वर्तमान में वैश्विक गर्मी (Global Warming) का प्रकोप बढ़ता जा रहा है तथा इससे जल संकट भी दिन-पर-दिन गहराता जा रहा है। पानी को लेकर मारपीट व खून-खराबे की खबरें अब हमें विचलित नहीं करतीं, क्योंकि हम इसके 'आदी' जो हो गए हैं अन्य भी इसी प्रकार की खबरों की तरह। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा? क्या इसका कोई हल निकालना उचित नहीं रहेगा?
वैज्ञानिक समुदाय भी पिछले कुछ समय से चेतावनी देते आ रहा है कि भविष्य में जल संकट काफी भीषण रूप धारण कर लेगा। इसको लेकर क़ानून-व्यवस्था की स्थिति भी ख़राब हो सकती है। बढ़ती आबादी के दौर में यह और भी भीषण रूप धारण कर लेगा।
पृथ्वी पर कितनी है जल की मात्रा?
कहने को तो महासागर पृथ्वी का लगभग तीन-चौथाई भाग घेरे हुए हैं लेकिन पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी में से मीठा जल केवल 2.7 प्रतिशत ही है और इसमें से भी लगभग 75.2 प्रतिशत धुव्रीय प्रदेशों में बर्फ के रूप में विद्यमान है और 22.6 प्रतिशत भूजल के रूप में। शेष जल झीलों, नदियों, वायुमंडल, नमी, मृदा और वनस्पति में मौजूद है। उपयोग करने लायक पानी की मात्रा बहुत थोड़ी ही है, जो नदियों, झीलों और भूजल के रूप में उपलब्ध है और इनमें से भी कई जलस्रोत प्रदूषित हैं।
तब 15 फुट की गहराई में ही मिल जाता था पानी और अब?
मेरे एक उत्तरप्रदेशी मित्र ने बताया था कि हमारे गांव में घर-घर में हैंडपंप लगे हैं तथा मात्र 15 फुट की गहराई में ही पानी मिल जाता है और वह भी भरपूर तथा मीठा पानी। इस बात की तो कल्पना करना भी अब सहज नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि अब भूमिगत जलस्तर काफी नीचे चला गया है। कहीं-कहीं तो 500 से 1,500 फुट की गहराई तक भी पानी नहीं मिलता है और मिलता भी है, तो अत्यंत ही अल्प मात्रा में। फिर इस पानी को निकालने में बहुमूल्य बिजली खर्च होती है, सो अलग ही। स्मरण रहे, बिजली का उत्पादन भी कोयले और पानी के मेल से ही होता है, सो वहां भी काफी पानी खर्च होता है। अत: जितनी गहराई से पानी निकालेंगे, उतनी ही बिजली व धनराशि भी खर्च होगी और साथ उतना ही पानी भी।
मालव भूमि धीर गंभीर...?
मध्यप्रदेश के इंदौर, उज्जैन, धार व देवास आदि इलाकों को मालवा क्षेत्र कहा जाता है। इन इलाकों के बारे में यह कहावत काफी प्रचलित है कि- 'मालव भूमि धीर गंभीर/ डग-डग रोटी, पग-पग नीर।' पर बदलते समय के हिसाब से यह कहावत भी अब दम तोड़ती प्रतीत हो रही है। इंदौर समेत समस्त मालव अंचल में गरमी के बढ़ने के साथ ही समस्त जलस्रोत दम तोड़ने लग जाते हैं और नर्मदा मैया की कृपा से ही अंचल का गला तर हो पाता है। नर्मदा का पानी 70 किलोमीटर दूर बड़वाह-ओंकारेश्वर से इंदौर व आसपास के अंचलों तक लाया जाता है, जो कि काफी श्रमसाध्य व खर्चीला भी है। पहले मालवा अंचल के आसपास घने जंगल थे, जो कि अब काफी मात्रा में साफ़ हो चुके हैं। इससे भी पर्यावरण गड़बड़ा रहा है।
हमने कुओं व बावड़ियों को बिसरा दिया
प्राचीन समय में जल प्राप्ति के स्रोत के रूप में कुएं व बावड़ियां ही थीं। ये दोनों काफी खुले मुंह के होने के कारण बरसात के दिनों में काफी मात्रा में जल का संग्रह भी किया करते थे अत: बारहों महीने इनसे जल की प्राप्ति होती रहती थी। वर्तमान में कुएं-बावड़ी अब दुर्लभ से दुर्लभतम होते चले जा रहे हैं। कई जगहों पर तो इनका नाम-ओ-निशान तक मिट गया है। जो बचे-खुचे हैं, वे भी दम तोड़ते चले जा रहे हैं और हमने उन्हें कूड़े-कचरे से पाट दिया है।
ऐसे सहेजें वर्षा जल को
अब बरसात का मौसम शुरू हो चुका है तथा झमाझम वृष्टि भी होगी। बरसात के इस जल को हम सबको सहेजना ही होगा, क्योंकि पृथ्वी पर मौजूद जल के अधिकतर संसाधन धीरे-धीरे रीतते जा रहे हैं। मनुष्य के अंतहीन लोभ के चलते ये संसाधन अब नाकाफी साबित हो रहे हैं। फिर इस जल संकट का क्या हल है? स्मरण रहे, जल का विकल्प जल ही है, अन्य कोई स्रोत नहीं। इसे किसी प्रयोगशाला या कारखाने में भी नहीं बनाया जा सकता है। अत: जल संकट के निदान के लिए नए-नए कुएं, तालाब व बावड़ियां बनवाने में ही भलाई है, क्योंकि ये काफी मात्रा में पानी का संग्रह ही नहीं करते हैं, बल्कि बारहों महीने जल आपूर्ति भी बरकरार रखते हैं जबकि अधिकतर बोरिंग गर्मी के दिनों में दम तोड़ जाते हैं, क्योंकि बोरिंगों में पानी पहुंचाने की व्यवस्था नाकाफी है या कि है ही नहीं।
नर्मदा नदी का सूखते चले जाना
इसी बीती गर्मी की बात है कि नर्मदा नदी में जलप्रवाह की मात्रा चिंताजनक स्तर पर कम हो गई थी। हालत यहां तक पहुंच गई कि कई स्थानों पर जल की मात्रा इतनी कम हो गई थी कि लोग नर्मदा नदी को पैदल ही पार करने लगे थे। नर्मदा नदी को 'सदानीरा' नदी भी कहा जाता है, लेकिन बदलते समय के साथ अब वो बात रही नहीं। यही हाल गंगा मैया (नदी) का भी है। यह नदी भी कुछ ही स्थानों पर पवित्र है, बाकी जगह तो यह इतनी मैली व प्रदूषित हो गई है कि वह आचमन योग्य भी नहीं रही।
आत्मसंयम से भी बचाएं जल को
कई लोगों की आदत होती है कि वे मुंह धोते व दांतों की सफाई करते वक्त वॉश बेसिन के नल को खुला ही रखते हैं। इससे काफी मात्रा में पानी बर्बाद हो जाता है। अत: समझदारी व भलाई इसी में है कि ब्रश करते वक्त नल को बंद रखा जाए तथा ब्रश करने के बाद जब हमें मुखशुद्धि करना हो, तब ही नल खोला जाए। नहाते समय भी शॉवर का इस्तेमाल करने के बजाए बाल्टी-मग्गे का इस्तेमाल उचित रहेगा। इससे कम पानी में अधिक काम हो जाएगा। बाथ टब में भी काफी पानी लगता है, अत: इसका इस्तेमाल न ही करें तो बेहतर या कम से कम ही करें।
राजस्थान व इसराइल से सीखें पानी बचाना
राजस्थान के अधिकतर इलाकों में अत्यंत ही अल्प मात्रा में वर्षा होती है या नहीं भी होती है। किंतु वहां के लोगों की जागरूकता व सक्रियता के चलते उनको कभी भी जल संकट जैसी स्थितियों का सामना करीब-करीब नहीं करना पड़ता है तथा वे साल के बारहों महीने अत्यल्प जल की उपलब्धता के बावजूद आराम से काम चला लेते हैं। मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त व प्रसिद्ध पर्यावरण कार्यकर्ता 'पानी वाले बाबा' राजेन्द्र सिंह ने इस दिशा में काफी प्रयास किए हैं जिन्हें कि सारे देश में फैलाने की जरूरत है। इस दिशा में राजेन्द्र सिंह ने काफी स्तुत्य कार्य किया है जिसे कि सारे देश में फैलाने की जरूरत है।
दूसरी ओर जहां तक इसराइल की बात की जाए तो वहां भी सालभर में केवल 4 इंच ही वर्षा होती है और ये तो वहां निवासियों की जीवटता ही है कि इतनी अत्यल्प वर्षा के बावजूद वे भारत की तुलना में कई गुना अधिक फसल उपजा लेते हैं और सालभर पानी से जुड़े विविध काम भी चला लेते हैं। इसराइल का अधिकतर भाग रेगिस्तानी इलाका है।
इसके बावजूद भारत की तुलना में कम पानी में अधिक फसल उपजा लेना व पानी से जुड़े अन्य कार्य चला लेना अचरज में डालने वाली बात ही कही जाएगी, क्योंकि भारत में इसराइल की तुलना में काफी अच्छी मात्रा में वर्षा होती है लेकिन फिर भी हम इतनी अपार/ अथाह जलराशि का संग्रह नहीं कर पाते हैं, जबकि इसराइल हमारे देश की तुलना में अल्पवर्षा वाला मुल्क होते हुए हमारी तुलना में काफी अच्छी तरह से जल संग्रह व प्रबंधन कर लेता है।
खैर, ये तो आम समझ व व्यवहार की बात है कि जो चीज व्यक्ति को मुफ्त में या बिना मेहनत के मिलती है, व्यक्ति उसकी कद्र ही नहीं करता है। जबकि उसी चीज यानी कि पानी को मोल खरीदना पड़े या दूरदराज से मेहनत-मशक्कत करके लाना पड़े तो ही वो उसकी कीमत समझता है व सोच-समझकर इस्तेमाल करता है। यह तो विडंबनापूर्ण बात ही कही जाएगी।
लेकिन हम अगर जरा भी जल का सोच-समझकर इस्तेमाल करें तो हमें इसके संकट का कभी सामना ही नहीं करना पड़ेगा।
सघन पौधारोपण करें
जहां-जहां भी घने जंगल व पेड़-पौधे होते हैं, तो वहां-वहां यह देखा गया है कि वर्षा भी काफी अधिक होती है। इसका भी एक वैज्ञानिक कारण है। वो यह कि ये घने जंगल बादलों को आकर्षित करते हैं व वे काफी मात्रा में अपनी आकर्षण शक्ति के जरिए भारी वर्षा करवा लेते हैं। भारत के असम का चेरापूंजी नामक स्थान इसका जीवंत उदाहरण है। वहां 100 इंच के क़रीब वर्षा होती है, जबकि देश के अन्य राज्यों में (राजस्थान को छोड़कर) क़रीब-क़रीब 36 से 40 इंच तक ही वर्षा होती है।
पेड़-पौधे वर्षा जल को अपनी जड़ों में संग्रहीत करके भी रखते हैं। वे इस जल संग्रह द्वारा मिट्टी के कटाव को भी रोकते हैं व धरती के तापमान को भी नियंत्रित करते हैं। हम सभी ने यह भी देखा है कि भीषण से भीषण गर्मी के दिनों में भी ये पेड़-पौधे हरे-भरे बने रहते हैं, जबकि वर्षा के मौसम को बीते कोई 7-8 महीने होने को आते हैं। यह हम सबने प्रकृति में नीम, पीपल और गुलमोहर के पेड़ को गर्मियों के दिनों में भी हरे-भरे रूप में देखा है।
वर्तमान में केरल में प्रलयंकारी बाढ़ आई हुई है। केरल में प्राकृतिक हरीतिमा व सुषमा काफी मात्रा में है। लेकिन केरल में आई भयानक बाढ़ को तो प्राकृतिक विपदा ही कहा जाएगा और ये काफी हद तक मानव निर्मित आपदा भी है।
पानी से जुड़ीं अनेक बातें हैं जिनका आम जनजीवन से काफी गहरा रिश्ता है तथा इनका पालन व अनुपालन हम सभी को करना ही चाहिए। यह तो चिकित्सा विज्ञान भी कई बार साबित कर चुका है कि बिना भोजन के व्यक्ति 7 दिन तक जीवित रह सकता है, लेकिन बिना पानी के तो वो 1 दिन भी जीवित नहीं रह सकता है, क्योंकि यहां तो वो ही प्रचलित कहावत 'जल ही जीवन है' लागू होती है।
अगर हम आज नहीं जागे व चेते तो हमारी भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी, क्योंकि हम विरासत में उनके लिए 'खाली गगरी' जो छोड़कर चले जाएंगे तथा वह पीढ़ी हमें कोसते ही रह जाएगी! जल व पेड़-पौधों के बारे में भी यही बात लागू होती है कि हम इनका अधिक से अधिक संरक्षण व अधिक से अधिक इनकी हिफ़ाज़त करें तभी उपरोक्त शीर्षकीय उक्ति सार्थक होगी कि-
'जल है तो ही कल है, नहीं तो नहीं!'