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बढ़ता गरमी का ताप और संकट से उबरने के रास्ते

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कुमार सिद्धार्थ
देश के अनेक इलाकों में तापमान 48 डिग्री सेल्सियस पार करने की खबरें आ रही हैं। दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में 'पारे का प्रताप' दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। बढ़ते तापमान के 'प्रचंड' को लेकर चिंताएं होना स्वाभाविक-सी बात है। कयास लगाए जा रहे है कि इस वर्ष गर्मी पिछले सालों की तुलना में कहीं अधिक होने की संभावना है। यूं तो गर्मी का ट्रेलर मार्च के पहले-दूसरे सप्ताह में ही देखने को मिल गया था।
 
गौरतलब है कि बढ़ती गर्मी के खतरों की ओर वैज्ञानिक आगाह करते आ रहे हैं। अमेरिका स्थित नासा का ताजा अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि वर्ष 2017 का यह तीसरा जनवरी माह है, जो सबसे गरम रहा। दूसरा सबसे गरम जनवरी माह वर्ष 2016 का था और पहली बार वर्ष 2007 का जनवरी माह। 
 
इन मौसमी रिकॉर्ड के मुताबिक पहले वर्ष 2015 सबसे गर्म साबित हुआ, फिर वर्ष 2016। अगर मौसम में ऐसे ही बदलाव जारी रहे तो शायद वर्ष 2017 अब तक का सबसे गर्म साल साबित हो जाए और पारा 50 डिग्री सेल्सियस को छू लें। क्या समाज को अब 50 डिग्री सेल्सियस तापमान के अनुरूप अपनी जीवनशैली विकसित करनी पड़ेगी? बढ़ते तापमान के पैटर्न को देखने से समझ में आ रहा है कि साल-दर-साल गरमी का 'संताप' बढ़ने वाला है।
 
पीयू रिसर्च सेंटर (वॉशिंगटन स्थित यह रिसर्च सेंटर उन राजनीतिक, सामाजिक और भौगोलिक मुद्दों पर शोध तथा सर्वेक्षण करता है, जिनका अमेरिका या दुनिया से संबंध होता है और जो भविष्य में उपयोगी साबित हो सकते हैं) ने हाल ही में अपने सर्वेक्षण के निष्कर्षों को रखते हुए बताया कि धरती के बढ़ते तापमान को लेकर 67 प्रतिशत भारतीय चिंतित हैं। चीन में यह महज 30 प्रतिशत है। प्रदूषण में अहम योगदान देने वाले 3 प्रमुख देशों अमेरिका, रूस और चीन में लोग अपेक्षाकृत कम चिंतित हैं। रूस और अमेरिका में यह प्रतिशत केवल 44 फीसदी है।
 
निश्चित ही बढ़ता तापमान भारतीय समाज के लिए चिंताजनक है। दुर्भाग्य है कि एक तरफ गर्माती धरती के नाम पर गाल बजाए जा रहे हैं, तो दूसरी तरफ उसे बढ़ाने के सारे उपक्रम भी किए जा रहे हैं। भोगवादी प्रवृत्ति और चमक-दमक वाले विकास के पीछे भागते हुए इंसान ने विकास के नाम पर फ्लाईओवर, कांक्रीट के जंगल, बांध, जंगलों का सफाया करने जैसे कारनामे किए। इनके दुष्परिणामों की वजह से ऐसे गंभीर हालात में पहुंच गए हैं। 
 
भूमि, जल, हवा, ध्वनि जैसे प्रदूषणों को फैलाकर तापमान बढ़ाने में हम सब भागीदारी निभा रहे हैं। नतीजन साल-दर-साल देश के लोग बढ़ते गरम ताप से झुलसने को मजबूर हो रहे हैं। इसका ज्यादा खामियाजा देश की 80 प्रतिशत जनता भोगने को अभिशप्त है।
 
दुनिया स्तर पर होने वाली राजनीतिक उठापटक को देखें तो पाएंगे कि दुनिया की 15 फीसदी जनसंख्या वाले देश दुनिया के 40 फीसदी प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते हैं। अमेरिका में आज प्रति हजार 765 वाहन हैं, उसकी तुलना में भारत में यह 12 और बांग्लादेश में केवल 2 वाहन हैं। इसी तरह अमेरिका में प्रति व्यक्ति रोजाना बिजली की खपत 1,460 वॉट है, जबकि भारत में यह 51 और बांग्लादेश में केवल 15 वॉट है।
 
विकसित देशों के तथाकथित विकास का प्रभाव जलवायु परिवर्तन के रूप में अब रोजमर्रा के काम के दौरान महसूस किया जाने लगा है। भोगवादी प्रवृत्ति के चलते और बढ़ते भौतिक संसाधनों से घिरी दुनिया का एक वर्ग नित नए संकटों को आमंत्रित करने में हिचक नहीं रहा है।
 
प्रकृति का भोग
विकसित दुनिया के लोग विलासितापूर्ण जीवन जीने की लालसा में प्राकृतिक संतुलन को नष्ट कर रहे हैं और खामियाजा जल, जंगल, जमीन, नदी, तालाब की रक्षा करने वाला समाज भोग रहा है। क्या इसके लिए असाक्षर, गरीब, पिछड़े लोगों को जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए?
 
इन पर्यावरणीय संकटों से निपटने का कारगर नुस्खा महात्मा गांधी की लिखी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' में ढूंढा जा सकता है। उनका सोचना था कि औद्योगिकीकरण संपूर्ण मानव जाति के लिए अभिशाप है। इसे अपनाने से प्रदूषण की समस्या उत्पन्न होगी। आधुनिक विकास के कारण होने वाली पर्यावरणीय हानि की कई बार क्षतिपूर्ति संभव नहीं होगी। 
 
दूरदृष्टा महात्मा गांधी ने हिन्द स्वराज में औद्योगिक सभ्यता के जिन संकटों को लेकर दुनिया को आगाह किया था, उन पर यदि अमल हुआ होता, तो जलवायु परिवर्तन की नौबत नहीं आती। गांधीजी का मानना था कि पृथ्वी, वायु, जल तथा भूमि हमारे पूर्वजों से मिली संपत्ति नहीं है। वे हमारे बच्चों तथा आगामी पीढ़ियों की धरोहरें हैं। हम तो उसके 'ट्रस्टी' है। उनका मानना था कि विकास के त्रुटिपूर्ण ढांचे को अपनाने से असंतुलित विकास पनपता है। यदि असंतुलित विकास को अपनाया गया तो धरती के समूचे प्राकृतिक संसाधन नष्ट हो जाएंगे।
 
तथाकथित विकास की धमाचौकड़ी के चलते आज भी गांधी विचार की अहमियत है। क्या हम अब भी पर्यावरण की समृद्धि के लिए गांधीजी का बताया रास्ता चुनेंगे, जो आने वाले सालों में गर्माती धरती के ताप को ठंडा करने में मददगार हो सके। (सप्रेस) 

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