संसार में असंतुष्टों और छिद्रान्वेषियों की कमी नहीं है और भारत में तो ये सर्वाधिक है। ये अपने ही देश के प्रधानमंत्री, प्रशासन और प्रजातंत्र पर देश के अंदर या देश के बाहर बैठकर प्रहार करने में गर्व महसूस करते हैं। समस्या तब और भी गंभीर हो जाती है जब इन नामों में कुछ प्रसिद्ध नाम भी जुड़ जाते हैं, जिन्होंने किसी एक क्षेत्र में उपलब्धि अर्जित की है और अपने नाम की प्रसिद्धि के आधार पर सामाजिक या राजनैतिक क्षेत्रों पर असंगत टिप्पणियाँ कर देशी और विदेशी मिडिया में सुर्खियां बटोरते हैं। इन्हें अपने ही देश को अपमानित करने में शर्म नहीं है क्योंकि इन्हे ज्ञान का अपच हो गया है, इन लोगों में अनेक प्रसिद्ध अभिनेता, विश्व स्तर पर सम्मानित अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री शामिल हैं जिनका उल्लेख हमें अख़बारों में निरन्तर पढ़ने को मिलता है।
ये ऐसे लोग हैं जो हर हाल में दु:खी रहते हैं और खुशियों के पल में दु:खी होने का कारण खोज निकालते हैं। ये विलक्षण प्रतिभाएं अपने आप को आम से भिन्न एक असाधारण प्रतिभा का धनी समझते हैं जिन्हे लगता है कि उनमे विश्व को देखने और समझने की शक्ति औरों से कहीं अधिक है। इस संसार में तो किसी सन्निपात की वजह से जन्म लेना पड़ा अन्यथा उनके जैसे महारथियों के लिए यह संसार शायद उपयुक्त ही नहीं है।
अतीत पर प्रलाप करना, वर्तमान पर आहत होना और भविष्य को अंधकारमय बताना इनका स्वान्तः सुखाय शगल है। इनके लिए नमकीन नीरस है और मीठे से इन्हें परहेज है। पृथ्वी को चपटी और सूरज के रथ में घोड़ों की कल्पना करने वाले नासमझ नहीं मनीषी थे। जिन्होंने अपनी गणनाओं से उस समय की सभ्यता को अचंभित कर दिया था।
आज के युग में हुई खोजों के आधार पर प्राचीन युग के मनीषियों पर हंसना अपनी स्वयं की प्रजाति की विकास यात्रा पर कीचड़ उछलना है। जो आज संगत है वह कल विसंगत होगा और हो सकता है कि आज के आविष्कारकर्ताओं पर कल का अधिक विकसित समाज हँसे। बीते कल में हुए आविष्कार आज की व्यवस्था में भले अर्थहीन लगते हों किन्तु बैलगाड़ी का आविष्कारक, हवाई जहाज के आविष्कारक से कम बुद्धिमान नहीं रहा होगा और न ही आज के हवाई जहाज का आविष्कारक कल के हाइपरसोनिक विमानों के सृजनकर्ता से कम बुद्धिमान।
क्या यह सही नहीं है कि हमारा अतीत हमारे आज का जनक है। बैलगाड़ी के पहिए का आविष्कार नहीं होता तो क्या आज यातायात के साधन हमें उपलब्ध होते? भूत हमारी धरोहर है, अच्छी हो या बुरी, अब उसे संवारा या बिगाड़ा नहीं जा सकता। संवार तो हम वर्तमान को सकते है किन्तु यदि हम अपना समय उसे कोसने में बिता देंगें तो भविष्य का निर्माण क्या ख़ाक करेंगे।
परम्पराओं में विसंगतियां है, जीवन बेसुरा है, ऐसा मानने वाले विसंगतियों को उजागर करने में ही अपने आप को महान समझते है। जानते नहीं कि इन विसंगतियों पर कितने मनीषियों ने अपने जीवन उत्सर्ग किये और मानव सभ्यता को आज यहाँ तक पहुँचाया। संतोष की बात तो यह कि इन क्षुद्र आलोचकों की आलोचनाओं से संसार रुकता नहीं अन्यथा विज्ञान के कई अद्भुत सिद्धांत आज असहिष्णु पादरियों द्वारा शासित चर्चों की दीवारों में दफ़न होते। मनुष्य की सभ्यता यात्रा में आलोचक मात्र क्षणिक अवरोध हैं जिन्हें समाज कुछ समय झेलने के बाद पथ के कंकर की भांति उठाकर मार्ग से बाहर फेंक देता है।
अच्छा तो यही होगा ये लोग अपने नाम और ज्ञान का उपयोग कर मनुष्य जीवन की विकास यात्रा में अपना सकारात्मक योगदान दें अन्यथा इन लोगों का नाम आते ही आम आदमी का मन मलिन ही होगा और मस्तिष्क वितृष्णा से भर जाएगा।