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धरती की आत्मा हैं वृक्ष

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

कॉलेज लाइफ के समय ओशो को गुलमोहर के एक पेड़ से प्यार हो गया था। आश्चर्य कि सागर यू‍निवर्सिटी के इस गुलमोहर को भी उनसे प्रेम हो गया था। ओशो अपना टू व्हीलर उस गुलमोहर की छाँव के नीचे ही रखते थे और रोज उससे गले मिलने के बाद ही क्लास रूम में जाते थे।

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जिस दिन ओशो कॉलेज नहीं आते थे तो गुलमोहर की प्रंसन्नता भी कहीं छुट्टी पर चली जाती थी। जब ओशो ने यूनिवर्सिटी छोड़ दी तो कुछ ही दिन बाद प्रोफेसर की चिट्ठी उनके पास आई कि आपका गुलमोहर पूरी तरह से सूख गया है, अंतिम साँसें गिन रहा है। आपके जाने के गम में न मालूम इसे क्या हुआ। ओशो तुरंत ही उसके पास गए और उससे जी भरकर गले मिले, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जैसे ओशो के इंतजार में ही उसने प्राण नहीं छोड़े थे बाकी तो वह लगभग सूख ही गया था। इस छोटी-सी घटना से पता चलता है कि ओशो वृक्षों से कितना प्रेम करते थे। वे कहते थे कि पूरी यूनिवर्सिटी में सिर्फ वह गुलमोहर का वृक्ष ही मेरा सच्चा दोस्त था।

आदमी अब आदमी कहाँ रहा। दोस्त कहने से इस दुनिया मैं तुम्हें सिर्फ छद्म दुश्मन ही मिलेंगे। दोस्त तो कोई नहीं। शास्त्र कहते हैं‍ कि जो वृक्षों को काटता है ब्रह्म हत्या के उस दोषी को एक दिन अस्तित्व खुद ही काट देता है।

ओशो ने कहा कि मेरे आश्रम को हरा-भरा और तरोताजा उद्यान बनाना, जहाँ कोयल की कुहकुह और पक्षियों का संगीत तुम्हारे ध्यान में सहायक हो। मैं चाहता हूँ कि वृक्षों की तरह जिओ। आदमियों की तरह जीकर कुछ लाभ नहीं मिलेगा।

भारत में पुणे के ओशो आश्रम को अब ओशो मैडिटेशन रिजॉर्ट कहा जाता है। निर्झर हरे-भरे उपवन के बीच स्थित संगमरमर की पगडंडियाँ तुम्हें पिरामिड और अन्य ध्यान केंद्रों तक ले जाती हैं। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ के वृक्ष का प्रत्येक पत्ता ध्यान और प्रेम में विश्राम कर रहा है और यहाँ आप अपनी आत्मा का साक्षात्कार कर सकते हैं। ओशो आश्रम अब सिर्फ एक आध्यात्मिक मरुद्यान है।

ये वृक्ष और पहाड़ हमारी आत्मा का संगीत हैं। इस संगीत को मत काटो। ओशो कहते हैं कि वृक्षों में जिवेषणा होती है और यह भी आदमियों की प्रत्येक हरकत को समझते हैं। वृक्ष तुरंत पहचान लेता है कि किस व्यक्ति की नजरें खराब हैं और किस की अच्छी। वृक्षों में निगेटिव और पॉजिटिव ऊर्जा को पकड़ने की गजब की क्षमता होती है। इस धरती पर वृक्ष ऋषियों के प्रतिनिधि हैं। यह धरती की आत्मा है।

वृक्ष हैं तो ही पर्यावरण सुरक्षित है क्योंकि इनके होने से ही वायु और जल संचालित होते हैं। इनके होने से ही हमारी प्राणवायु सुरक्षित रूप से लयबद्ध है।

ओशो कहते हैं, 'यह अस्तित्व सचेतन है। यह जीवंत है, अंतर्गर्भ तक जीवंत। चट्टानें भी जड़ (अचेत) नहीं हैं, ये अपने ढंग से सचेत हैं। हो सकता है कि हमारे लिए यह उपलब्ध न हों, हो सकता है कि हमें पता न चले कि ये सचेत हैं या नहीं, क्योंकि सचेत होने के लाखों ढंग हैं। मात्र मानव का ढंग ही एकमात्र नहीं है। वृक्ष अपने ढंग से सचेत हैं, पक्षी अपने ढंग से, जानवर और चट्टानें अपने तरीके से। चेतना अनेकानेक ढंगों से अभिव्यक्त हो सकती है। इस ब्रह्मांड में हर अभिव्यक्ति के अनंत ढंग हैं।


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