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आइंस्टीन के पूर्व कथन की पुष्टि से रोमांचित है वैज्ञानिक जगत

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शरद सिंगी

कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भगवान कृष्ण जब अर्जुन को गीतोपदेश देते हैं, तब अपनी विभूतियों का विस्तृत विवेचन करते हुए कहते हैं कि हे अर्जुन, मैं वेदों में सामवेद हूं, देवों में इंद्र हूं, इन्द्रियों में मन हूं, महर्षियों में भृगु और देवर्षियों में नारद हूं। यदि भगवान के श्रीमुख से गीता आज कही जाती तो वे अवश्य कहते कि हे कौन्तेय, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों में मैं आइंस्टीन हूं।
 
आइंस्टीन एक साक्षात चमत्कार थे। प्रतिभा की पराकाष्ठा, विज्ञान के अधिपति थे। जो कह दिया वह ब्रह्म वाक्य और लिख दिया वह ब्रह्म सूत्र। वैज्ञानिक जगत के लिए उनके दिए गए सिद्धांत आज भी पथ-प्रदर्शक हैं। उनके अंतिम सूत्र को प्रयोगशाला में सिद्ध करने के लिए हजारों वैज्ञानिक अनेक वर्षों तक प्रयास करते रहे, क्योंकि वे जानते थे कि यदि आइंस्टीन ने कोई सूत्र दिया है तो वह गलत नहीं हो सकता। 
 
अंत में हुआ भी वही, जो सिद्धांत उन्होंने 100 वर्षों पूर्व दिया था और साधनों की कमी से प्रमाणित नहीं हो पाया था, उसे अमेरिका स्थित लिगो प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने पिछले माह प्रमाणित होने की पुष्टि कर दी। 
 
संपूर्ण वैज्ञानिक जगत हर्षित है और उसे भौतिक शास्त्र की इस सदी की महान खोज मान रहा है। प्रमाण मिल जाने से वैज्ञानिक अति उत्साह में है, जैसे उन्हें कुबेर का खजाना हाथ लग गया हो। अब जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसा कौन-सा खजाना हाथ लग गया है जिसको लेकर वैज्ञानिक इतने रोमांचित हो गए हैं। 
 
इसे समझने से पहले थोड़ा गुरुत्वाकर्षण के बारे में समझते हैं। हमें बचपन से ही पढ़ाया जाता रहा है कि पृथ्वी के अंदर एक गुरुत्वाकर्षण बल है, जो हर वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1687 में न्यूटन ने किया था। पेड़ से सेब के नीचे टपकने की कहानी भी सब जानते हैं। जिसके नीचे गिरने से आहत न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण बल की खोज कर डाली थी।
 
न्यूटन के अनुसार संसार का हर पिंड दूसरे पिंड को एक बल से आकर्षित करता है। उस बल को निकालने का फॉर्मूला भी उन्होंने बताया। इसी बल के कारण पृथ्वी से उछाली हर वस्तु पृथ्वी पर लौट आती है। बल का गणितीय आकलन तो समझ में आ गया किंतु इस बल का स्रोत क्या है, वर्षों तक वैज्ञानिकों के लिए यह पहेली बना रहा। 
 
200 से अधिक वर्षों के पश्चात सन् 1915 में आइंस्टीन ने अपने सापेक्षतावाद के सिद्धांत (थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी) में इस बल को बिलकुल भिन्न तरीके से समझाया और उसकी गणितीय व्याख्या की। यह आकलन बहुत जटिल किंतु शुद्ध था। आइंस्टीन का सिद्धांत जटिल होने की वजह से न्यूटन द्वारा प्रतिपादित फॉर्मूले का उपयोग ही होता रहा, क्योंकि सभी प्रायोगिक और व्यावहारिक दृष्टि से वह सरल एवं उपयुक्त था। 
 
आइंस्टीन ने अपने सिद्धांत में गुरुत्वाकर्षण की जगह गुरुत्वीय तरंगों की उपस्थिति को प्रतिपादित किया। गणित द्वारा इन तरंगों की उपस्थिति तो उन्होंने बता दी किंतु प्रमाण नहीं दे पाए। 100 वर्षों के पश्चात अब कहीं जाकर इन तरंगों की उपस्थिति को प्रयोगशाला में प्रमाणित किया गया है जिसको लेकर वैज्ञानिक रोमांचित हैं। 
 
इन तरंगों को समझने से पहले अंतरिक्ष की बनावट को समझें। आइंस्टीन के अनुसार पूरा अंतरिक्ष स्पेस और टाइम (दिग्मंडल और काल) से गुंथी हुई एक चादर के समान है। कल्पना कीजिए जब चारों कोनों से तानी गई एक चादर पर टेनिस बॉल के आकार की एक लोहे की गेंद गिराई जाए तो वह चादर के समतल क्षेत्र में एक जगह से झोल उत्पन्न कर देगी या चादर को एक जगह से वक्र कर देगी। अब यदि उस चादर पर कुछ कांच के कंचे गिरा दिए जाएं तो हम देखेंगे कि वे मौत के कुएं में मोटरसाइकल चलाते हुए चालक की तरह घूमते हुए उस लोहे की गेंद के निकट पहुंच जाएंगे। 
 
आइंस्टीन के अनुसार इन कंचों द्वारा गेंद की परिक्रमा करना और ऊर्जा समाप्त होने के पश्चात गेंद से आकर मिल जाने का कारण चादर में उत्पन्न वक्रता है। छोटा पिंड हमेशा बड़े के पास आने के पूर्व परिक्रमा करता है। इसको समझने के लिए पानी में पड़े भंवर की कल्पना कीजिए। भंवर में पड़े किसी लकड़ी के तिनके को देखिए कि किस तरह वह भंवर में फंसा तेजी से केंद्र की परिक्रमा करता है। इसी सिद्धांत पर हमारा सौरमंडल भी काम करता है। सूर्य एक बड़ा पिंड होने की वजह से वह स्पेस और टाइम वाली चादर को वक्र कर देता है और वह अपने आसपास लहरों का एक भंवर उत्पन्न करता है जिससे उस भंवर में फंसी हमारी पृथ्वी सहित सौरमंडल के सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं। 
 
इस तरह आइंस्टीन के अनुसार दो पिंडों में आपसी आकर्षण का कारण अंतरिक्ष एवं काल की युति से बने ब्रह्मांड में पिंडों के आकार से जो वक्रता आती है उसकी वजह से हिचकोले या गुरुत्वीय तरंगें पैदा होती हैं, जो पिंडों के बीच आकर्षण का कारक होती हैं। एक अत्यधिक द्रव्यमान वाला पिंड काल-अंतराल को इस तरह से वक्र कर देता है कि इस वक्र से गुजरते हुए अन्य छोटे पिंड, उसकी परिधि में आकर बड़े पिंड की परिक्रमा करने लगते हैं। पिंड का द्रव्यमान जितना अधिक होगा वह उतनी ही अधिक ऊर्जावान तरंगें छोड़ता है। 
 
करीब डेढ़ अरब वर्षों पूर्व सूर्य से 30 गुना बड़े दो श्याम पिंडों का मिलन हुआ था और उन्होंने गुरुत्वीय तरंगों का महापुंज छोड़ा था जिसे भौतिकविद एक अतिआधुनिक उपकरण द्वारा पकड़ने में सफल रहे हैं। यही उनके उत्साह का कारण है, क्योंकि उन्हें अंतरिक्ष को जानने और समझने के लिए एक नया साधन मिल गया है। अभी तक वैज्ञानिकों के पास प्रकाश ही था जिसकी सहायता से वे तारों या ग्रहों का अध्ययन करते थे। 
 
इस पद्धति से वे अभी तक ब्रह्मांड के केवल 4 प्रतिशत भाग का ही नजारा कर सके हैं किंतु अब इन गुरुत्वीय तरंगों का पता लगने से वे उस भाग को भी जान सकेंगे, जहां से प्रकाश नहीं आ पाता या उन श्याम पिंडों (ब्लैक होल्स) का अध्ययन कर सकेंगे, जो प्रकाश नहीं छोड़ते। प्रकाश की राह में यदि कोई अपारदर्शी पदार्थ आ जाता तो प्रकाश वहीं रुक जाता है किंतु गुरुत्वीय तरंगें हर पदार्थ और हर पिंड से पार हो जाती हैं और यही कारण है कि पृथ्वी पर आप कहीं भी छुपे हों, गुरुत्वीय तरंगें आप तक पहुंच जाती हैं। 
 
पदार्थ अंतरिक्ष को वक्र करता है और अंतरिक्ष पदार्थ को गति देता है। यही रहस्य है अंतरिक्ष का जिसे आइंस्टीन विश्व को समझाकर चले गए। अंतरिक्ष को जानने और समझने के लिए उनका यह सिद्धांत एक कुंजी की तरह काम करेगा जिससे हम आगामी कई वर्षों तक नए रहस्यों को खुलते देखेंगे। महाविभूति युगांतरकारी महावैज्ञानिक आइंस्टीन को लेखक का शतश: प्रणाम। 

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