतिनाथ की इस देवभूमि को कभी कोई विदेशी आक्रमणकारी अपना उपनिवेश नहीं बना सका। शायद यह गोरखा फ़ौज की बहादुरी का परिणाम है। 
 
जाहिर है नेपाल की जनता में साहस की कमी नहीं है, अतः संदेह नहीं कि वे  इस समस्या का सामना  साहस से करेंगे एवम शीघ्र छुटकारे का मार्ग खोजेंगे। शायद नई  प्रचंड सरकार इसकी शुरुवात हो। भारत सरकार और भारत की जनता का सहयोग तो उन्हें प्राप्त है ही। जैसे-जैसे नई  पीढ़ी शिक्षित होगी, वस्तुपरक दृष्टिकोण होगा तब नेपाल की राजनीति में परिपक्वता आएगी और नायकों की नई पौध जन्म लेगी।  

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