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आईआईएम : सामाजिक उद्देश्यों का प्रबंधन

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जयदीप कर्णिक

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आईआईएम इंदौर... देश के छठे प्रबंध संस्थान के रूप में स्थापित। क्षेत्रफल की दृष्टि से सबसे बड़ा। वहाँ वार्षिकोत्सव चल रहा है - आव्हान 2012। प्रबंध संस्थानों के छात्र सामाजिक उद्देश्यों को लेकर कितने जागरूक हैं, सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए किस तरह अपने प्रबंधन कौशल का इस्तेमाल कर सकते हैं यह जानने के लिए एक प्रतियोगिता रखी गई - माय कैंपेन।

किसी सामाजिक मसले को लेकर मुहिम कैसे चलाई जाए, उसे सफल कैसे बनाया जाए, इसको लेकर छात्र-छात्राओं को अपनी प्रस्तुति देनी थी। देश भर से चार प्रविष्टियाँ इंदौर में प्रस्तुति के लिए चुनी गईं। यों तो ये किसी भी प्रबंध संस्थान के वार्षिकोत्सव में होने वाली आम प्रतियोगिताओं की ही तरह थी, पर चार में से दो प्रस्तुतियों ने कुछ ऐसा ध्याना खींचा कि सोचा इस पर लिखा जाए।

पहली ध्यान खींचने वाली प्रस्तुति थी माइका-अहमदाबाद (MICA- Ahemdabad) की। यहाँ के छात्र-छात्राओं ने जिस आत्मविश्वास के साथ सेनेटरी नेपकिन और महिलाओं में माहवारी के दौरान साफ-सफाई की जरूरत को सामने रखा, वो प्रभावित करने वाला था। विषय ऐसा था जिस पर आमातौर पर घर पर भी बात करने में लोग कतराते हैं, जबकि मसला हर घर से जुड़ा है।

ये लोग अपने कैंपेन को लेकर अहमदाबाद के पास एक गाँव में भी गए और एक गायनाकोलॉजिस्ट डॉक्टर की मदद से किशोरियों को स्कूल में इसका महत्व समझाया। उनकी मुहिम को उनके संस्थान माइका अहमदाबाद से काफी समर्थन मिला। कई अन्य सामाजिक संस्थाएँ भी उनकी मदद के लिए आगे आई हैं। प्रभावित करने वाली बात यह है कि उन्होंने एक अनछुए पहलू को बहुत मजबूती के साथ उठाया।

दिल्ली से आए गुनीत और ज्योत्सना किसी कॉलेज के प्रतिनिधि नहीं थे, पर एक ख़याल है, जिसको लेकर वो बस भिड़े हुए हैं। इन्हें लगता है कि विचारों में जड़ता के कारण ही हम लोगों को उस रूप में स्वीकार नहीं कर पाते जैसे वो हैं। हम चाहते हैं कि लोग वैसे ही हो जाएँ जैसे कि हम हैं। इसी से सारे द्वंद्व और संघर्ष उपजते हैं। जाहिर है खयाल बहुत बौद्धिक है, फलसफे वाला है।

फेसबुक पेज पर मिली प्रतिक्रिया की वजह से वो ये भी मानते हैं कि यह विचार तेजी से फैल रहा है। बहरहाल, उन्होंने इस विचार से एक सामाजिक बुराई को जोड़ा- लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार का मुद्दा। कैंपेन को नाम दिया- गॉट स्टेयर्ड एट (GotStared.at)| इससे जुड़े कई सवाल उन्होंने उठाए, जैसे- क्या लड़कियों से छेड़छाड़ इसलिए होती है कि वो कम कपड़े पहनती हैं? क्या बलात्कारी निर्दोष है और परिस्थितियाँ दोषी? नजरिए के दोष के लिए कौन जिम्मेदार है? जैसे उन्होंने स्लोगन लिखा- नजर तेरी खराब है और बुर्का मैं पहनूँ? .... ख़याल तो नेक है पर कहाँ तक जा पाएगा... देखना होगा।

गाजियाबाद से आई लड़कियों ने भी लड़कियों से छेड़छाड़ का मुद्दा उठाया, लेकिन उनकी प्रस्तुति प्रभावित करने वाली नहीं थी और इसे लंबे समय तक चलाए रखने की योजना भी।

हैदराबाद के इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस का नाम तो बहुत सुना था पर प्रस्तुति में वो बात कहीं नहीं थी। टेट्रापैक को रिसायकल किए जाने का कैंपेन तो उनका बहुत अच्छा था, लेकिन केवल अपने कॉलेज में इसे लागू करवा लेने की शुरुआत को वो व्यापक स्तर पर कैसे ले जाएँगे ये सोच भी नहीं थी।

बहरहाल ऐसी वार्षिक प्रतियोगिताओं माध्यम से सामाजिक संस्कारों से छात्रों को जोड़ने का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है, लेकिन जब इन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊँचे पदों और मोटी तनख्वाह पर नौकरी मिल जाएगी या ये अपनी खुद की कंपनी खोल लेंगे तब ये सरोकार कितने जिंदा रह पाएँगे ये ज्यादा बड़ा सवाल है। जरूरी है कि ऐसे आयोजनों के माध्यम से पड़ने वाले बीज को सतत खाद-पानी मिलता रहे।

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