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'परमाणु निषेध संधि' से कैसे नष्ट होंगे परमाणु हथियार?

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राजकुमार कुम्भज

सत्तर बरस में पहली बार संयुक्त राष्ट्र के 122 देशों ने उस वैश्विक संधि पर अपने हस्ताक्षर कर दिए हैं जिसमें परमाणु हथियारों को प्रतिबंधित किए जाने का आग्रह किया गया है। परमाणु अप्रसार के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी पहली बहुपक्षीय परमाणु हथियार निषेध संधि को लेकर पिछले 20 बरस से वार्ताओं का दौर-दौरा चला आ रहा था।
 
संयुक्त राष्ट्र के 192 सदस्यों में से दो-तिहाई का प्रतिनिधित्व कर रहे 122 वार्ताकार देशों ने इसी 7 जुलाई को इसके पक्ष में और एकमात्र देश नीदरलैंड्स ने इसके विपक्ष में मतदान किया जबकि सिंगापुर जैसा देश मतदान प्रक्रिया से बाहर ही रहा। सबसे अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि दुनिया के परमाणु शक्ति संपन्न तकरीबन सभी 40 देश अपनी सुरक्षा के संदर्भ में परमाणु शस्त्र समर्थक हैं, जो कि इस नई 'परमाणु निषेध संधि' के पक्ष में नहीं हैं।
 
परमाणु हथियारों के विकास, उनके भंडारण और उनका इस्तेमाल करने की धमकी पर पाबंदी लगाने वाली इस पहली परमाणु अप्रसार वैश्विक संधि पर ऑस्ट्रिया, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड की अगुआई में दुनिया के 142 देशों के बीच 3 सप्ताह तक लंबी वार्ताओं का दौर चला। 
 
इस संधि को वैश्विक शांति के संदर्भ में एक ऐतिहासिक उपलब्धि के तौर पर ही देखा जा रहा है, लेकिन दुनियाभर के किसी भी परमाणु हथियार संपन्न देश ने इन वार्ताओं में हिस्सा नहीं लिया। परमाणु शस्त्र संपन्न देशों ने इस वैश्विक संधि को हकीकत से परे बताते हुए इसे न सिर्फ रद्द कर दिया, बल्कि यह दलील भी दी कि 15 हजार परमाणु हथियारों के जखीरे को कम करने में इस संधि का कोई प्रभाव नहीं होगा। 
 
संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से ज्यादातर देशों का इस नई 'परमाणु निषेध संधि' के पक्ष में आने से एक बात तो बिलकुल साफ हो जाती है कि दुनिया के अधिकतर देश अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु हथियारों की निर्भरता से भली-भांति मुक्त हैं और एक वैश्विक सच्चाई भी यही है कि समूचा दक्षिण गोलार्द्ध परमाणु हथियारों से बंधन मुक्त है। समूची दुनिया में सिर्फ वे परमाणु शक्ति संपन्न 40 देश ही हैं जिन्हें अपनी सुरक्षा के लिए परमाणु शस्त्र चाहिए।
 
कानूनी तौर पर बाध्यकारी व्यवस्था के लिए संपन्न हुई इन वार्ताओं का भारत ने भी बहिष्कार किया। भारत प्रारंभ से ही परमाणु अप्रसार के विरोध में रहा है। भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह परमाणु हथियार प्रतिबंध संधि को परमाणु अप्रसार के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी बनाए जाने के पक्ष में नहीं है। 
 
भारत ने पिछले बरस अक्टूबर में ही अपने स्पष्टीकरण में कह दिया था कि वह इस बात से सहमत नहीं है कि प्रस्तावित सम्मलेन परमाणु निरस्तीकरण पर एक समग्र व्यवस्था कायम करने की अपेक्षा पर खरा साबित हो पाएगा, तब भी भारत की ओर से जिनेवा निरस्तीकरण सम्मलेन की चर्चा के लिए एकमात्र बहुपक्षीय मंच बताया गया था। भारत अब भी परमाणु अप्रसार को लेकर वार्ताएं शुरू करने का समर्थन करता है, लेकिन उसके लिए जिनेवा के कॉन्फ्रेंस ऑन डिसआर्मामेंट को ही एकमात्र बहुपक्षीय परमाणु अप्रसार वार्ता मंच स्वीकार करता है।
 
परमाणु हथियारों के संपूर्ण उन्मूलन की दिशा में पिछले बरस अक्टूबर में परमाणु हथियार प्रतिबंध के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी सनद को लेकर वार्ता हुई थी और इससे संबद्ध संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव पर 120 से अधिक देशों ने मतदान किया था। भारत तब भी इस प्रस्ताव से दूर रहा था और अब भी दूर ही रहा। अब जो संधि हुई है, वह परमाणु अप्रसार के लिए कानूनी तौर पर बाध्यकारी पहली बहुपक्षीय संधि है जिसके लिए पिछले 20 बरस से वार्ताएं चलती रही हैं।
 
स्मरण रखा जा सकता है कि 6 अगस्त 1945 के दिन सुबह 8.15 बजे अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर आणविक बम गिराए थे जिसमें 60 लाख निर्दोष नागरिक मारे गए थे। वह अब तक का सबसे बड़ा और सबसे भयंकर नरसंहार स्वीकार किया जाता है। उसके बाद 70 बरस से दुनिया इसी तरह की किसी कानूनी तौर पर बाध्यकारी संधि का इंतजार कर रही थी जिसके लिए आगामी 20 सितंबर तक हस्ताक्षर प्रक्रिया चलेगी और 50 देशों की पुष्टि के बाद यह एक कानून बन जाएगा। 
 
इस संधि का दुनिया के एकमात्र देश नीदरलैंड्स ने विरोध किया जबकि जी-20 देशों में शामिल परमाणु शक्ति संपन्न 9 बड़े देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। यहां तक कि वर्ष 1945 में परमाणु हमलों का दंश झेल चुके जापान ने भी इन वार्ताओं का बहिष्कार किया और अधिकतर नाटो देशों ने भी ऐसा ही किया। उत्तर कोरिया ने भी इस संधि वार्ता में हिस्सा नहीं लिया, जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य और वीटो की ताकत रखने वाले देश अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस ने यह कहते हुए वार्ता में हिस्सा नहीं लिया कि यह संधि उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम से पैदा हुए गंभीर खतरों को लेकर कोई गंभीर समाधान पेश नहीं करती है, बल्कि यह पहल अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा माहौल की हकीकत का साफतौर पर अनादर करती है। भारत ने यही कहा है कि परमाणु अप्रसार की यह संधि व्यवस्था, अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की अपेक्षा पर खरी नहीं उतर पाएगी।
 
यह सही है कि नई ‘परमाणु निषेध संधि’ अपने आप में परिपूर्णता का दावा नहीं कर सकती है। यहां तक कि यह संधि कई मामलों और नए राजनीतिक संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में जरा कुछ सुस्त ही नजर आती है किंतु भविष्य की दुनिया इसके लागू होने की संपूर्ण संभावना रखती है। तब जाहिर है कि भारत सहित दुनियाभर के 40 परमाणु शस्त्र संपन्न देशों की परमाणु शस्त्रागार क्षमता का भविष्य भी बहुत कुछ इसी पर निर्भर करेगा।
 
भारत ने संधि के लिए हुए इस वार्ता संधि में मतदान से दूर रहने के लिए दिए गए अपने स्पष्टीकरण पर कायम रहकर एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया। परमाणु हथियारों के वैश्विक विलोपन के लिए किसी एक अंतरराष्ट्रीय सत्यापन को जरूरी बताते हुए भारत ने कहा कि मौजूदा प्रक्रिया में सत्यापन का पहलू नहीं जोड़ा गया है।
 
दुनिया के संधि-समर्थक देश इस संधि को ऐतिहासिक उपलब्धि बता रहे हैं, जबकि परमाणु शस्त्र संपन्न देशों ने इस बाध्यकारी प्रतिबंध को यथार्थ से परे बताते हुए रद्द कर दिया है। उनका प्रमुख तर्क यही है कि तक‌रीबन 15 हजार परमाणु हथियारों के संग्रहण को समाप्त करने में इस संधि का कोई प्रभाव नहीं होगा। 
 
क्या दुनिया में ऐसा कोई भी एक देश है, जो यह मानता हो कि उत्तर कोरिया परमाणु प्रतिबंध के लिए सहमत होगा? और यहां यही वह पेंच है, जो परमाणु शक्ति संपन्न देशों की दलील को मजबूती प्रदान करता है कि उनके परमाणु हथियार किसी भी परमाणु हमले से बचाव के लिए ही हैं, न कि हमले के लिए और यह भी कि वे सभी देश परमाणु अप्रसार संधि के लिए प्रतिबद्ध व वचनबद्ध हैं।
 
संयुक्त राष्ट्र द्वारा परमाणु हथियारों पर लगाम लगाए जाने की तैयारी को जरूर ऐतिहासिक और मानवता के पक्ष में जवाबदेह कहा जा सकता है, लेकिन उत्तर कोरिया के परमाणु पागलपन और सनकभरे मिसाइल कार्यक्रमों को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? उत्तर कोरिया की परमाणु ताकत को लेकर जो ताजा जानकारी सामने आ रही है उससे तो यही ज्ञात होता है कि उत्तर कोरिया के पास अनुमान से कहीं अधिक मात्रा में प्लूटोनियम है जिससे ढेर सारे परमाणु बन बनाए जा सकते हैं। अब तो यह तथ्य भी उजागर हो ही गया है कि अमेरिका तक को कल तक इस बात का अंदाजा नहीं था कि उत्तर कोरिया के पास इतनी भारी मात्रा में परमाणु बन बनाने की सामग्री उपलब्ध है? उत्तर कोरिया और अमेरिका का गतिरोध कौन नहीं जानता है? 
 
अमेरिका स्थित जौंस हॉपकिंस यूनिवर्सिटी की 38 नॅार्थ वेबसाइट के मुताबिक सैटेलाइट से ली गईं तस्वीरों से पता चलता है कि उत्तर कोरिया के योंगब्योन न्यूक्लियर कॉम्प्लेक्स में फ्यूएल रॅाड्स से रेडियो एक्टिव तत्व प्राप्त करने के लिए उसे दुबारा प्रक्रिया से गुजारा जा रहा है। उत्तर कोरिया द्वारा जारी रखी जा रही उसकी इस तकनीकी प्रक्रिया से उसे अधिक मात्रा में प्लूटोनियम को प्राप्त हो रहा है जिसकी सहायता से वह अधिक संख्या में परमाणु हथियारों का निर्माण कर सकता है। 
 
परमाणु हथियार युद्ध निरोधक होने का सिद्धांत तभी काम करता है, जब कोई देश इसका इस्तेमाल करने को तैयार हो। फिर यह सिद्धांत इस अवधारणा पर भी आधारित है कि विश्वनेता तर्कपूर्ण और विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम होते हैं। वर्ष 1980 में जो परमाणु अप्रसार संधि हुई थी, उस पर दुनिया के लगभग सभी देशों और पक्षों ने अपने-अपने तर्क और विवेक से ही हस्ताक्षर किए थे। पूछा जा सकता है कि तब से लेकर अब तक कितना परमाणु अप्रसार हुआ है? अमेरिका के अलावा रूस के पास भी परमाणु हथियारों का बड़ा जखीरा मौजूद है जबकि ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, चीन, पाकिस्तान, इसराइल और उत्तर कोरिया आदि के पास परमाणु बम हैं।
 
याद रखा जा सकता है कि उत्तर कोरिया ने अपना यह उपरोक्त रिएक्टर वर्ष 2007 में हुए निरस्तीकरण समझौते के तहत बंद कर दिया था किंतु वर्ष 2013 में हुए तीसरे परमाणु परीक्षण के बाद इसे फिर से प्रारंभ कर लिया गया। योंगब्योन में कोयले की बढ़ती खपत के मद्देनजर माना जा रहा था कि वहां यूरेनियम संवर्द्धन का काम किया जा रहा है, मगर जिस प्रकार से दूसरी अन्य सहायक सामग्री की आपूर्ति बढ़ाई गई है, उससे साफ हो जाता है कि उत्तर कोरिया बड़े पैमाने पर रेडियो एक्टिव तत्व तैयार कर रहा है।
 
उत्तर कोरिया वर्ष 2006 से अब तक 5 सफल परमाणु परीक्षण कर चुका है। यहां तक कि 4 और 7 जुलाई को अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल का सफल परीक्षण करते हुए उसने अमेरिका पर हमले तक की चेतावनी भी दी है। इधर भारत भी चीन को ध्यान में रखते हुए अपने परमाणु शस्त्रागार और देश की परमाणु ऊर्जा रणनीति का निरंतर आधुनिकीकरण करने में सक्रिय है। 
 
पहले ऐसा प्रतीत होता था कि भारत की नजर घोर आतंकवाद के पनाहगार देश पाकिस्तान पर केंद्रित है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि भारत का जोर पाकिस्तान की बजाय घोर विस्तारवादी कम्युनिस्ट देश चीन की ओर ही ज्यादा है। इस बात का दावा अमेरिका के 2 परमाणु विशेषज्ञों ने ऑनलाइन पत्रिका 'आफ्टर मिडनाइट' में किया है। 
 
अमेरिकी परमाणु विशेषज्ञ हांस एम. क्रिस्टेंसने और रॅाबर्ट एस. नोरिस ने ‘इंडियन न्यूक्लियर फोर्स 2017’ शीर्षक लेख में लिखा है कि भारत संभवतः डेढ़-दो सौ परमाणु शस्त्र बनाने जितना पर्याप्त प्लूटोनियम संवर्धित कर चुका है और 120 से 130 तक परमाणु शस्त्र बना भी चुका है। दोनों वैज्ञानिकों ने यह संभावना भी व्यक्त की है कि भारत अब एक ऐसी मिसाइल पर काम कर रहा है, जो कि दक्षिण भारत के अपने आधार क्षेत्र से समूचे चीन को निशाने पर ले सकती है।
 
वैश्विक परमाणु विशेषज्ञों का अनुमान है कि भारत के पास इस समय 7 सक्षम रक्षा प्रणाली हैं, जो परमाणुयुक्त हैं। इनमें से 4 जमीन से, 2 विमान से और 1 समुद्र से मार करने में सक्षम बैलिस्टिक मिसाइलें हैं। इसके अलावा कम से कम 4 और प्रणालियों पर तेज गति से काम चल रहा है जिनकी तैनाती अगले दशक तक की जा सकती है। 
 
इन तमाम परिस्थितिजन्य परिप्रेक्ष्यों में परमाणु प्रतिरोध को प्रतिबंधित किया जाना कैसे संभव बनाया जा सकता है? यह कैसे संभव समझा जा सकता है कि नई परमाणु निषेध संधि से दुनियाभर के तमाम परमाणु हथियार रातोरात संकुचित हो जाएंगे? क्या यह संधि परमाणु हथियारों को अवैध बना देने का एक नया खतरा नहीं खोल देगी?

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