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लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल

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अनिल त्रिवेदी (एडवोकेट)

31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के करमसद ग्राम में एक निर्धन परिवार में सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म हुआ था। उनके पिता झवेर भाई के पास लगभग 8-10 बीघा ही जमीन थी। खेती की अल्प आमदनी में से बड़े परिवार, जिसमें माता-पिता सहित कुल 5 भाई और 1 बहन थे, के लिए वह काल आर्थिक दृष्टि से विपन्नावस्था का ही कहा जाएगा।
 
आज से करीब सवा सौ से भी अधिक वर्ष पहले भारत में साक्षरता या पढ़ाई-लिखाई का प्रतिशत कितना कम रहा होगा? और उस समय का करमसद तो एक सामान्य गांव ही रहा होगा। इसलिए जिस समय आमतौर पर लोगों में पढ़ने-पढ़ाने की रुचि नहीं थी, उस समय बालक वल्लभ भाई का प्रतिकूल परिस्थितियों में भी पढ़ने का अत्यंत अदम्य उत्साह बताता है कि सरदार ने विपन्नता की परि‍स्थिति में ही देश की संपन्नता को खड़ा करने का मार्ग अपने जीवन की समस्याओं से सीखकर चुना था।
 
अपने जीवनकाल में सरदार पटेल 'लौहपुरुष' कहलाते थे। असाधारण संकल्प शक्ति, अद्भुत कार्यशक्ति एवं समर्पण वृत्ति के कारण वे देश की ऐसी विविध आयामी अनोखी सेवा कर सके कि अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे एक अलौकिक व्यक्ति की तरह देशवासियों के हृदय में बस गए थे।
 
सन् 1917 में अहमदाबाद के नागरिक जीवन में प्रवेश करने के बाद वे देश के सामने अपने स्वतंत्रता संग्राम के एक अति निडर सेनानी के रूप में महात्मा गांधी से निकट साथी और शिष्य के रूप में नागपुर, बोरसर और बारडोली सत्याग्रहों में विजयी कर्णधार के रूप में, राष्ट्रीय महासभा के प्रमुख और कुशल संगठक के रूप में कांग्रेस पार्लियामेंट्री बोर्ड अध्यक्ष और कांग्रेस मंत्रिमंडलों के सलाहकार के रूप में, देश की सत्ता के परिवर्तन के सिलसिले में एक विलक्षण राजनीतिज्ञ के रूप में- ऐसे विविध रूपों में देश के सामने आए और भारत को एकरूप बनाने के उनके भगीरथ कार्य के कारण देश के इतिहास में चिरंजीवी अथवा अमर हो गए।
 
14 नवंबर 1949 को ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली से देश की जनता को देश के लिए जीने की प्रेरणा देते हुए सरदार पटेल ने कहा था- 'हम सबको मौजूदा राष्ट्रीय संकट को पूरी तरह समझना चाहिए। किसी समान खतरे के सामने हम जैसा करते हैं, वैसे ही आज भी हमें आपसी मतभेद भूल जाना चाहिए। हमें राष्ट्र के प्रति अपना ऋण चुकाने के लिए मितव्ययी बनना चाहिए। अगर देश आर्थिक गुलामी में डूब गया, तो कौन फलेगा-फूलेगा? अगर देश तरक्की करे तो कौन डूबेगा? यही हमारी एकमात्र भावना होना चाहिए; यही हमारा एकमात्र विचार होना चाहिए। उद्योगपतियों को अपने कारखानों और मशीनों से ज्यादा से ज्यादा पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए। मजदूरों को चाहिए कि वे देश के हित के लिए अपने साधनों से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने में राष्ट्र को मदद करें। घड़ी की निश्चितता और पूर्ण संतोष के साथ मशीनों के चक्र घूमने चाहिए और आपसी छिद्रान्वेषण खत्म हो जाना चाहिए। व्यापारियों को भी इस काम में हाथ बंटाना चाहिए। इस बात का यकीन दिलाना उनका फर्ज है कि तैयार की हुईं चीजें उपभोक्ताओं के पास कम से कम कठिनाई और कम से कम अतिरिक्त कीमत में पहुंचे। वाजिब नफा वे जरूर लें, लेकिन गैरवाजिब नफा कमाना राष्ट्रीय गुनाह माना जाएगा। दूसरी तरफ अगर किसी को देश के भले के लिए अपने हक की चीज का भी त्याग करना पड़े तो उसे खुशी से करना चाहिए। जब देश में जीवन के लिए इतना घोर संघर्ष चल रहा है, तब देश के प्रति अपने कर्तव्य को भूलकर अपनी जेब भरने का ही ध्येय नहीं रखना चाहिए।' 
 
सरदार पटेल का देश के हर वर्ग एवं समूह से राष्ट्र निर्माण का आह्वान आज के काल में भी उतना ही प्रेरणादायी एवं अनुकरणीय है जितना देश की स्वाधीनता की घड़ी में था।
 
गांधीजी के साथ सरदार का संबंध कितना निकट का था, इसके बारे में जुगतराम भाई दवे ने सुन्दर विश्लेषण करते हुए लिखा है- 'ऊपरी तौर पर दिखने वाला सरदार का अंधानुयायी स्वरूप उनकी सुजनता का लक्षण था। अन्यथा सरदार स्वयं इतने पारदर्शी दृष्टि वाले व्यवहारकुशल मनुष्य थे कि वे अपनी बुद्धि को कहीं गिरवी रख ही नहीं सकते थे! लेकिन जिस तरह सरदार के दिल की बात गांधीजी अपने आप समझ लिया करते थे, उसकी तरह बापू के दिल की बात सरदार के दिल पर अपने आप ही अंकित होती रहती थी। दोनों के दिलों के बीच ऐसा तादात्म्य सध चुका था और यह अन्योन्य आत्मिक संबंध स्वराज के निमित्त से स्थापित हुआ था।
 
जिस क्षण सरदार ने अनुभव किया कि ऊपरी तौर पर विचित्र दिखने वाले इस मनुष्य के हाथों ही भारत का उद्धार होने वाला है, उसी क्षण से सरदार बापू के सामने नतमस्तक हुए थे और बाहरी तौर पर अकड़बाज दिखने वाले सरदार में गांधीजी ने जिस क्षण देश की सेवा के लिए उनके कृतसंकल्प स्वरूप को देखा, तभी से गांधीजी सरदार की ओर आकर्षित हुए। इसलिए एक तरह से हम कह सकते हैं कि इन दोनों के बीच का यह संबंध गुरु और शिष्य का संबंध था, फिर भी गांधीजी तो सरदार का उल्लेख अपने साथी के रूप में ही करते थे। बापू की व्यक्तिगत सेवा में सरदार की जो दिलचस्पी थी, उसका सुंदर वर्णन हमें बापू के निवेदन में ही (ता. 8-5-33) मिलता है- 'सरदार ने मुझे अपने प्रेम से जिस तरह सराबोर किया, उसके कारण मुझे अपनी प्यारी मां का स्मरण हो आता था। मुझे थोड़ी भी तकलीफ होती, तो वे फौरन अपना बिछौना छोड़कर उठ बैठते! मेरी सुविधा की छोटी-से-छोटी बात का भी वे ध्यान रखते थे।'
 
सरदार ने बापू के प्रति ऐसी विरल पितृभक्ति रखी थी और कभी-कभी गांधीजी भी कहा करते थे कि सरदार तो मुझे पुत्र की तरह प्रिय है इसलिए इन दोनों के संबंध की तुलना पिता-पुत्र के संबंध के साथ भी की जा सकती है। लेकिन यह आंतरिक संबंध चूंकि दुनियादारी के संबंधों से ऊपर उठा हुआ था यानी दोनों के दिलों के ऐसे विरल तारों से बंधा हुआ था कि उसका वर्णन करने के लिए पिता-पुत्र की तुलना भी अधूरी मालूम होती है। 
 
इस संबंध का वर्णन करते हुए संत विनोबा भावे ने सरदार की मृत्यु के बाद अपने प्रवचन में कहा था- 'सरदार और गांधीजी हृदय से अत्यंत निकट थे। गांधीजी जिस दिन गुजर गए, उस दिन उनकी आखिरी मुलाकात सरदार से साथ हुई थी। गांधीजी से मिलकर सरदार घर गए और गांधीजी भगवान के पास पहुंचे।' 

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