श्रीराम ताम्रकर हिंदी सिने पत्रकारिता के ऐसे और एक मात्र व्यक्ति रहे हैं जिन्हें भारतीय और विश्व सिनेमा का संदर्भ सम्राट कहा जा सकता है। वे अंग्रेजी के फिरोज रंगून वाला से कहीं ज्यादा संदर्भ संपन्न थे और उनके लिए हम लोग पैदल चलता विश्वकोष का इस्तेमाल किया करते थे। वे अपनी निश्चल हंसी के साथ बहुत जल्दी अपनी प्रशंसाओं को एक और करते हुए हमें लेकर होने वाली चिंताओं पर बात करने लगते। उनका न रहना इंदौर नहीं बल्कि समूची हिंदी सिने पत्रकारिता को अवसाद से भरने वाली खबर है।
पिछले ही दिनों उन्होंने एक गहरी तसल्ली के साथ कहा था कि मैं अपने जीवन के अंतिम स्वप्न को पूरा करने के बिलकुल निकट हूं। फिल्म को लेकर एनसाइक्लोपीडिया का काम पूरा हो गया है। सिर्फ उसके प्रेस से बाहर आने भर की देर है। दरअसल वे ह्रदय की शल्यक्रिया से लौटकर मुंबई से आए थे। हालांकि कमजोर जरुर हो गए थे, लेकिन उनकी आंखो में पत्रकारिता को लेकर वही जूनून था जो कभी मैने उनसे पहली मुलाकात में झलकते देखा था। वे भारत की पहली फिल्म सोसायटी चला रहे थे जिसमें हमने विश्व सिनेमा की लगभग अलभ्य सी फिल्मों को देखा।
गोदार, बर्गमेन, त्रूफो या तारकोवस्की की फिल्में उन्हीं की वजह से इंदौर के सिने प्रेमियों ने देखी। यह समांतर फिल्म आंदोलन की शुरूआत थी और यह कहनेकी जरुरत नहीं कि उन्होंने इंदौर जैसे शहर में एक चेतस-प्रेक्षक समाज गढ़ा। वे उन कथा फिल्म की पूरी जानकारी और संक्षिप्त टिप्पणी के साथ सोसायटी के सदस्यों को भेजते थे। उन्होंने इस मूवमेंट से जुड़े सिने कलाकारों, निर्देशकों और लेखकों को आमंत्रित किया।
फिल्म और टेलीविजन संस्थान पूना के प्रोफेसर को बुलाया और फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स के आयोजन किए। बहुत जल्द ही उनकी स्वीकृति राष्ट्रीय स्तर पर बन गई थी। उन्होंने मध्यप्रदेश फिल्म विकास निगम के सहयोग से इंदौर में ऐसे अनोखे फिल्म उत्सव जिसको लेकर सिनेमा का बौद्धिक दर्शकों में इतना उत्साह होता था इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। यह उनकी प्रसिद्धि और पहचान का पठार था। लेकिन अभी भी उनके लिए और अधिक उंचाईयों की यात्रा शेष थी।
80 के दशक के उत्तरार्ध में वे नईदुनिया से जुड़े और मनोरंजन धर्मी फिल्म पत्रकारिता को उन्होंने एक बौद्धिक उंचाईयां देना आरंभ की। प्रति वर्ष नईदुनिया का फिल्म विशेषांक एक अकेले उन्हीं के बलबूते पर निकलने लगा। कहना न होगा कि एक दशक तो जो भी अंक उन्होंने संपादित किए वे देशभर के सिने-पत्रकारिता के प्रेमियों के लिए प्रतिमान बन गए। वे सर्वकालिक संग्रह का हिस्सा हो गए।
यह भरे गले से गीली आंख के साथ लिख रहा हूं कि उन्होंने इस सबसे यदि कुछ कमाया तो वह है अपने पाठकों का प्रेम। वही उनकी पूंजी भी रही। यदि यही काम वे मुंबई में रहकर कर रहे होते तो धनाढ्य पत्रकारों की कतार में होते। लेकिन,यह उनकी फितरत में ही नहीं था। दानी की तरह देना ही देना उन्हें याद था।
नईदुनिया से वे जब अलग हुए तो विश्वविद्यालय से जुड़े और उन्होंने देश के लगभग आधा दजर्न विवि के लिए सिनेमा पाठ्यक्रम तैयार किया। मगर इन सब कामों के लिए श्रेय की ललक उन्होंने कभी नहीं दिखाई। हमेशा ही नेपथ्य में बने रहे। कभी कभार जब उन्हें आगे कर दिया जाता था तो वे लगभग पवित्र ग्लानि अनुभव करते। कहा करते फिल्म विषय का कोई बौद्धिक हस्तक्षेप मुझसे हो यही मेरा प्रतिसाद है।
मुझे याद है मैने इंदौर दूरदर्शन के लिए उनके अवदान पर आधे घंटे की फिल्म की थी जिसके लिए भी वे बड़े गहरे संकोच के साथ तैयार हुए थे। उन्होंने फिल्मों में होने वाले मृत्यु दृष्यों पर एक लंबा लेख तैयार किया था। और ऐसे लिखा था जैसे मृत्यु कोई पात्र है और वे उसके अभिनय को रेखांकित कर रहे हैं। लेकिन मृत्यु ने अभिनय नहीं किया। वह उन्हें एक अधूरे स्वप्न के बीच से हाथ में से झपटकर उठा ले गई। श्रीराम ताम्रकर की विदाई के बारे में सोचते लगता है कि इस राम की लीला अभी शेष थी। मृत्यु की यह कैसी लीला है कि अधूरे स्वप्न के आगे पूर्ण विराम--की पूर्ण हुए श्रीराम। मेरा उनको नमन।