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अँधेरे के खिलाफ गाँधीगिरी...

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उमेश त्रिवेदी

गाँधी जयंती से कोई डेढ़ माह पहले गाँधी की चर्चा लीक से कुछ हटकर महसूस हो सकती है, क्योंकि आजादी के बाद दशकों से देश में उन्हें महज एक घटना की तरह ही याद किया जाता रहा है।

गाँधी की जयंती, पुण्यतिथि या स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से जुड़ी घटनाओं में महात्मा का जाप देश के कर्ताधर्ताओं के लिए वैसा ही कर्मकांड है, जैसा कि घरों में पूर्वजों के लिए श्राद्ध-पक्ष या तीज-त्योहारों पर होता है।

गाँधी देश के ऐसे पूर्वज या पुरोधा हैं, जिन्हें याद करना या अपना बताना व्यवस्थागत मजबूरी के अलावा कभी कुछ नहीं रहा। विचार या चिंतन की जिन धाराओं ने शुरू में उन्हें खारिज कर दिया था, कालान्तर में वो भी गाँधी-दर्शन के गलियारों में चहकती नजर आने लगी हैं।

आजादी के शुरुआती बीस-पच्चीस सालों में गाँधी का स्मरण राजनेताओं की 'गुड-विल' बढ़ाता था... सामाजिक कार्यकर्ताओं की विश्वसनीयता में चार चाँद लगाता था... स्वयंसेवी संगठनों और संस्थाओं के खटकर्मों पर चादर डालता था...। उनके लिए गाँधी सोने की मुहर थे, जिसके दस्तावेज समाज में करंसी की तरह चलते थे।

गाँधी का नाम 'विश्वसनीय-रचनात्मकता' की टकसाल था, शायद इसी मजबूरी के चलते देश के मैनेजरों ने उन्हें श्लोक या मंत्र की तरह कंठस्थ तो कर लिया, लेकिन उनके कर्म, मर्म और धर्म से वे कोसों दूर बने रहे, लेकिन लगता है कि वर्षों तक गाँधी के वैचारिक और व्यावहारिक धरातल से कटा देश अब फिर से गाँधी के नजदीक आ रहा है अथवा अपने आसपास उन्हें ढूँढ़ रहा है।

आजादी की साठवीं सालगिरह पर एक राष्ट्रीय टीवी चैनल के सर्वेक्षण में जनता ने उन्हें देश का 'महानतम प्रतिमान' माना है... एक ऐसा प्रतिमान जो कर्म, धर्म और मर्म से जुड़ी तमाम सर्वकालिक हस्तियों से न केवल आगे है, बल्कि इतना आगे है कि उन तक पहुँच पाना कई सदियों का दुष्कर सफर होगा... कहना मुश्किल है कि उस समय भी कोई उस मुकाम को हासिल कर पाएगा...।

सर्वेक्षण के नतीजों से जाहिर है कि गलियों से लेकर राजपथ तक यदि लोगों के दिलो-दिमाग पर किसी व्यक्ति का राज है, तो वह है महात्मा गाँधी...। दिलचस्प यह है कि गाँधी की जिस 'अहिंसा' को लेकर लोगों में मत-भिन्नता और विवाद रहे हैं, इक्कीसवीं सदी उसी 'अहिंसा' को अभिव्यक्त करने को तैयार है...। बस, अभिव्यक्ति के मुहावरे और तौर-तरीके पहले से कुछ भिन्न हैं।

गाँधीवाद या गाँधी की अहिंसा अब 'गाँधीगिरी' में व्यक्त होने लगी है। दिलचस्प यह है कि जिस गाँधी को अधिकांश युवा-शक्ति ने सिर्फ पन्नों पर पढ़ा, देखा और समझा, उसी ने उन्हें वर्तमान में मौजूद उन सभी शख्सियतों से ऊपर रखा है, जिनके साथ उसका समय और सरोकार सीधे जुड़े हैं। वो उन 'मदर-टेरेसा' से काफी ऊपर हैं, जिनकी करुणा को सारा संसार मान्यता देता रहा है।

जेआरडी टाटा और नारायणमूर्ति उनके सामने पासंग पर नहीं ठहरते, जिनका कर्म और पुरुषार्थ देश को नए आयाम देते नजर आ रहे हैं। चौबीस घंटों 'सिल्वर-स्क्रीन' पर विहंसता अमिताभ बच्चन का चेहरा भी गाँधी की शख्सियत के सामने शून्य समान परिलक्षित हो रहा है, जिसे समूचा मार्केट पूरी शिद्दत के साथ बेच और भुना रहा है। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी का योगदान भी लोगों ने गाँधी के सामने रत्तीभर माना है।

स्वतंत्रता की साठवीं सालगिरह पर अभिव्यक्त लोगों के दिलो-दिमाग में गाँधी की वापसी का एहसास सुखद है। भले ही एक विचार के रूप में गाँधी की यह वापसी 'गाँधीगिरी' जैसे अटपटे, अनाड़ी और औघड़ लगने वाले मुहावरों के साथ हुई हो, लेकिन इससे बेहतर कुछ नहीं होगा कि लोग महसूस करने लगे हैं कि 'बंदे में था दम... वंदे मातरम।' युवा पीढ़ी शायद गाँधी दर्शन में तलाशने और खंगालने लगे कि 'बंदे में' क्यों, कितना और कैसा दम था...?

संभव है गाँधीवाद की शास्त्रीयता और शुद्धता के प्रति संवेदनशील व्यक्तियों को गाँधीगिरी का नया चलन नागवार गुजरे, वो इससे असहमत भी हों, लेकिन गाँधी को लेकर सोच-विचार की नई शुरुआत हो चुकी है।

आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर में कगार पर 'गाँधीगिरी' की किरणों का नजर आना उम्मीदें बँधाता है। वर्तमान आर्थिक अभ्युदय के साथ विषमताओं का अँधेरा भी दबे पाँव पीछे-पीछे चल रहा है। भीतर ही भीतर एक दावानल सुलग रहा है, जिसका निदान सिर्फ गाँधीगिरी या गाँधीवाद में निहित है।

जिस पीढ़ी ने आजादी की हवा में पहली साँस ली है, उनके सामने दूरगामी राष्ट्रीय और सामाजिक पुनर्रचना के मुद्दों को ध्यान में रखकर गाँधी को कभी प्रस्तुत ही नहीं किया गया। उनके लिए गाँधी 'राष्ट्रपिता' थे, जिनकी बदौलत देश आजाद हुआ। देश के पुनर्निर्माण में गाँधी-दर्शन की शह हमेशा हाशिए पर ही बनी रही है, लेकिन अब चेहरे बदलने लगे हैं।

हाशिए मुखपृष्ठ में तब्दील होने लगे हैं। 'गाँधीगिरी' की ताजा टोक से देश हतप्रभ और चकित है। उस टोक में लोगों को शक्ति महसूस होने लगी है। उनके हाथों में नए सिरे से एक अस्त्र आ गया है, जिसे पैना और संगठित करने के उपाय ढूँढ़े जाने लगे हैं। गाँधी की वो छोटी-छोटी बातें, जिन्हें चुटकुलों में तब्दील कर दिया गया था, ताकत का एहसास बनने लगी हैं।

आजकल नन्हे-मुन्नों की पाठ्यपुस्तकों के पन्नों के पिंजरों में ठिठके, सहमे और सिमटे बैठे गाँधी के तीनों बंदर बगलें झाँकते नजर नहीं आते हैं। 'बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो और बुरा मत देखो' का जीवन-दर्शन सिखाने वाले तीनों बंदर अब मुखर होने लगे हैं।

देश-विदेश के कई जाने-माने 'मैनेजमेंट-गुरु' और 'लाइफ-स्टाइल' को प्रभावी बनाने वाले 'माइंड-मास्टर्स' तीनों बंदरों की इस सीख को बड़ी-बड़ी और दुरूह व्याख्याओं में फैलाकर व्यवस्थाओं का हिस्सा बनाने में जुटे हुए हैं। दिलचस्प यह है कि ये बातें धीरे-धीरे अनेक लोगों की जीवनशैली का हिस्सा भी बनने लगी हैं, संस्थानों की कार्यशैली में मूलमंत्र की तरह ध्वनित होने लगी हैं।

महात्मा गाँधी के समकालीन सुप्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक-पत्रकार लुईस फिशर ने जो उन्हें नजदीक से जानते थे, 'द लाइफ ऑफ महात्मा गाँधी' में ऐसे कई प्रसंगों का उल्लेख किया है, जो मामूली लगने वाली बातों से जुड़े हैं। उन्होंने लिखा है, 1910 में जब गाँधी जोहान्सबर्ग में 'टालस्टाय-फार्म' में 'जनरल-मैनेजर' के रूप में काम करते थे, वहाँ सभी सम्प्रदाय और जाति के लोग रहते थे।

सबके लिए एक आचार-संहिता थी, जो धर्म-जाति से ऊपर थी। सीखने-सिखाने की गाँधी की अपनी शैली थी। वे कहा करते थे कि सड़क पर थूकना, पाखाना फैलाना या नाक छिनकना भगवान और मनुष्यता, दोनों के प्रति पाप-कर्म है। लोग पूरी ताकत से उनका पालन करते थे।

गाँधी की छोटी-छोटी बातों का प्रभाव समाज और देश के लिए गहरा और व्यापक हो सकता है। वो गाँव की बात करके शहर को सचेत करते हैं और व्यक्ति के स्वावलम्बन को रेखांकित करके समाज का खाका तैयार करते हैं।

आइंस्टीन का यह कथन सही लगता है कि 'लोग भरोसा नहीं करेंगे कि दुनिया में हाड़-मांस का कोई ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है।' गाँधी कोई सदियों पुरानी या गुमी हुई चीज नहीं हैं। काल-खंड के हिसाब से उनका अस्तित्व ताजा और वर्तमान से सीधा जुड़ा हुआ है। लोग विकास के साथ जुगलबंदी करते हुए इक्कीसवीं सदी की अलग-अलग व्याख्याएँ कर रहे हैं। विकास के अलग-अलग मॉडल सक्रिय हैं।

वर्तमान संदर्भों में गाँधी कुछ मायनों में नई धारा से कटे महसूस हो सकते हैं, लेकिन जब वो और उनका सोच 'विकास के मानवीय चेहरे' का पक्ष लेकर सक्रिय होगा, तो वो कैसे अप्रासंगिक माने जा सकेंगे...?

गाँधीगिरी के माध्यम से हमें गाँधी के इन्हीं तत्वों को नए सिरे से रेखांकित करने की जरूरत है। स्वतंत्रता की साठवीं वर्षगाँठ पर घोषित इस 'महानतम प्रतिमान' के जरिये देश के विकास में मानवीय चेहरा स्थापित हो सके... खिल सके... देश के लिए इससे ज्यादा श्रेयस्कर और कुछ नहीं होगा।

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