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ब्रिटेन के निर्णय में दिल दिमाग का अंतर्द्वंद्व

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शरद सिंगी

, शनिवार, 2 जुलाई 2016 (20:49 IST)
पिछले सप्ताह दुनिया के आर्थिक तथा राजनीतिक संतुलन को एक ज़ोरदार झटका लगा जब ब्रिटेन की जनता ने अपने आपको यूरोपीय संघ से स्वतंत्र करने का फैसला लिया। आधुनिक संसार में राष्ट्रों के बीच अर्थिक बंधन इतने गुंथ चुके हैं कि जब कहीं किसी एक राष्ट्र में कोई हलचल होती है तो उसका प्रभाव पूरी दुनिया में महसूस किया जा सकता है। आर्थिक झटके सागर में उठे उस जलजले के समान है जो दुनिया के अंतिम किनारे पर जाकर ही ठहरता है। 
 

वित्तीय संस्थाएं, उद्योग तथा सरकारें अपनी अपनी सूझबूझ से इस संकट से अपने आपको पृथक एवम् सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहे हैं। विशेषज्ञों ने अपनी अपनी राय का पिटारा खोल रखा है। ब्रिटेन के इस तरह यूरोप से संबंध विच्छेद करने के निर्णय पर कोई यूरोप की आर्थिक तबाही के संकेत दे रहा है तो कोई बेहतर अर्थव्यवस्था की भविष्यवाणी कर रहा है। 
 
सबके पास अपने अपने तर्क है, किंतु जैसा पहले लिखा कि राष्ट्रों के आपसी आर्थिक संबंध इतने जटिल हो चुके हैं कि इस निर्णय के प्रभावों का आकलन सीधे-सीधे किसी फॉर्मूले से नहीं किया जा सकता। ब्रिटेन की जनता के निर्णय से दुनिया के विशेषज्ञ अचंभे में तो हैं ही, जनता का निर्णय सही है या गलत यह तो भविष्य ही तय करेगा। इस जटिल प्रश्न पर जब विश्व के जाने-माने विश्लेषक भी किसी नतीजे पर नही पहुंच पा रहे हैं तो जाहिर है कि ब्रिटेन की जनता ने भी कोई गुणा-भाग करके अपना मत नही दिया होगा। 
 
जब मुद्दे के एक सिरे पर दिल हो औऱ दूसरे सिरे पर दिमाग तो समस्या जटिल हो ही जाती है। परिणाम से तो लगता है निर्णय लेने में दिल का पलड़ा भारी रहा। एक बार जब दिल निर्णय देता है तो दिमाग उस निर्णय का न केवल समर्थन करता है अपितु किसी भी होने वाली लाभ-हानि या जोखिम के लिए मनुष्य को तैयार भी कर देता है।
 
इस निर्णय से दुनिया को एक सबक तो मिला। जब सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद पर प्रहार होंगे तो ऐसे अप्रत्याशित परिणाम निकलेंगे। जब सामाजिक हित की बात आती है तो अन्य सारे मुद्दे गौण हो जाते हैं। आव्रजन उतना ही उचित है जितना कि सभ्यताएं उन्हें अत्मसात कर लें। सभ्यताओं का टकराव न तो राष्ट्र हित में है और न ही विश्व के हित मे। इतिहास साक्षी है कि सभ्यताओं को अपना पुराना चोला उतारकर मुख्य धारा में शामिल होने में समय लगता है। 
 
हम कितने ही पढ़े-लिखे होने का स्वांग क्यों न करें, प्रत्येक नई सभ्यता को अत्मसात करते चलना मानव स्वभाव में नहीं है। संगम पर दो नदियां मिलन से पूर्व अपने चरित्र को बचाने के लिए जद्दोजहद तो करती हैं तथा पानी के रंग में भेद भी कुछ दूरी तक दिखाई देता है किंतु अंत में छोटी नदी को बड़ी के चरित्र को धारण करना ही पड़ता है। चलना भी उसी मार्ग पर पड़ता है जहां से बड़ी गुजरती है। यही प्रकृति का नियम है।
 
 
मतसंग्रह में ब्रिटेन की जनता ने सामाजिक हितों को अर्थिक हितों से ऊपर रखा। अपने अतीत और विकास में से अतीत को चुना। किसी सभ्यता को संपन्नता का लालच दिखाकर अपनी पहचान खोने के लिए नही कहा जा सकता। विकासवादी भी गलत नही है किंतु जिस तरह आप किसी समाज पर अपना परिवेश या संस्कृति नहीं थोप सकते उसी तरह विकास भी अपनी शर्तों पर नहीं थोप सकते।


यह मतसंग्रह प्रजातंत्र को मजबूत कर गया या प्रजातांत्रिक व्यवस्था को चुनौती दे गया यह सोचने का प्रश्न है? यदि आपको अपने अतीत और सपनों के बीच में चुनाव करना हो तो किसे चुनेगें? अतीत जिसको आपने जिया है या उन स्वपनों को जो जरूरी नही कि वे साकार हों। प्रजातंत्र में ऐसे प्रश्नों पर मत विभाजन से क्या लाभ जो समाज में विघटन पैदा करते हों? 
 
राजनेताओं को विकास और आर्थिक प्रगति के नाम पर इतने भी भावशून्य नहीं होना चाहिए कि वे सारे निर्णय दिमाग से करने लगें। जब राष्ट्र की बात आती है तो निर्णय दिल से लेने पड़ते हैं दिमाग से नही क्योंकि राष्ट्र का स्थान जनता के दिलों में होता है दिमाग में नही। ब्रिटेन के इस मतसंग्रह के परिणाम से शायद विश्व को यही सीख मिलती है। 


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