नरेन्द्र मोदी और जदयू नेता नीतीश कुमार को सत्ता के सिंहासन तक पहुंचाने वाले चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर एक बार फिर चर्चा में हैं। तुलनात्मक रूप से इस बार उनके पास बड़ी चुनौती है क्योंकि वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की चुनावी नैया पार कराने का जिम्मा भी प्रशांत किशोर के पास है।
प्रशांत किशोर के लिए उत्तरप्रदेश बड़ी चुनौती इसलिए है क्योंकि कांग्रेस इस समय वहां लगभग 'वेंटीलेटर' पर है। यूपी की 403 सदस्यीय विधानसभा में वर्ष 2012 के चुनाव में कांग्रेस महज 28 सीटें जीतने में ही सफल हो पाई थी। वह भी तब जब चौधरी अजितसिंह के लोकदल के साथ उसका गठबंधन था। इनके गठबंधन को राज्य में कुल 38 सीटें हासिल हुई थीं। वर्ष 2007 की बात करें तो कांग्रेस सिर्फ 22 सीटों पर सिमट गई थी। ऐसे में कांग्रेस के लिए राज्य में सरकार बनाना तो दूर की कौड़ी ही होगी, लेकिन यदि वह 50 के आंकड़े को भी पार कर जाती है तो यह सफलता निश्चित ही प्रशांत के खाते में जाएगी।
यदि यह कहें कि मोदी की सफलता के पीछे प्रशांत किशोर की ही पूरी रणनीति थी तो यह पूरी तरह सही नहीं होगा क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनाव में एक तो पूरे देश में परिवर्तन की लहर थी, दूसरा मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर देशवासियों में बहुत उत्सुकता थी। वे एक बार नरेन्द्र मोदी को आजमाना चाहते थे। इसके साथ ही मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में लाने की तैयारी भी बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। निश्चित ही सही समय पर सही व्यक्ति से जुड़ने का फायदा यहां प्रशांत किशोर को मिला।
बिहार में मोदी लहर के बावजूद नीतीश का सत्ता के शिखर तक पहुंचना निश्चित ही राज्य की जनता का चौंकाने वाला फैसला था। यहां भी सफलता का सेहरा प्रशांत किशोर के माथे ही बंधा और इस सफलता के बाद तो वे बड़े चुनावी रणनीतिकार के रूप में उभरे। इस जीत का पूरा श्रेय प्रशांत को इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि बिहार में जदयू, राजद और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा था और तीनों ही पार्टियों के वोटों में बिखराव नहीं हुआ। हालांकि प्रशांत को इस बात का श्रेय तो दिया ही जाना चाहिए कि उन्होंने भाजपा की नकारात्मक बयानबाजी को नीतीश के पक्ष में मोड़ने का काम सफलता के साथ किया।
उत्तर प्रदेश का गणित बिलकुल उलट है। यहां वोटों का गणित जातियों में उलझा हुआ है। दलित वोटों पर जहां मायावती का कब्जा है वहीं MY (मुस्लिम यादव) समीकरण के जरिए मुलायम सिंह यादव सत्ता में वापसी के लिए खम ठोंक रहे हैं। हालांकि इस बार इसमें संदेह है कि मुस्लिम वोट एकतरफा समाजवादी पार्टी की झोली में जाएंगे। दादरी कांड के बाद मुस्लिम वोटों में विभाजन तय है। भाजपा भी सवर्णों और ओबीसी वोटों के सहारे देश के सबसे बड़े राज्य में सत्ता प्राप्त करने का ख्वाब बुन रही है।
हालांकि कांग्रेस ने अपनी शुरुआती रणनीति में जाति और संप्रदायों को साधने की पूरी कोशिश की है। शीला को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर जहां उसने ब्राह्मण समुदाय को साधने की कोशिश की है, वहीं गुलाम नबी आजाद को यूपी का प्रभार देकर 17 फीसदी मुस्लिमों पर डोरे डाले हैं। इनमें भी मोदी की बोटी-बोटी करने वाले इमरान मसूद को उपाध्यक्ष बनाकर कट्टर मुस्लिमों को अपने खेमे में करने का पूरा प्रयास किया है।
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने राज बब्बर को किसी भी गुट का नहीं माना जाता। ऐसे में उम्मीद की जा रही है वे सभी को साथ लेकर चलने में सफल होंगे। चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष संजयसिंह अमेठी राजघराने से ताल्लुक तो रखते ही हैं साथ ही उनके माध्यम से राजपूत वोटरों को भी साधने की कोशिश की गई है, जिनकी संख्या राज्य में 8 फीसदी के लगभग है। कांग्रेस अपने तुरुप के पत्ते यानी प्रियंका गांधी का भी चुनाव प्रचार में इस्तेमाल कर सकती है, जिसकी संभावना इस बार ज्यादा है।
इसमें संदेह नहीं कि इस पूरी रणनीति में प्रशांत किशोर का भी योगदान होगा ही, लेकिन उम्र के 78 वसंत देख चुकीं शीला दीक्षित अपनी भूमिका से कितना न्याय कर पाएंगी, यह सोचने वाली बात है। साथ ही जो गुलाम नबी आजाद अपने ही राज्य कश्मीर में चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं हैं, वे यूपी में कांग्रेस को कितने मुस्लिम वोट दिला पाएंगे, यह अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं है।
लेकिन, एक बात तय है कि इस बार प्रशांत की इज्जत दांव पर है। यदि वे सफल नहीं हुए तो यही कहा जाएगा कि पिछली सफलता में सिर्फ 'सही टाइमिंग' और भाग्य का ही कमाल था और सफल हुए तो वे निर्विवाद रूप से कुशल चुनावी रणनीतिकार के रूप में उभरेंगे। प्रशांत की असली परीक्षा तो उत्तर प्रदेश में ही होगी। सबको इंतजार रहेगा 2017 के यूपी चुनाव का, क्योंकि कांग्रेस और प्रशांत का भाग्य एक-दूसरे से जो बंधा है। एक गया तो दोनों गए समझो।