वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य के जन्म के करोड़ों वर्ष पहले इस ब्रह्मांड में सिर्फ सूर्यनारायण थे। सूर्य का एक टुकड़ा पृथ्वी बना जो धधकता आग का गोला था। लाखों वर्षों में पृथ्वी ठंडी हुई। आज से लगभग 5700 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर पानी उत्पन्न हुआ। पानी के बाद पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई। पृथ्वी का सत्तर प्रतिशत भाग पानी से ढंका है, तब कुछ ज्यादा रहा होगा। धीरे-धीरे जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की संख्या बढ़ती गई।
मनुष्य के जन्म के पहले वायुमंडल, जल मंडल (समुद्र, नदी, नाले, तालाब, झीलें), पहाड़-घाटियां, बर्फीले और रेतीले मैदान, लंबे-चौड़े सपाट मैदान, घने जंगल, हजारों तरह के अरबों-खरबों पेड़-पौधे और जीव-जंतु थे। इसका सीधा-सच्चा अर्थ है कि मनुष्य के बिना पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं, वायुमंडल का जीवन संभव है, परंतु मनुष्य का जीवन इनके बिना असंभव है। क्यों, क्योंकि सामान्यतः तीन मिनट तक वायु न मिले, तो मनुष्य मर जाता है।
हमारी धरती माता हमें एक बीज के बदले लाखों अन्न के दाने या फल देती है। ऐसी अन्नपूर्णा माता के पेट में रासायनिक कूड़ा-करकट, नष्ट न होने वाला कचरा, पॉलिथीन व प्लास्टिक के पाउच ठूंसकर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। हमें इस विषय में पूरी तरह सावधान रहना चाहिए।
वृक्ष ने मनुष्य को प्राणवायु, जल, छाया, रोटी-कपड़ा, मकान, फर्नीचर, दवा, कागज, स्याही, रंग, कॉस्मेटिक्स, शराब, औजार, सुगंधित पदार्थ आदि सैकड़ों तरह के अनुदान तो दिए ही हैं। वृक्ष शोर और वायु प्रदूषण के जहर को स्वयं पी जाते हैं। वृक्ष बरसात के पानी को अपनी जड़ों के माध्यम से धरती के भीतर तक पहुंचाते हैं ताकि गर्मी में मनुष्य को नलकूप जल देते रहें।
वृक्षों के अनुदान यहीं समाप्त नहीं होते हैं। वृक्ष की छांव में ही राजकुमार सिद्धार्थ को कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ और वे भगवान बुद्ध हो गए। भगवान शिव बरगद की छाया में समाधिस्थ होते हैं। पंचवटी और श्रीराम तथा कदम्ब और श्रीकृष्ण के संबंधों को दुनिया जानती है। भगवान महावीर सहित जैनियों के सभी 24 तीर्थंकरों को कैवल्य ज्ञान किसी न किसी वृक्ष के तले ही प्राप्त हुआ है और 20 तीर्थंकरों की दीक्षा का संस्कार अशोक वृक्ष की छाया में हुआ।
सीता माता विरह और पश्चाताप के दुःख से संतप्त थीं, प्रताड़ना देने वाली और दबाव डालने वाली भयावह राक्षसियों से घिरे रहने के बाद भी वे निराशा, अवसाद और पराजय की मानसिकता से ग्रस्त नहीं हुईं। अशोक वाटिका के वृक्ष उन्हें न केवल शोकरहित करते रहे, बल्कि मनोशारीरिक बल, आत्मबल और नैतिक बल देते हुए विपरीत परिस्थितियों का सामना करने का अनूठा साहस भी देते रहे।
उक्त कथनों से यह स्पष्ट लगता है कि वृक्ष हमारे भीतर चुपचाप सहिष्णुता, उदारता, उद्दात्तता, करुणा, दया, ममता, अहिंसा, समन्वय क्षमता, मानवता, समरसता, पारिवारिकता, सहनशीलता और विश्व बंधुत्व का भाव भरते रहते हैं। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि भारत में पारिवारिक विखंडन, वर्ग भेद, हिंसा, परस्पर शत्रुता, एकता का अभाव और उनके कारण निरंकुश आतंकवाद का कारण वृक्षों और जंगलों की निर्ममतापूर्वक कटाई ही है।