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'27 साल, यूपी बेहाल' और कांग्रेस का हाल!

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-राजीव रंजन तिवारी
 
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश (यूपी) में विधानसभा चुनाव भले ही अगले वर्ष हों, लेकिन यहां विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जिस तरह की मोर्चाबंदी की जा रही है उसे देख प्रतीत हो रहा है कि शायद कुछ हफ्तों अथवा महीनों में ही चुनाव होने वाले हैं। 
यूपी के चुनाव में हमेशा की भांति भाजपा, सपा और बसपा को उनके वोट बैंक के आधार पर गंभीर दल मानकर चला जा रहा था, लेकिन अचानक बीच में कांग्रेस की एक्टिव इंट्री ने इन गंभीर दलों के मानो होश उड़ा दिए हैं। 
 
खास बात यह है कि पुराने पैटर्न पर परंपरागत रणनीति के तहत चुनाव लड़ने की तैयारियों में जुटी भाजपा, सपा और बसपा को भी नए सिरे से तैयारी करने की विवशता बढ़ गई है। अब यहां सवाल यह उठ रहा है कि क्या कांग्रेस केवल नारों के बल पर मुख्य मुकाबले में आ सकती है? जबकि हकीकत यह है कि उसका सांगठनिक स्वरूप निचले स्तर पर लगभग न के बराबर है। पदाधिकारी के रूप में जो कुछ कार्यकर्ता बचे भी हैं, वे भी हतोत्साहित हैं और मौका मिलते ही पाला बदलने में माहिर। 
 
इसमें कोई शक नहीं कि 27 वर्ष पहले जब यूपी में कांग्रेस का शासन हुआ करता था, तब और अब में बहुत फर्क है। सूबे का विकास कमोबेश ठप है, आपराधिक वारदातें चरम पर हैं, माफियाराज में बढ़ोतरी हुई है और भ्रष्टाचार की संस्कृति तो रग-रग में दौड़ रही है।
 
शायद इन्हीं सब बातों के मद्देनजर कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने '27 साल, यूपी बेहाल' नारा दिया। बेशक, यह नारा सूबे में गूंजने लगा है और जोर भी पकड़ रहा है। लेकिन फिर वही सवाल दोहराना पड़ रहा है कि बगैर मजबूत संगठन और निष्ठावान कार्यकर्ताओं के इन नारों से क्या होने वाला है? इस स्थिति में कांग्रेस कितना बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी, इस बाबत कुछ भी कह पाना संभव नहीं है।
 
चुनाव के वक्त आमतौर पर राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों में कार्यकर्ताओं और नेताओं की जबरदस्त गहमा-गहमी रहती है, लेकिन कुछ दिनों पहले तक यूपी की राजधानी लखनऊ में कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय में न तो टिकट लेने वालों की भीड़ दिख रही थी और न ही कार्यकर्ताओं का जमावड़ा। हां, अभिनेता से नेता बने राज बब्बर के हाथ में यूपी कांग्रेस की कमान आने के बाद पार्टी दफ्तर में थोड़ी रौनक बढ़ी है। वहीं पार्टी ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को यूपी में अपना मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया है। 
 
समझा जा रहा है कि जिस तरह पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात मॉडल की चर्चा करके देश के लोगों को लुभाया था, उसी तरह शीला दीक्षित भी यूपी में अपने दिल्ली मॉडल की चर्चा कर रही हैं। कमोबेश सभी जनसभाओं में उनके द्वारा दिल्ली मॉडल की चर्चा की जा रही है। 
 
खैर, इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सुंदरता देखने लायक है। पिछले 15 वर्षों तक लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहते हुए शीला दीक्षित ने जिस प्रकार एक सिस्टम के अंतर्गत दिल्ली की खूबसूरती में चार चांद लगाए हैं, वह सबको दिख जाता है। इसके अलावा शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के पीछे कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर की वह सोच भी है जिसके तहत वे यूपी में किसी ब्राह्मण नेता को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाना चाहते थे। उस सांचे में भी शीला दीक्षित बिलकुल फिट बैठीं। 
 
शीला दीक्षित यूपी की बहू हैं। इन सबके बावजूद हर किसी की नजरें सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के करिश्मे पर टिकी हुई हैं। खासकर कांग्रेस का एक वर्ग पार्टी के नवजीवन के लिए प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में लाने का पक्षधर था। लगता है कि उन कांग्रेसियों की मुरादें भी पूरी होने वाली हैं, क्योंकि प्रियंका गांधी ने शायद यूपी में पार्टी के लिए प्रचार करने की हामी भर दी है।
 
यहां यह भी उल्लेखनीय है कि यूपी कांग्रेस में इस वक्त सारी खबरें प्रियंका गांधी के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई हैं। प्रदेश अध्यक्ष पद से निर्मल खत्री की विदाई और राज बब्बर को मिली कमान से भी कार्यकर्ताओं में एक नया जोश दिख रहा है। हालांकि उत्तरप्रदेश में कांग्रेस पार्टी को लेकर कुछ इस प्रकार के सवाल हैं जिसका स्पष्ट जवाब कहीं नहीं मिल रहा है।
 
राजनीति के जानकार यह जानना चाहते हैं कि प्रियंका गांधी अगर उत्तरप्रदेश में चुनाव प्रचार करेंगी तो कितना करेंगी? इस स्थिति में शीला दीक्षित की भूमिका क्या होगी? प्रियंका गांधी का चुनाव प्रचार आक्रामक और व्यापक होगा या फिर उनके जादू को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए बचाकर इस्तेमाल किया जाएगा? इन तमाम सवालों के जवाब में कांग्रेस के नेता सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि बहुत जल्दी इन सब मुद्दों पर फैसला होने वाला है। 
 
वैसे सूत्रों का कहना है कि कांग्रेस ये तैयारी कर रही है कि प्रियंका, राहुल और सोनिया गांधी का इस्तेमाल इस तरह से किया जाए कि उनके चुनाव प्रचार को ज्यादा से ज्यादा जीत में बदला जा सके। कांग्रेस पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के चुनाव प्रचार से सबक सीख चुकी है। पिछले चुनाव में राहुल गांधी ने तमाम रोड शो के अलावा 200 से ज्यादा जनसभाएं कीं, लेकिन कांग्रेस को अपेक्षानुरूप परिणाम नहीं मिल सका। 
 
अब इस बार प्रशांत किशोर की टीम के साथ मिलकर कांग्रेस पार्टी उन मजबूत सीटों की पहचान करने में जुटी है, जहां उसे जीत की सबसे ज्यादा उम्मीद है। कांग्रेस पार्टी चुनाव तो सभी सीटों पर लड़ेगी, लेकिन ऐसी लगभग 145 सीटें हैं, जहां पार्टी सबसे ज्यादा ताकत लगाने की सोच रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने 60 सीटों पर बेहतर प्रदर्शन किया था जिसमें अधिकांश सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही थी। 
 
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब रहा था, लेकिन पार्टी की नजर उन विधानसभा सीटों पर भी है, जहां उसे लोकसभा चुनाव में भी अच्छे वोट मिले थे। इन मजबूत सीटों की पहचान करके अच्छा उम्मीदवार तलाशने का काम शुरू हो गया है। बताते हैं कि टिकट की इच्छा रखने वाले नेताओं से कहा गया है कि उन्हें टिकट तभी मिलेगा, जब वह साबित कर सकें कि उस इलाके पर उनकी अच्छी पकड़ है।
 
सूत्रों का कहना है कि यूपी विधानसभा चुनावों को लेकर प्रियंका गांधी ने कांग्रेस के चुनाव प्रभारी गुलाम नबी आजाद से मिलकर रणनीति बना ली है कि उन्हें क्या करना है। कहा जा रहा है कि राज्य विधानसभा चुनावों में प्रियंका की भूमिका को बढ़ाने के लिए आजाद ने एक ब्लूप्रिंट तैयार कर गांधी को दे दिया है। 
 
फिलहाल प्रियंका की भूमिका बढ़ाने के प्रस्ताव पर पार्टी विचार कर रही है। गुलाम नबी आजाद ने यह ब्लूप्रिंट उत्तरप्रदेश के कई हिस्सों का दौरा करके और पार्टी के सदस्यों से सलाह-मशविरा के बाद तैयार किया है। आजाद ने यूपी इलेक्शन इंचार्ज का पद संभालते ही यह कहा था कि राज्य के पार्टी कार्यकर्ता चाहते हैं कि प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली के बाहर भी चुनाव प्रचार करें। 
 
पार्टी आलाकमान अब इन सब सब पहलुओं पर विचार कर रहा है। माना जा रहा है कि यूपी विधानसभा चुनावों में प्रियंका गांधी की भूमिका को लेकर जल्द ही बड़ा ऐलान किया जा सकता है। हालांकि अभी वे आई नहीं हैं और न ही उन्होंने इसकी घोषणा की है, लेकिन सिर्फ यह खबर आते ही कि प्रियंका गांधी यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रचार की कमान संभालेंगी, जहां-तहां पड़े कांग्रेसी अपने कुर्तों को कलफ देने लगे हैं। 
 
करीब डेढ़ दशक की हिचक के बाद कांग्रेस ने आखिर तय कर लिया है कि यूपी में फिर से उभरे बिना देश की राजनीति में डंका बजाना नामुमकिन है। पार्टी अब उस मुकाम पर है, जब वह किसी और बुरे वक्त के लिए संजीवनी बूटी बचाकर नहीं रख सकती।
 
उधर, केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपनी परंपरागत रणनीतियों के तहत विभिन्न दलों में तोड़फोड़ का काम शुरू कर दिया गया है। फिलहाल, भाजपा की नजर सपा, बसपा और कांग्रेस के विधायकों पर है जिनमें से अधिकांश को वह अपने पाले में करने की रणनीति अख्तियार कर रही है। शायद यही वजह है कि आए दिन यह खबर मिल रही है सपा, बसपा और कांग्रेस का अमुक विधायक भाजपा में शामिल हुआ। 
 
खैर, न सिर्फ उत्तरप्रदेश बल्कि पूरे देश की नजरें कांग्रेस की गतिविधियों पर टिक गई हैं। हर कोई यह देखना चाह रहा है कि आखिरकार यूपी में मृतप्राय कांग्रेस पुनर्जीवित कैसे होती है?

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