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भारतीय समाज की प्रकृति बावलेपन से लबरेज

हमें फॉलो करें भारतीय समाज की प्रकृति बावलेपन से लबरेज
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प्रभु जोशी

यह आकस्मिक नहीं कि हमारे इस कमजोर बौद्धिक आधार वाले मौजूदा भारतीय समाज की प्रकृति पिछले कुछ दशकों से एक निरे बावलेपन से भरी हुई हो गई है जिसे आसानी से किसी भी दिशा में हांका जा सकता है। इसे हांकने में इसकी कोई पुरानी देशज परंपरा नहीं, बल्कि अत्याधुनिक प्रविधियां काम कर रही हैं जिसे इस देश का स्वतंत्र मीडिया जादू की छड़ी की तरह उसके हाथ में थमा रहा है।

कहने की जरूरत नहीं कि उदारवाद के साथ ही भारत में जिस तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने बहुमुखी शक्ति के साथ आया और उसने दशानन की तरह अपने दस-मुखों से देश और समाज के बारे में बोलना शुरू किया और हमने उसे घर में पितृपुरुष के सम्मान से जगह दी और वह अंततः वह हमारा स्वघोषित अभिभावक बन गया, उसने हमसे हमारी सोचने-समझने की सारी कूबत छीनी और हमें यह समझा दिया कि सोचने का यह काम अब तुम्हारा नहीं है। हमने ही तुम्हारे भविष्य के सुधार को गढ़ने की निविदा ले ली है।

मीडिया ने आते ही सबसे पहले हमें यह बताया कि हमें वह 21वीं सदी में ले जाने वाला है। तैयारियां करो और इतिहास के बोझ को फेंको। बाजार आ रहा है वहां से तुम्हें नया भविष्य खरीदना है।

बहरहाल, मीडिया ने बाजारवाद के केंद्रीय आशावाद से भारतीय समाज को एक विचित्र बावलेपन से भर दिया। उसने पहला काम ये किया कि भारत के भीतर एक दूसरा भारत पैदा करना शुरू किया- ये दूसरा भारत था- 'यंग इंडिया'। कॉर्पोरेटी ग्लोबलिस्टों ने बताया कि इस उत्तर-आधुनिक मीडिया का काम बिलकुल अलग है।

दरअसल, वो काम था अल्प उपभोगवादी भारत में एक नए ड्रीम कंज्यूमिंग यूथ का निर्माण करना, क्योंकि अपने बूते से बाहर के सपने का हक शेखचिल्ली से छीन लिया गया था। लेकिन जल्दी ही शीराजा बिखर गया, क्योंकि बाजार ने ज्यों ही धर्म की नई पैकेजिंग शुरू की और जींसधारी यूथ के कंधे पर भगवा दुपट्टे लटके और राम-जन्मभूमि के ताले खुलते ही उसने बाबरी को ढहा दिया।

अब उसका स्वप्न हिन्दुओं का अखंड भारत हो गया। इसी मीडिया ने फिर 'सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी' की ललकार शुरू की और अचानक भारत सूचना प्रौद्योगिकी का विराटावतार कहा जाने लगा। दुनिया उसकी मुट्ठी में होने का भ्रम बन गया और दुनिया पूंजीपतियों की मुट्‌ठी में जाने लगी। देखते-देखते इंटरनेट और मोबाइल से निकली सुनहरी सुरंगों में पूरा देश दाखिल हो गया।

ध्यान से याद कीजिए कि इन दशकों में देश में कोई बड़ा उद्योग नहीं आया, सिर्फ धंधे (ट्रेड्‌स) आए। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने और मौज-मस्ती का नया संसार खोलने वाले। लेकिन आय के स्रोतों की कमी ने एक नई राष्ट्रव्यापी निराशा को जन्म दिया।

सत्ता में भ्रष्टाचार की गुप्त-गंगा मुहाने तोड़ रही थी, तभी हैप्पी इकॉनॉमिक्स ने 'अच्छे दिन' आने की घोषणा की। देश की राजनीति में ऐसा नया उलटफेर आया कि उसने सबको चौंका दिया। यह दल को ही देश मानने वालों के लिए राजनीतिक सदमा था।

लेकिन उन्हें भारतीय समाज के बावलेपन पर पूरा भरोसा था कि जल्द ही उनके लिए कोई रास्ता निकल आएगा। बाबरी के बाद दादरी हो गई। लगे हाथ उनका डर एकदम बड़ा बन गया। राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों को खासतौर पर भय लगने लगा। पहले उन्हें पोर्न साइट्‌स देखने के मौलिक अधिकार तक में अभिव्यक्ति का अपहरण दिखने लगा और उन्होंने प्रतिरोध का शंखनाद कर दिया।

इसके बाद भय का ऐसा विस्तार शुरू हुआ कि करोड़ों की कोठियों वाले देश छोड़ने की तैयारी करने लगे, क्योंकि यह बहुसंख्यक वर्ग की असहिष्णुता की वजह थी। यह गृहयुद्ध के लक्षण बनने-कहलाने लगे। लेकिन यदि हम इस असहिष्णुता का अंतरपाठ करें तो पाते हैं कि दरअसल हम मोदी के प्रधानमंत्रित्व को प्रजातांत्रिक दृष्टि से देख नहीं पा रहे हैं।

हमें यह लग रहा है कि लड़ाई जो उदारवादी जनतंत्र और नवपूंजीवाद के बीच होने को थी, वह जनतंत्र और 19वीं सदी के धार्मिक मूलवाद के बीच शुरू हो गई है। हमें लग रहा है कि राजनीति एक एथनो-नेशनलिज्म के जबड़े में फंस गई है। सारा मीडिया और सारे देसी-परदेसी बुद्धिजीवी इस भय को बड़ा करने में अपने तर्कों का निवेश करने में लगे हैं।

यह नहीं सोच पा रहे हैं कि आपकी निगाह में यदि एक तानाशाह जनतांत्रिक पद्धति से सिंहासन पर आरूढ़ हो गया है तो क्या हमारा उस पद्धति विश्वास ही उठ जाना चाहिए? क्या प्रजातंत्र अब एक अमोघ जन-अस्त्र की हैसियत से पूरी तरह हाथ धो चुका है? हम यह कैसे भूल गए कि जनतंत्र को बर्दाश्त बाहर बनाने देने वाला जो ये मीडिया है वही तानाशाही को भी असंभव कर देता है अतः तानाशाही का भय व्यर्थ है। ये रेडीमेड भय है।

लेकिन हकीकत ये है कि हम राजनीतिक दलों के निराशावाद को ओढ़कर धर्मांधता से लड़ने के बजाय धार्मिकता से भिड़ रहे हैं। याद करना चाहिए कि एक शांत और निरावेशी-सा बहुसंख्यक समुदाय यदि आज एक अंध-राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रहा है तो इसके लिए दशकों तक सत्ता की संरचना गढ़ने वाले दलों का ही दोगलापन है जिन्होंने तुष्टिकरण को पोस्टडेटिड-चेक की तरह हर बार चुनाव में इस्तेमाल किया।

धर्मांधता से भिड़ने के नाम पर केवल उस दल ने हिन्दू-विरोधी का रूप ले लिया और मत-पेटी में नए प्रेत-प्रश्न पैदा कर दिए। अलबत्ता, आज हिन्दुत्व की भर्त्सना किए बगैर आप एक घृणित व्यक्तियों की सूची में शामिल कर दिए जाते हैं। आप भारतीयता से ही हाथ धो बैठते हैं। इस दृष्टिकोण ने ही इस्लामिक कट्‌टरवाद से होड़ लेते हिन्दुत्व की खतरनाक परिभाषा गढ़ने की पूर्व पीठिका तैयार की।

दरअसल, इस समझ ने इस्लामिक कट्टरवाद को चोट नहीं पहुंचाई बल्कि एक समावेशी सामासिक संस्कृति को क्षतिग्रस्त किया। आज जो यह भयादोहन हमारे द्वारा किया जा रहा है, यह राजनीति का नया विनष्टीकरण है। वैसे हमें एक घोर कम्युनिस्ट विचारक की इस बात को याद करना चाहिए कि एक आदमी की हत्या त्रासदी है लेकिन हजारों की हत्या महज आंकड़ा।

एक घटना को पूरे देश की सहिष्णुता के आगे काले नेपथ्य की तरह डालना हमें निश्चय ही शनै:-शनै: गृहयुद्ध की तरफ ले जाएगा। ये भारतीय समाज के लिए एक चुना हुआ आत्मघात है।

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