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सीरिया : अमेरिका-रूस में मूंछ की लड़ाई!

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शरद सिंगी

सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका को बिना किसी युद्ध के यकायक विश्व के एकमेव सुपरपावर होने का दर्जा प्राप्त हो गया था। किंतु विशेषज्ञों को विश्वास हो चला है कि अमेरिका अपनी इस अनुकूल स्थिति का न तो स्वयं कोई लाभ ले पाया और न ही विश्व की व्यवस्था या अनुशासन में कोई प्रभाव डाल पाया।
 

पिछले दो दशक की बात करें तो अमेरिका के सारे कूटनीतिक दांव असफल रहे हैं। कुछ विशेषज्ञ तो दुनिया को तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर ला खड़ा करने के लिए अमेरिका को दोषी मान रहे हैं।

शीतयुद्ध काल में विरोधी राष्ट्र के विरुद्ध छद्म युद्ध एक बहुत ही प्रभावी हथियार माना जाता था जिसमें मात्र धन ही खर्च होता था किंतु जान की हानि नहीं होती थी। अल कायदा उसी समय की देन है, जब अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूस के विरुद्ध इसे पोषित किया। रूस के अफगानिस्तान छोड़ते ही अल कायदा अमेरिका के लिए एक बोझ बन गया और अमेरिका ने उसका परित्याग कर दिया।

इसी अल कायदा ने अमेरिका को एक दशक तक नाकोचने चबवाए और जब लगने लगा कि अमेरिका अल कायदा को नष्ट करने में सफल हो रहा है तभी उसकी शाखा इसिस के रूप में उत्पन्न हुई और देखते ही देखते उसने भयावह रूप ले लिया। अगले दशक के लिए विश्व फिर से व्यस्त हो गया है।

किंतु जान-माल के इतने नुकसान के बाद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने क्या कुछ सबक लिया? कूटनीतिज्ञों की मानें तो बिलकुल नहीं। अमेरिका, सऊदी अरब और उनके कुछ मित्र देशों ने मिलकर विभिन्न राजनीतिक कारणों से सीरिया के राष्ट्रपति असद को उखाड़ने की योजना बनाई।

इस योजना में एक बार फिर छद्म युद्ध को हथियार बनाया गया और सीरिया की सेना के विरुद्ध बागी लड़ाकों की फौज तैयार की गई। इस फौज को प्रशिक्षण और हथियार मुहैया अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने करवाए। इन्हें स्वतंत्रता सैनिकों का नाम दिया गया।

अब सीरिया की सेना के लिए दो मोर्चे खुल गए। एक तरफ इसिस का आतंक तो दूसरी ओर अमेरिका समर्थित स्वतंत्रता सैनिक। सीरिया इस लड़ाई में कमजोर हो गया और इसिस ने इस स्थिति का लाभ लेकर सीरिया की जमीन के लगभग आधे भाग पर कब्जा कर लिया।

रूस सहित सीरिया के साथी देशों को यह स्थिति अनुचित लगी। रूस, जो स्वयं भी अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा उसे कमजोर करने के प्रयासों से पीड़ित है, ने साथी देशों का एक मोर्चा बनाया जिसमें ईरान, इराक और चीन शामिल हैं।

इन देशों की सेना इसिस से लड़ने के बहाने सीरिया की सेना को सहायता देने पहुंच गई और सर्वप्रथम उन तथाकथित स्वतंत्रता सैनिकों के अड्डों को निशाना बनाया जिनके सिर पर अमेरिका का हाथ था। इस सेना के उतरने से सीरिया की सेना का पलड़ा भारी होने लगा है। अमेरिका और उसके साथी देशों को यह स्थिति रास नहीं आ रही है और न ही वे समझ पा रहे हैं कि इस स्थिति का मुकाबला कैसे करें।

अमेरिका और पश्चिमी देश यदि रूस के विरुद्ध अपनी सेना का उपयोग करते हैं तो तीसरा विश्वयुद्ध अवश्यंभावी है। अमेरिका, रूस की अधिक आलोचना नहीं कर सकता क्योंकि वह एक अधिकृत सरकार को उखाड़ने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल कर रहा था। इसिस को नष्ट करने के बहाने सीरिया सरकार को कमजोर कर रहा था।

समय की मांग तो यही है कि ये दोनों मोर्चे जितनी जल्दी आपस में सुलह कर लें, वह विश्व के हित में होगा। एक ओर अमेरिका, यूरोप, तुर्की और खाड़ी के देशों की सेनाएं हैं तो दूसरी ओर रूस, चीन, ईरान, इराक और सीरिया की सेनाएं खड़ी हैं।

भारतीय मीडिया इस समस्या की गंभीरता को नहीं समझ रहा किंतु कोई भी एक गलत निशाना विस्फोटक साबित हो सकता है। कुछ देशों को समझना होगा कि सीरिया की सरकार गिरना इतना जरूरी नहीं जितना इसिस को नष्ट करना।

यदि महाशक्तियां मिल जाएं तो यह काम कठिन भी नहीं लेकिन एक-दूसरे को कमजोर करने के प्रयासों से विश्व को हानि उठानी पड़ रही है। आपसी सामंजस्य ही विश्व को आतंकवाद से मुक्त कर सकता है और जैसा भारत का कहना है कि आतंकवाद अच्छा या बुरा नहीं होता, आतंकवाद, आतंकवाद होता है फिर चाहे वह हमारे शत्रु के विरुद्ध ही इस्तेमाल क्यों न हो रहा हो।

विश्व के राष्ट्रों को संकल्प लेना होगा कि वे किसी गैरसरकारी संगठन को धन, शस्त्र या प्रशिक्षण मुहैया नहीं करवाएंगे। यदि ऐसा नहीं करते तो पाकिस्तान को किस मुंह से रोकेंगे। राष्ट्रों पर भिन्न नियम लागू नहीं किए जा सकते और न ही उन्हें न्यायसंगत ठहराया जा सकता है।

भारत के सामने पुनः एक अवसर है इस लड़ाई को सही दिशा देने का। भारत के सबंध दोनों पक्षों से मित्रवत हैं और इसी का लाभ लेकर उसे अपनी कूटनीति तेज करनी चाहिए। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी रक्षा समिति का सदस्य बनना चाहता है और यही उपयुक्त अवसर है अपनी दावेदारी को मजबूत करने का।

दावेदारी केवल जनसंख्या के आधार पर मजबूत नहीं होती। भारत को दिखाना भी होगा कि वह विश्व की समस्याओं को हल करने में अपना योगदान दे सकता है और वक्त पड़ने पर नेतृत्व भी कर सकता है। विश्वास तो यही करें कि भारत का कूटनीतिक विभाग इस समय व्यस्त होगा।

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