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सेक्युलर शब्द भारत में धर्म की अवधारणा से मेल नहीं खाता

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राम यादव

What is Secularism: क्या दुनिया का कोई देश वैसा धर्मनिरपेक्ष है, जैसी भारत से अपेक्षा की जाती है? आलेख की पहली कड़ी में हमने पढ़ा कि 26 जनवरी 1950 को लागू हुए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह नहीं लिखा था कि भारत ‘सेक्युलर’ (धर्म या पंथनिरपेक्ष) देश है। अंग्रेज़ी के ‘सेक्युलर’ और उसके हिंदी अनुवाद के लिए धर्मनिरपेक्ष के बदले ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में 18 दिसंबर, 1976 के दिन तब जोड़ा गया था, जब देश में आपातकाल लागू था। हमने पाया कि ‘सेक्युलर’ या ‘सेक्युलरिज़्म’ चार सदी पुरानी एक यूरोपीय अवधारणा है, जिसका भारत में ‘धर्म’ की अवधारणा से मेल नहीं बैठता। सेक्युलरिज़्म क्या है, यह पहली बार 1789 की फ्रांसिसी क्रांति के रूप में दिखा...   
धर्म का अर्थ : भारत में सनातनियों (हिंदुओं) का धर्म, कर्म और कर्म के फल से जुड़ा एक अलौकिक नियम या सिद्धांत है। सांसारिक जीवन में इसका अर्थ निष्कामभाव से कर्तव्यपालन, सदाचारी आचरण, जीवदया और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता है। सनातन उसे कहते हैं जो शाश्वत है। निरंतर, अनवरत, अविनाशी है।

सनातनी किसी मूर्ति की ही नहीं, पशु-पक्षियों, नदियों-पहाडों, पेड़-पौधों, यहां तक की वाहनों और मशीनों की भी पूजा करता है। उसके लिए 'कण-कण में भगवान है।' पतिधर्म, पत्नीधर्म, बालधर्म, मानवधर्म, पशुओं की सहजवृत्ति के लिए पशुधर्म या शासकों के लिए ‘राजधर्म’ जैसे शब्द केवल सनातनी शब्दावली में ही मिलते हैं। कोई व्यक्ति अपने संस्कारों से ही सनातनी (हिंदू) बनता है, न कि किसी धर्मांतरण से। सनातनी, जन्म और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पाने के लिए मोक्ष की कामना करते हैं। ईसाई, यहूदी और इस्लामपंथी कयामत के बाद स्वर्ग में रहने के सुख-चैन का सपना देखते हैं। 
 
अंग्रेज़ी में ‘धर्म’ का निकटतम ‘अर्थ मॉरल ड्यूटी’ (नैतिक कर्तव्य) हो सकता है, न कि ‘रिलिजन’। इसीलिए, इंदिरा गांधी के कहने पर 1976 में संविधान की प्रस्तावना में हुए संशोधन के समय भी, संविधान के अंग्रेज़ी संस्करण में तो ‘सेक्युलर’ शब्द का प्रयोग किया गया –– क्योंकि धर्म के लिए अंग्रेज़ी में कोई सही शब्द नहीं है –– पर हिंदी संस्करण में ‘पंथनिरपेक्षता’ शब्द लिखा गया।

भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश कहने का अर्थ होता उसे एक ऐसा देश घोषित करना, जहां जनता जनार्दन और सरकारों को अपने नैतिक कर्तव्यों के पालन के प्रति उदासीन रहना है, उनकी अनदेखी करना है! बिना कर्तव्यपालन के देश और समाज भला चलता कैसे? इसीलिए भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं, ‘पंथनिरपेक्ष’ देश है। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई हैः अर्थ है ‘धारण करना।’ महाभारत में कहा गया है कि जो कार्य समाज को धारण करे, वही धर्म है। 
पंथ और संप्रदाय : अंग्रेज़ी में जिसे ‘रिलिजन’ या उर्दू में ‘मज़हब’ कहते हैं, सनातनी (हिंदू) अवधारणा के अनुसार वह ईश्वर की आराधना का केवल ‘पंथ’ (पथ, मार्ग) हो सकता है। पंथ तो सनातन धर्म के भीतर भी अनेक हैं। प्रत्येक पंथ किसी पौराणिक देवता अथवा सिद्ध योगी को अपना आदि प्रवर्तक मानता है। यहां तक कि ईश्वर की सत्ता से इनकार करके भी, यानी किसी पंथ के बिना भी, कोई व्यक्ति हिंदू या सनातनी बना रह सकता है। इसी प्रकार धर्म और संप्रदाय में भी अंतर है। एक ही धर्म की अलग-अलग परम्परा या विचारधारा मानने वाले वर्गों को संप्रदाय कहते हैं। कैथलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाई संप्रदाय हैं। शिया और सुन्नी इस्लामी संप्रदाय हैं। शैव, वैष्णव, शाक्त और स्मार्त हिंदू संप्रदाय हैं।   
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‘रिलिजन’ या मज़हब का अर्थ : ‘रिलिजन’ या मज़हब (पंथ) वह आस्था-पद्धति है, जिसका कोई न कोई प्रवर्तक (संस्थापक) रहा है। उसे पैगंबर (ईश्वर का दूत) न कि कोई अवतार माना जाता है। ईसा मसीह ईसाइयत के और पैगंबर मोहम्मद इस्लाम के प्रवर्तक थे। हर प्रवर्तक के कथनों की कोई एक ‘पवित्र पुस्तक’ होती है, जिसे सभी लोग ‘ईश्वरीय शब्द’ की तरह आँख मूँद कर, बिना किसी वाद-विवाद के, स्वीकार करते और पूजते हैं। ईसाइयत में बाइबल और इस्लाम में कुरान ऐसी ही दो पुस्तकें हैं। हर ‘रिलिजन’ का –– इस्लाम में मक्का और ईसाइयत में बेथलेहम जैसा –– अपना कोई एक सबसे पवित्र तीर्थस्थान होता है। चर्च में प्रार्थना या मस्जिद में नमाज़ अदायगी जैसी अपनी एक विशिष्ट पूजा पद्धति होती है। 
 
सनातन यानी हिंदू धर्म ही, विश्व का एकमात्र इतना बड़ा और पुराना धर्म है, जिसका कोई एक ही जऩ्मदाता या प्रवर्तक नहीं है। एक ही भगवान, पूजनीय पुस्तक या पूजा-पद्धति नहीं है। पूजा-पाठ अनिवार्य नहीं है। अपनी इच्छानुसार आस्तिक या नास्तिक होने, किसी एक या अनेक देवी-देवताओं को पूजने या न पूजने की या कोई नया देवी-देवता बना लेने की छूट है। जिसका आरंभ और विकास अनेक ऋषियों-मुनियों, तपस्वियों एवं महात्माओं के चिंतन-मनन के सामूहिक मंथन से हुआ है, और आज भी हो रहा है। जिसमें वाद-विवाद और टीका-टिप्पणी करने की छूट है। जो सिंधु नदी की तरह बहती अविरल जलधारा है, न कि किसी झील-तालाब का ठहरा हुआ पानी। इसी कारण हिंदुओं में बहुविवाह, बालविवाह, सती प्रथा, छूत-अछूत या पशु-बलि जैसी समय के साथ आ गई कुरीतियों से लड़ना भी संभव हुआ। जाति प्रथा के अंत का भी सतत प्रयास चल ही रहा है।   
1918 तक रहे शिर्ड़ी के सांई बाबा की हिंदू घरों-मंदिरों में पूजा-अर्चना इस धर्म के समय के साथ चलने का अनोखा प्रमाण है। सांई बाबा के सही नाम, जन्मस्थान व हिंदू होने-न होने के विवाद से भक्तों की श्रद्धा को कोई आंच नहीं पहुंचती। किसी शंकराचार्य द्वारा मंदिरों से उनकी मूर्ति या तस्वीर हटाने की गुहार का कोई असर नहीं होता। सनातनी हिंदू दरगाहों और चर्चों में भी जाता है।
 
जब संविधान बन रहा था : 1946 और 1949 के दौरान भारत की संविधान सभा जब संविधान बना रही थी, तब सबका एक ही लक्ष्य था–– भारत को एक आधुनिक लोकतंत्र बनाना। इस लोकतंत्र की  परिकल्पना पश्चिमी मानदंडों पर टिकी हुई थी। उसे ‘सेक्युलर’ भी होना था, हालांकि सनातन धर्म स्वयं ही इतना निराग्रही है कि भारत के संदर्भ में ‘सेक्युलर’ होने का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। 17 अक्टूबर, 1949 को संविधान की प्रस्तावना पर पूरे दिन बहस हुई थी। सभा के सदस्य एचवी कामत, शिबनलाल सक्सेना और पंडित गोविंद मालवीय ने प्रस्ताव रखा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना ईश्वर का नाम लेकर शुरू की जाए। भारत की जनता का ईश्वर में अटूट विश्वास है। यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाया।
 
कहा गया कि ‘ईश्वर’ शब्द किसी आधुनिक, ‘सेक्युलर’ लोकतांत्रिक संविधान का हिस्सा नहीं हो सकता। वह सांप्रदायिक और पुरातन है। इसी दिन सभा के सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद ने संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर और सोशलिस्ट’ शब्द जो़ड़ने का सुझाव दिया। उसे भी ठुकरा दिया गया। ‘सेक्युलर’ शब्द को लेकर दो मत थे। पहला यह कि संविधान का ईश्वर से कुछ भी लेना-देना नहीं हो सकता। भारतीय राष्ट्र में राष्ट्रवाद से बड़ा कोई ‘रिलिजन’ नहीं हो सकता। भारतवासी होना एक ऐसी पहचान है, जो किसी पंथ अथवा सांप्रदायिक पहचान से बड़ी होनी चाहिए। 
 
राष्ट्रवाद रिलिजन से बड़ा होता है : संविधान सभा की 13 दिसंबर 1946 की बैठक में भारत के दूसरे राष्ट्रपति रहे, दर्शनशास्त्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा कि राष्ट्रवाद किसी भी रिलिजन (पंथ) से बड़ा होता है। अतः राष्ट्रवाद को पुष्ट करने के लिए राज्यसत्ता (सरकार) को रिलिजन से अलग और ऊपर रखना होगा। उन्हीं दिनों गोविंद वल्लभ पंत ने भी कहा था कि ‘राज्य सभी भगवानों से ऊपर होता है। वह भगवानों का भगवान है।’ सभा के सदस्य सजामुल हुसैन ने तो यहां तक कहा कि रिलिजन की शिक्षा देने का अधिकार ‘केवल घर के भीतर और केवल माता-पिता को होना चाहिए।’ किसी भी व्यक्ति को अपना रिलिजन दर्शाने वाले कपड़े, चिन्ह या प्रतीक पहनने-ओढ़ने की छूट नहीं होनी चाहिए। उनकी बात मानी नहीं गई। 
 
संविधान सभा में दूसरे मत वाली विचारधारा यह थी कि सरकार देश के सभी पंथों का आदर करने वाली हो, पर सबसे दूरी बना कर उनके प्रति समभाव रखे। दोनों विचारधाराएं संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द लिखने की पक्षधर नहीं थीं। इसी कारण संविधान की मूल प्रस्तावना में यह शब्द नहीं था।
 
इसके तीन और कारण भी बताये जाते हैं : पहला, यदि भारत ‘सेक्युलर’ होता, तो सबको अपने ढंग से पूजा-पाठ की स्वतंत्रता तो होती, पर अपने ‘रिलिजन’ के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता नहीं होती। दूसरा, ‘सेक्युलर’ देश में किसी व्यक्ति को इस आधार पर आरक्षण इत्यादि का लाभ नहीं दिया जा सकता कि वह दलित हिंदू है या किसी अल्पसंख्यक संप्रदाय से आता है। यानी, अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सामाजिक उत्थान के लिए उन्हें कोई आरक्षण देना संभव नहीं होता। 
 
तीसरा, ‘रिलिजिन’ पर आधारित ‘निजी नागरिक संहिता’ (पर्सनल लॉ) के लिए भी तब कोई जगह नहीं होती। सबके लिए एक समान नागरिक संहिता (यूनीफॉर्म सिविल कोड) का होना अनिवार्य हो जाता। इस सबको जानते हुए भी इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में एक ओर तो ‘सेक्युलर’ शब्द को जोड़ा गया, दूसरी ओर उसकी साफ अवेहलना करते हुए जातिगत आरक्षण एवं पंथगत तुष्टीकरण की नीतियां भी धड़ल्ले से चलती रहीं।
 
अम्बेडकर समान नागरिक संहिता चाहते थे : बीआर अम्बेडकर भारत में सबके लिए समान नागरिक संहिता चाहते थे। पर संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल और महमूद अली बेग ने इसका विरोध किया। उन्होंने और कुछ अन्य सदस्यों ने ‘रिलिजन’ के आधार पर आरक्षण तथा अलग ‘इलेक्टोरेट’ की भी मांग की। इसका अर्थ होता कि चुनाव में किसी अल्पसंख्यक ‘रिलिजन’ (पंथ) के उम्मीदवार को केवल उसका अपना अल्पसंख्यक समाज ही वोट देता और उसे चुनता।
 
संविधान सभा के सदस्य और भारत के प्रथम शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद भी ऐसे आरक्षण के विरुद्ध थे। इसलिए ‘रिलिजन’ पर आधारित आरक्षण की मांग कमज़ोर पड़ गई। 25 मई 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कहकर इस चर्चा का अंत कर दिया किया कि भारत में कोई अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक है, इसे भूल जाएं। भारत पंथ (रिलिजन) निरपेक्ष तो हो सकता है, पर धर्मनिरपेक्ष नहीं।
 
भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भी जब कभी हिंदू धर्म के बारे में कुछ कहना पड़ा है, तब न्यायाधीशों को ‘हिंदुत्व’ या ‘हिंदू धर्म’ को परिभाषित करने में पसीना छूटने लगा। 1966 के ऐसे ही एक फ़ैसले में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश गजेंद्र गड़कर ने ‘हिंदू धर्म’ या ‘हिंदुत्व’ की अनेक स्वतंत्रताओं को गिनाते हुए लिखाः ‘बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं –– इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।'
 
हिंदू, हिंदुत्व, हिंदुइज़्म : 1996 में विधानसभा चुनावों में हिंदुत्व’ के नाम पर वोट मांगने के एक केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, 'हिंदू, हिंदुत्व, हिंदुइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मज़हबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता।’ यह दर्शाता है कि हिंदुत्व शब्द भी भारत के लोगों की जीवन पद्धति का ही सूचक है, न कि ऐसी किसी कट्टरपंथी मज़हबी संकीर्णता या राजनीतिक विस्तारवाद का, जिसका बार-बार दोषारोपण करना कतिपय विरोधी पक्षों का गोरखधंधा बन गया है।  
 
'हिंदुत्व' शब्द को हिंदुओं की कट्टरपंथी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का रंग देकर अपने आपको धर्मनिरपेक्षी भलामानुस दिखाने का वामपंथी प्रपंच भी इसमें शामिल है। इन लोगों ने अपनी सुविधा के लिए, स्वयं को ‘धर्मनिरपेक्ष’ या ‘पंथनिरपेक्ष’ सिद्ध करने की सारी ज़िम्मेदारी सदा के लिए केवल बहुसंख्यक सनातनी (हिंदू) समाज पर डाल रखी है। मानो, देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समाज, मज़हबी अल्पसंख्यक होने के नाते, स्वयंसिद्ध स्वमयेव परमपावन सेक्युलर भी है। उसे अपनी निरपेक्षता सिद्ध करने की कोई चिंता नहीं करनी है। न ही उसके अलवा देश में कोई दूसरे अल्पसंख्यक समाज हैं कि उनकी बात भी सुनी जाए! 
 
‘सेक्युलरिज़्म’ का शोर : भारत में ‘सेक्युलरिज़्म’ का शोर सबसे अधिक वही लोग मचाते हैं, जो इस शब्द की उत्पत्ति और व्याख्या को जाने बिना उसे ‘धर्मनिरपेक्षता’ का पर्यायवाची माने बैठे हैं। केवल बहुसंख्यक हिंदू समाज से वे अपने धर्म, यानी सनातनी कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाने की अपेक्षा करते हैं। यह जानना-समझना ही नहीं चाहते कि सनातनी व्याख्या के अनुसार, धर्म सबसे पहले समाज-धारक मानवोचित कर्तव्यों का निष्काम-भाव से निर्वहन है, जबकि घरों या मंदिरों में पूजा-पाठ नीजी आस्था की अभिव्यक्ति है, न कि कोई अनिवार्यता। 
 
‘सेक्युलरिज़्म’ के ये भारतीय पैरोकार जान-बूझकर भूल जाते हैं कि यह अंग्रेज़ी शब्द यूरोप से जब आयातित किया गया था, तब यूरोपीय देशों में केवल ईसाइयों के कैथलिक, प्रोटेस्टैंट या ऑर्थोडॉक्स (पुरातनपंथी) समाज ही हुआ करते थे। यहूदी यदि कहीं थे, तो इतने कम और घृणित कि उन्हें गिना ही नहीं जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले यूरोप में अन्य किसी दूसरे पंथ या संप्रदाय के लोग इक्के-दुक्के ही नज़र आते थे। अपने-अपनों के बीच रहकर सहिष्णुता और ‘सेक्युलरिज़्म’ की जुगाली करना ईसाइयों के लिए तब बहुत आसान होता था।   
 
अफ़लातूनी मज़हबी मांगें : किंतु अब, जब यूरोपीय देशों के मानवतावादी लोकतांत्रिक संविधानों का लाभ उठाकर बड़ी संख्या में विधर्मी भी वहां बस गए हैं, शरणार्थियों के रूप में नए विधर्मी लगातार आ रहे हैं, तब उनकी अफ़लातूनी मज़हबी मांगों और दंगों-फ़सदों से यूरोप वालों को भी छठी का दूध याद आ रहा है। लगभग सभी यूरोपीय देशों में घोर दक्षिणपंथी पार्टियों का अपूर्व पुनरुत्थान ग़ैर-ईसाइयों की इसी अपू्र्व बाढ़ के विरुद्ध प्रतिक्रिया है। मूल निवासी अपनी सरकारों को कोस रहे हैं। अपनी सभ्यता, अस्मिता, सुरक्षा और संस्कृति के भविष्य को लेकर बेचैन हैं। भारतीय वामपंथियों की तरह ही यूरोपीय वामपंथी भी ऐसी कड़वी वास्तविकताओं से मुंह मोड़ लेते हैं। 
 
अगली कड़ी में पढ़ें : दुनिया में कौन देश कितना सेक्युलर है? 

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