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पोर्न के पँसारियों के पैंतरे और पक्ष

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प्रभु जोशी

सर्वोच्च न्यायालय में सन 2013 में दायर की गई, एक जनहित याचिका को अपने संज्ञान में लेते हुए, केन्द्र सरकार ने कोई 857 ऐसी पोर्न साइट को चिन्हित किया, जिन्हें देश और समाज के हित में प्रतिबंधित किया जाना ज़रूरी है। इधर सरकार ने उन्हें प्रतिबंधित करने की घोषणा की और लगे हाथ उधर भारत की अदृश्य सिविल सोसाइटी फनफनाकर जागी और देखते-देखते सोशल मीडिया पर उसने ऐसी हाय-तौबा मचाई कि अपनी लगातार गिरती जा रही छवि से डरी हुई सरकार ने पाबंदी तुरंत हटा ली। हालाँकि, सरकार ने ग्लानि-बोध के साथ, यह व्यर्थ ही सफाई दी कि यह प्रतिबंध तो केवल उन कथित पोर्न-साइट्‌स भर के लिए ही था, जो बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री उपलब्ध कराती हैं। 
दरअसल, उदारीकरण की सांस्कृतिक चपेट में आ चुके भारतीय समाज में बहसें अब परिभाषाओं के 'चरम' को छूने वाली हो गईं हैं। आज़ादी की, जब भी और जहाँ भी कहीं बात आती है, तो वह, उस 'व्यक्तिवाद' में जाकर गगनभेदी हो जाती है, जो कभी प्रगतिशील दृष्टि में सर्वाधिक आलोच्य शब्द हुआ करता था, लेकिन अब वह केन्द्र में आ गया है। नतीज़तन, अब 'निजता' का प्रश्न सर्वोपरि हो चुका है। 
 
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मार्क्सवाद के विचारधारात्मक वर्चस्व के युग में 'व्यक्तिगत स्वतंत्रता' का प्रश्न एक विश्वासघात की तरह माना जाता था, जिसने अन्ततः लेखकों के संगठन के ध्वंस की शुरुआत की। आज के पूँजीवादी उदार जनतंत्र में यह प्रश्न नए ढंग से परिभाषित होते हुए, अपनी थ्योरिटिकल संभावना को मूर्त करना चाहता है। व्यक्तिवाद, 'निजता' के रूप में अपनी उच्चतम स्थिति हासिल कर चुका है और इस समय सामाजिक जीवन में, अपने सबसे विध्वसंकारी सामर्थ्य के साथ उपस्थित हो चुका है।
 
इसी 'निजता' की माँग के चलते, आज एक युवक के लिए उसका पिता, उसका निकटतम शत्रु है और माँ एक निकटतम शत्रु, युवती के लिए। क्योंकि, अब उसके मोबाइल को छूना या देखना, उसकी 'निजता' में सीधा हस्तक्षेप है। चूँकि, अब वह एक छत के नीचे, संगठित रूप से रहने वाला उस घर का सदस्य नहीं, बल्कि 'मार्केट-फ्रैंडली-इंडिविजुअल' है। उसकी 'निजता' को बाज़ार परिभाषित करता है।
 
यह नई उत्तर-आधुनिकता का सांस्कृतिक तर्क है, जो बेलिहाज़ होकर कहता है- 'हाऊ कुड यू डेअर टू टच माय मोबाइल, ममा? (या) पापा?' मोबाइल अब लगभग अन्तर्वस्त्र की तरह 'निजी' है। क्योंकि उसमें उसके 'केजुअल सेक्स' के डिटेल्स हैं। उसमें, उसके साइबर सेक्स का विवरण है। फेवरिट पोर्न क्लिप्स हैं, जो मित्रों के बीच का दैनंदिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान है।
 
कुल मिलाकर, ऐसे में यह पूछा जाना चाहिए कि क्या 'निजता' का प्रश्न, इतना बड़ा नहीं बना दिया गया है कि उसके समक्ष, 'सामूहिकता' का वध अब अनिवार्य हो चला है। कहना न होगा कि यह उस 'सामूहिकता का संस्कार' ही था कि घर का मुखिया कुछ ऐसी चीज़ों को प्रश्नांकित कर सकता था, जो परिवार नामक इकाई की 'सामूहिकता' को विखंडित करती हो। आज, जब घर का मुखिया ही, उसकी 'निजता' पर टिप्पणी नहीं कर सकता, तब ऐसे में सत्ता उसको बाधित करने वाली कौन होती है? 
 
दरअसल, अभी तक, 'ज्ञान', 'धन' और 'हिंसा' की, जो त्रयी थी- अब उसका, एक चौथा घटक और जुड़ गया है और वह है- 'देह'। देह भी एक सत्ता है। वह मिल्कियत है। उसके मनचाहे उपभोग पर किसी भी तरह और तरफ़ से प्रश्न  उठाना, उसकी 'व्यक्तिगत' स्वतंत्रता में प्रपंचकारी हस्तक्षेप है। सर्वसत्तावाद है। इसलिए, अब 'आत्महत्या का अधिकार' भी माँगा जा रहा है। यदि इसको लेकर भी सिविल-सोसाइटी जाग गई, तब किसी को भी 'आत्महत्या करने से रोकने' की कोशिश करना, उसकी व्यक्तिगत-स्वतंत्रता में हस्तक्षेप माना जाएगा। 
 
याद करिये, जब दिल्ली में 'निर्भया-कांड' घटित हुआ तो इंडिया गेट पर भारत की सिविल-सोसाइटी एकत्र हुई और उसने अपराधियों को 'फाँसी की सज़ा की माँग की थी। हालाँकि, वही सिविल-सोसाइटी, याकूब को फाँसी की सज़ा नहीं देने की माँग कर रही थी। लेकिन, उस सिविल-सोसाइटी ने, तब उन पोर्न साइट्‌स पर, प्रतिबंध की माँग नहीं की, जो अपनी करोड़ों की तादाद में होकर, युवाओं तक निःशुल्क पहुंचाई जा रही हैं और जो अपने अभीष्ट में स्त्री को सिर्फ़ सेक्स ऑब्जेक़्ट में बदलने का अमानवीय काम कर रही है। तभी सेक्स के साहूकारों के कारिन्दों ने प्रायोजित सर्वेक्षणों के ज़रिये, मीडिया में यह प्रचार शुरू कर दिया कि यौन-अपराधों में पोर्न साइट्‌स की कोई भूमिका नहीं है। 
यौन-उद्योग के दलालों ने दलीलों की झड़ी लगवा दी कि बलात्कार तो तब भी होते थे, जब पोर्न साइट्‌स नहीं हुआ करती थीं। अलबत्ता, इससे यौन उत्तेजना का समायोजन होता है। लेकिन, ठीक इसी समय अमेरिका की नार्दन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर एंथोनी एजेंतो द्वारा करवाया गया सर्वेक्षण कह रहा था कि पोर्न वेब के कारण, स्त्री के प्रति होने वाली यौन-हिंसा में 53 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 
 
बहरहाल, जैसा कि हमारे यहाँ ऐसे वक्त में बहसों में होता आया है, सेक्स-साहूकारों के कारिन्दे, दौड़ कर सीधे खजुराहो के मंदिरों के शिखर पर चढ़ गए और वहाँ से बोलने-बताने लगे कि देखो, भारत में तो ये शुरू से ही था। फिर वे वात्स्यायन के कामसूत्र का उल्लेख इस तरह करने लगे, जैसे वह स्मार्ट फोन की तरह, वह पुस्तक हरेक आदमी के हाथ में, हर समय रहती थी। भारतीय सामाजिक जीवन में यौन-रंजन की ऐसी सुलभता कोई वज्र मूर्ख ही सिद्ध कर सकता है। 
 
दरअसल, कामसूत्र और खजुराहो भी सामंतवाद का अध्यात्मवादी घालमेल से बना ऐसा प्रतिमान था, जिसकी पहुँच, तब जन-जन तक कतई नहीं थी। जिस युग में, सामान्य के लिए, 'देवघर' और 'देवभाषा' में ही प्रवेश दुःसाध्य था, वहाँ खजुराहो के दैनं‍दिन दर्शन और कामसूत्र के प्रतिदिन पारायण की तरह प्रस्तुत करना बौद्धिक धूर्तता की परिष्कृत प्रविधि है। दरअसल, हमारी कथित सिविल-सोसाइटी, पोर्न उद्योग की हितकारणी संस्था की भूमिका में है।
 
अब, यह किसी से भी छिपा नहीं रह गया है कि आवारा-पूँजी के बल पर, भारत को भूमंडलीकृत किए जाने के नाम पर अमेरिका के यौन उद्योग द्वारा भारत आरंभ से ही एक विराट आकर्षक बाजार के रूप में देखा जाता रहा है। कोई आठ वर्ष पूर्व 'प्ले-बॉय' नामक पोर्न पत्रिका ने बहुत स्पष्टता के साथ यह लिखा था कि 'भारत एक बन्द समाज होने के कारण यौन उद्‍योग के लिए एक 'वर्जिन टेरेटरी' है। उसको एक 'मैस्क्युलिन' पहचान देना ज़रूरी है। तभी एम. टीवी और फ्रांस की फैशन टीवी चैनल ने, प्रसारण की आचार-संहिता के अभाव में, धड़ल्ले से सैक्स 'कंटेंट' देना शुरू कर दिया। उनका एजेंडा था, 'इन्वेड द सेक्रेड'। अर्थात्‌ पवित्र में ध्वंस। इस प्रसारण को कहा गया 'ओपन द फ्लड गेट्‌स'।
 
यही वो समय था, जब मीडिया और फिल्मों ने, एक नई स्त्री गढ़ना शुरू की। इसे कॉण्ट्रा-गर्ल, कॉसमास गर्ल, एस्कार्ट गर्ल आदि-आदि नाम दिया गया। ये पुरानी कॉल-गर्ल के नए नामकरण थे। एड्‌स-रोग ऐसे में वरदान सिद्ध हुआ। उसके बहाने सेक्स को ट्रांसपेरेंट बनाने के अभियान में सर्वाधिक मदद मिली। स्कूली-बच्चे कंडोम के उपयोग की विधियों का प्रशिक्षण पाने लगे। इलेक्ट्रॉनिक माध्यम के विज्ञापनों में, एक नया टेलिजेनिक पिता पैदा हो गया, जो घर के बाहर जाने वाले बच्चे की जींस की जेब में, कंडोम रखकर, अपने पितृ-कर्त्तव्य को पूरा करने की दिव्य तुष्टि से भरा बरामद होने लगा।
 
तब तक ब्राड-बेंड आ गया और साइबर-सेक्स की लाखों-लाख गलियाँ खुल गईं और हमारे मध्यवित्तीय परिवारों के बेटे-बेटियों को 'पवित्रतावाद' से मुक्ति मिली और वे 'सेक्स-स्टार्विंग' दुरावस्था से बाहर आकर, यौन-तुष्टि में नई आत्मनिर्भरता हासिल करने में दक्ष हो गए। कहने की ज़रूरत नहीं कि स्मार्ट फोन ने तो स्वर्ग मुट्‍ठी में कर दिया। ऑनलाइन सेक्स के प्रपात में सद्यःस्नात पीढ़ी सामने आ गई। सेक्स भी, केवल एक स्त्री और एक पुरुष के सीमित दायरे से निकलकर, ग्रुप-सेक्स की थ्रिल आविष्कृत करने लगा। यह नया यौन-व्यवहार है, जो अब किसी से छुपा हुआ नहीं रह गया है। 
 
हक़ीक़तन, भूमंडलीकृत विश्व के, इस डिज़िटल युग में, यौन-उद्योग, कई देशों में राजस्व का एक बड़ा हिस्सा जुटाता है। चीन, जिसने 'क्लीन द वेब' के तहत अश्लील वेब-साइट्‌स को प्रतिबंधित किया, वही अमेरिका के अलावा कई अन्य देशों में सेक्स-टायज़ का व्यापार करता है। पिछली बार का उनका आँकड़ा 940 मिलियन के पार जा चुका था। 
 
अमेरिका की जूनियर रिसर्च संस्था ने मोबाइल पोर्न के कारोबार का पहला अनुमानित आँकड़ा, तेईस हजार करोड़ बताया था, जो सन्‌ 2010 तक दो लाख सत्तर हजार करोड़ पार कर चुका था। थाईलैंड के सकल घरेलू उत्पाद का एक तिहाई यौन उद्योग से आता है। वेश्यावृत्ति के धंधे की पंजीकृत संस्था, 'डेली प्लेनेट' पोर्न के साथ ही कोकिन और चरस के व्यसाय से भी है। इसलिए ये सोचना कि पोर्न बेबसाइट्‌स का मसला, केवल 'वर्चुअल-सेक्स' तक ही सीमित रह जाना है, निरा मूर्ख और बोदा विचार है। उसके अंतर-संबंध, देह-व्यापार, अपराध और मादक-द्रव्यों से भी अनिवार्यतः जुड़ता ही है।
 
हमारी सिविल-सोसाइटी, जो पोर्न वेब साइट्‌स के प्रतिबंध का विरोध कर रही है, उसका एक निहायत ही खोखला तर्क यह भी है कि प्रतिबंध लगाना व्यर्थ है, क्योंकि इसके कोई सार्थक परिणाम नहीं निकलने वाले हैं, कारण यह है कि इस में बहुत सारे छिद्र हैं और लोग इसका तकनीकी तोड़ निकाल ही लेंगे। प्रॉक्सी सर्वर हैं, जो उनको, उन तमाम पोर्न-वेब साइट्‌स तक पहुँचा ही देंगे। लेकिन, क्या इस बिना पर, प्रतिबंध के विचार को स्थगित किया जा सकता है? सब जानते हैं कि यातायात के नियमों को लोग तोड़ते ही रहते हैं, तो क्या मात्र इस आधार पर यातायात व्यवस्था क़ायम ही नहीं की जाए?
 
दूसरा प्रश्न, जो कि 'व्यक्तिगत-स्वतन्त्रता' का है, जो मूलतः केवल 'उपभोग की स्वतंत्रता' का है। उसको देखकर, आनंद के उपभोग करने का है। कुल मिलाकर, पोर्न पर प्रतिबंध, असल में धंधे पर प्रतिबंध है। डिजिटल सेक्स के व्यापार पर प्रतिबंध है। बहरहाल, यह मसला 'लिबर्टी ऑव एक्सप्रेशन' का और ना ही 'व्यक्तिगत-स्वतंत्रता के हनन'' का है, बल्कि यह लिबर्टी ऑव ट्रेड का है। और यह राज्य का अधिकार है कि वह व्यापक-जनहित में, ऐसे व्यवसाय पर प्रतिबंध लगाए। ये एक घातक आनंद बाजार है।
 
जहाँ तक, 'व्यक्तिगत-स्वतंत्रता' का सवाल है, तो उसकी थ्योरिटिकल संभावनाएँ अराजकता की सीमाओं तक पहुँचती हैं। मुझे हिन्दी के एक बड़े कहानीकार का एक कथन याद हो आया, जिसमें वे, श्वान हो जाना चाहते थे। ताकि बंद कमरों तक सीमित कर दिए जाने वाले कृत्य को, वे चौराहे पर सम्पन्न कर सकें। कहने की जरूरत नहीं कि पोर्न वेब-साइट्‌स, अंतरराष्ट्रीय चौराहा है। उस चौराहे पर होने वाले कृत्य के लिए भारत की सिविल-सोसाइटी, अपनी 'निजता' बताते हुए, उसकी रक्षा करना चाहती है। 
 
हालाँकि, इस प्रतिबंध के साथ एक अमूर्त भय भी नाथ कर रखा जा रहा है कि इस तरह सत्ता तानाशाह हो रही है। लेकिन, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'मीडिया' ने जनतंत्र को निश्चय बरदाश्त बाहर बना दिया है, लेकिन, उसने तानाशाही को असंभव कर दिया है। इसलिए, तानाशाही की आशंका निरर्थक है।
 
अंत में कहना न होगा कि पोर्न वेबसाइट्‌स पर लगाया जाने वाला प्रतिबंध, विकृत सेक्स बेचने वाली दूकानों पर है। परन्तु, जिस तरह सरकार ने प्रतिबंध के विचार से पिंड छुड़ाया है, इससे यह सचाई सामने आती है कि पापुलिज्म के सहारे सिंहासनारूढ़ सत्ता, पापुलर से ही डरती है। बहरहाल, यह सेक्स के साहूकारों के विजघोष की सूचना है।

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