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अभिशापित वोट व्यवस्था

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आलोक मेहता

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बिगुल बज गया है। नवंबर में श्रीनगर से रायपुर तक 6 राज्य विधानसभाओं के चुनाव होना हैं। इसी घड़ी भारत के बाद सबसे बड़लोकतांत्रिक महाशक्ति अमेरिका में राष्ट्रपति पद का ऐतिहासिक चुनाव होने जा रहा है। छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर और मिजोरम की तरह अमेरिका में वोटर उत्साहित हैं। पहली बार एक अश्वेत नेता ओबामा को राष्ट्रपति बनाने के लिए बहुमत बेताब है, लेकिन गुलमर्ग, बस्तर और झाबुआ के आदिवासियों से बदतर स्थिति अमेरिकी मतदाताओं की है। आप इसे अतिशयोक्ति न समझें। यह असलियत है।

हम भारत में चुनाव अधिकारियों, राजनीतिक दलों, असामाजिक तत्वों को चुनाव में हेराफेरी के लिए दोषी ठहराते हैं। उनकी आलोचना करते हैं। मतदाता सूचियों में गड़बड़ियों और मतदान के समय सही मतदाताओं को वोट न डालने देने की आशंका पर कई अधिकारियों को बदल देते हैं। बोगस मतदान रोकने के लिए आधुनिक "वोटिंग मशीनों" को कल्याणकारी देवी की तरह आदर्श बताने लगे हैं।

चुनाव परिणाम ठीक न आने पर गरीब, अशिक्षित, भोले-भाले मतदाताओं को ही दोषी ठहरा देते हैं, लेकिन अमेरिका में तो अधिकांश मतदाता गरीब नहीं हैं। अधिकतर मतदाता अशिक्षित भी नहीं हैं। वे जागरूक और अर्थव्यवस्था से प्रभावित हैं। उनके लिए इराक पर हमले से लेकर सुपर बाजार की चीनी और चीज या शेयर बाजार का उतार-चढ़ाव बेहद महत्वपूर्ण हैं। फिर भी अत्याधुनिक अमेरिका के लाखों मतदाता निर्वाचन-व्यवस्था के सामने बेबस हैं।

भारतीय करदाताओं के पैसों से अमेरिका और योरप की यात्रा करके उनका गुणगान करने वाले हमारे बड़े नेताओं और अधिकारियों का ध्यान अमेरिकी निर्वाचन व्यवस्था की कमियों तथा गड़बड़ियों की ओर नहीं जाता है।

  इस साल मतदाता सूचियों में 13 लाख मतदाताओं के नाम जोड़े गए हैं, जिनमें से सैकड़ों पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। "ग्रेट अमेरिका" की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ रिपब्लिकन और डेमोक्रेट पैसे देकर सूचियों में जाली नाम दर्ज करा देती हैं      
कम्प्यूटरीकृत मतदाता सूचियों में लाखों सही मतदाताओं के नाम गायब होने से इन दिनों अमेरिका के कई राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। नाम, पते-ठिकाने की, स्पेलिंग की जरा-सी गलती से लाखों मतदाता वोट के लिए अयोग्य करार हो चुके हैं। विस्कोंसिन क्षेत्र में लगभग 22 प्रतिशत मतदाताओं को तकनीकी आधार पर वोट के लिए "अयोग्य" बताया जा चुका है। वहाँ बड़ी अदालत में न्यायाधीश रह चुके 6 में से 4 के नाम इस आधार पर छँटनी में आ गए हैं कि उनका व्यक्तिगत विवरण ड्राइविंग लाइसेंस के लिए प्राधिकरण में दर्ज विवरण से एक-दो स्पेलिंग से मेल नहीं खाता।

भारत में कम्प्यूटरीकृत मतदाता सूची व्यवस्था के बहाने कम्प्यूटर और डेटा संकलन के ठेकेदारों से कमीशन पाने वाले नेता और अधिकारी कृपया अमेरिकी स्थिति के बारे में भी थोड़ी जानकारी प्राप्त कर लें। इसी तरह जाति, धर्म और बांग्लादेशी पृष्ठभूमि के नाम पर मतदाता सूची को चुनौती देने वाले नेतागण भी अपने "प्यारे अमेरिकी मित्रों" को चुंबन करते समय वोट व्यवस्था में गड़बड़ी का राज कान में ही सुन लें। सार्वजनिक रूप से उन्हें इसकी चर्चा करने में तो शर्म आएगी। कहीं "बड़े अंकल" नाराज न हो जाएँ।

हमारे बिहार और उत्तरप्रदेश राज्य जाली मतदान के लिए बदनाम किए जाते हैं। जम्मू-कश्मीर के चुनाव को लेकर पाकिस्तानी न्यूयॉर्क में भी हाय-तौबा करते हैं, लेकिन अब वे वॉशिंगटन-न्यूयॉर्क जाकर अपने शुभचिंतकों से पता लगाएँ। "ग्रेट अमेरिका" की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियाँ रिपब्लिकन और डेमोक्रेट पैसे देकर मतदाता सूचियों में जाली नाम दर्ज करा देती हैं। बोगस वोटर को भी बाकायदा किराए की कुछ रकम दी जाती है।

बताते हैं कि इस साल मतदाता सूचियों में 13 लाख मतदाताओं के नाम जोड़े गए हैं, जिनमें से सैकड़ों पर प्रश्नचिह्न लग रहे हैं। यदि अमेरिकाप्रेमियों को याद हो तो पिछले राष्ट्रपति चुनाव में बुश साहब की जीत कुछ हजार संदिग्ध वोटों के बल पर ही हुई थीइसकी तुलना में लालूजी, नीतीश, सोनिया गाँधी, जयललिता, रामविलास पासवान, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं की स्थिति बहुत अच्छी है।

उन्हें बोगस वोटों की जरूरत नहीं पड़ती और लाखों के अंतर से विजयी होते हैं। हाँ, हमारे भले नेता डॉ. मनमोहनसिंह को साधारण वोटर, मतदाता सूची के चक्कर में ही नहीं पड़ना पड़ता। वे तो राज्यसभा के पिछले दरवाजे से आते हैं, इसलिए मतदाता सूची, लोकप्रियता, जाली वोटिंग इत्यादि का कोई आरोप ही नहीं लग सकता।

  कम्प्यूटरीकृत मतदाता सूचियों में लाखों सही मतदाताओं के नाम गायब होने से इन दिनों अमेरिका के कई राज्यों में हाहाकार मचा हुआ है। नाम, पते-ठिकाने की, स्पेलिंग की जरा सी गलती से लाखों मतदाता वोट के लिए अयोग्य करार हो चुके हैं      
रही बात मशीन की तो अमेरिका में संपन्न और पढ़े-लिखे वोटर भी मार खा जाते हैं। इस बार राष्ट्रपति चुनाव में एक-तिहाई वोटर इलेक्ट्रॉनिक मशीन से वोट देंगे और उसका कोई कागजी प्रमाण नहीं होता। अमेरिकी प्रशासन और मीडिया में अभी से खबरें हैं कि पचासों मशीनें खराब पाई जाती हैं। मशीन की मेमोरी (याददाश्त) आदमी की याददाश्त और कागजी रिकॉर्ड से बदतर साबित हो रही है।

पिछले प्रादेशिक चुनावों में मशीनों की गड़बड़ी की गंभीर घटनाओं से महीनों तक कानूनी मामले चलते रहे हैं। छूकर वोट देने (टच स्क्रीन) की व्यवस्था में बड़े-बड़े खेल हो जाते हैं। मतदान केंद्रों को लेकर भी पार्टियाँ हेराफेरी करती हैं। यदि छात्र समुदाय के लिए यूनिवर्सिटी के इर्द-गिर्द मतदान केंद्र लगाकर युवाओं को आकर्षित करने की कोशिश होती है तो "वोटर को प्रलोभन" के आरोप लगाकर कानूनी लड़ाई शुरू हो जाती है।

हालत यह है कि माता-पिता पर आर्थिक रूप से आश्रित होने का रिकॉर्ड रखने वाले युवाओं को अपने शहर से दूरस्थ कॉलेज या यूनिवर्सिटी होने पर वोट देने के अधिकार से वंचित रखने के प्रयास तक हुए हैं। ऐसी स्थिति में डेमोक्रेट उम्मीदवार ओबामा के लिए मुश्किलों के पहाड़ अवश्य खड़े होंगे। यह बात अलग है कि भारी संख्या में मतदाताओं का समर्थन होने पर हेराफेरी बहुत नहीं बिगाड़ पाएगी।

राष्ट्रपति ट्रुमान ने दशकों पहले अमेरिका को महान और अमेरिकी जनता को विश्व का कल्याणकारी होने का दावा किया था, लेकिन आज अमेरिका बदला हुआ है। वहाँ अर्थव्यवस्था के साथ लोकतंत्र की रक्षा के लिए भी जागरूकता और बदलाव की माँग उठने लगी है।

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