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आपकी बातों में कुछ उधड़े हुए से राज हैं

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गिरीश उपाध्‍याय

आप के नेता अरविंद केजरीवाल की एक टीवी चैनल एंकर से इंटरव्यू के बाद हुई ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ बातचीत को लेकर काफी हो-हल्ला मचा हुआ है। इस मामले में सोशल मीडिया पर भाषा के तमाम संयम तोड़ते हुए आरोप-प्रत्यारोप का अभियान-सा चल रहा है।

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केजरीवाल और एंकर के बीच हुई बातचीत को लेकर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले कुछ बातों को गहराई से जान लेना जरूरी है। चूंकि मैं भी मीडिया से जुड़ा होने के कारण चैनल्स पर होने वाली पैनल चर्चाओं में भाग लेता रहता हूं इसलिए कह सकता हूं कि ऐसे किसी भी कार्यक्रम के टेलीकॉस्ट होने से पहले या बाद में इस तरह के अनौपचारिक संवाद होना बहुत ही सामान्य-सी बात है। ये ‘ऑफ द रेकार्ड’ की श्रेणी में भी उस तरह से नहीं आते जिस तरह मीडिया के क्षेत्र में ‘ऑफ द रेकॉर्ड’ ब्रीफिंग को लिया जाता है।

चूंकि बातचीत से पहले या बाद में कैमरा क्रू अपनी तैयारियों के लिए सारे उपकरण टेस्ट करता रहता है इसलिए साउंड और विजुअल दोनों ही रिकॉर्ड होते रहते हैं। परंपरा यह है कि इनका आमतौर पर उपयोग नहीं किया जाता।

टीवी की गरमागरम, गलाफाड़ पैनल बहसों में एक-दूसरे पर दुश्मनों की तरह टूट पड़ने वाले नेता या खुद पैनलिस्ट भी अकसर कार्यक्रम से पहले या उसके बाद इस तरह के संवाद करते देखे जा सकते हैं- ‘आज क्या लाइन ले रहे हो’, ‘देख लेना यार थोड़ा संभाल लेना’, ‘भाई आज हमारे पास कहने को ज्यादा नहीं है, खिंचाई कम करना’, ‘अरे सवाल तो बता दो आखिर पूछने क्या वाले हो…', कार्यक्रम के बाद एंकर से भी पूछ लिया जाता है- ‘क्यों, ठीक रहा ना...’ और एंकर ही क्यों… कार्यक्रम हो जाने के बाद आपको कांग्रेस और भाजपा के नेता भी एक-दूसरे को यह कहते हुए बधाई देते मिल जाएंगे... ‘आज तो आपने कमाल कर दिया’, ‘बहुत अच्छा रहा...’ बधाई के अलावा कई बार ऐसा होता है, जब कांग्रेस का नेता भाजपा नेता के तर्क से या भाजपा नेता कांग्रेस नेता के तर्क से सौ फीसदी सहमत होता हुआ इस अनौपचारिक संवाद में अपनी ही पार्टी की नीतियों या नेताओं की इस कदर आलोचना करता है कि आप सोच भी नहीं सकते।

ऐसे संवादों में कई बार अपने ही पक्ष या वरिष्ठों के प्रति अभद्र भाषा तक का इस्तेमाल हो जाता है लेकिन ये सब कैमरे से हटकर होता है। यदि लाइव टेलीकॉस्ट नहीं हो रहा है (जो कि बहुत महत्वपूर्ण नेताओं के मामले में नहीं ही होता) तो इंटरव्यू या बहस से बाहर निकलते समय एंकर से यह कहना कि- ‘देखना यार जरा संभाल लेना...’ बहुत सामान्य बात है। जब आप कैमरे के सामने होते हैं तो माहौल चार्ज्ड होता है और उस गरमी में आप बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं, जो सार्वजनिक रूप से आपकी छवि या आपकी पार्टी की रीति-नीति के खिलाफ होता है।

इलेक्ट्रॉनिक ही नहीं... प्रिंट मीडिया में भी इसी तरह की बातें होती हैं। कई बार खुद मीडिया कुछ बातों को अपने हिसाब से प्रस्तुत कर देता है। यही कारण है कि कुछ बड़े नेताओं ने आजकल लिखित में सवाल मंगवाना और लिखित में ही उत्तर देना शुरू कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बात करते समय भी कई नेता पहले सवाल मंगवाते हैं... बातचीत के बाद वो फुटेज देखते हैं और खुद तय करते हैं कि कौन-सी बात जाएगी और कौन-सी नहीं। जनता को वैसा ही पढ़ाया या दिखाया जाता है।

वैसे आजकल तो यह काम कॉर्पोरेट एजेंसियों को ठेके पर भी दिया जाने लगा है। नेता की तरफ से वे ही सब कुछ तय करती हैं। यह सब पूरी ‘अंडरस्टैंडिंग’ से होता है। यदि कोई यह कहे कि बाकी लोग करते होंगे... हमारे यहां तो ऐसा नहीं होता... तो तय जानिए कि वह झूठ बोल रहा है... बहुत ज्यादा न होती हो पर कुछ न कुछ ‘अंडरस्टैंडिंग’ तो होती ही है इसलिए केजरीवाल और एंकर के बीच जो कुछ भी हुआ वो कोई अनहोनी घटना नहीं है।

अब सवाल उठता है कि इस पर इतना हंगामा क्यों बरपा है? दरअसल अरविंद केजरीवाल ने राजनीति की जो शैली अपनाई है, उसमें शुचिता है या नहीं इस पर बहस हो सकती है, लेकिन जैसे-जैसे घटनाएं सामने आ रही हैं उससे एक बात तो तय है कि उसमें शुचिता का दिखावा भरपूर है।

भारतीय मानस किसी भी व्यक्ति का आकलन करते समय अकसर या तो बहुत सतही होता है या बहुत जल्दीबाजी में होता है। उसे कोई भी व्यक्ति बहुत जल्दी हैवान या देवता लगने लगता है। हमारी दिक्कत यह है कि हम अभी भी चाबी से चलते हैं। और संयोग है कि कुछ समय से यह चाबी मीडिया के द्वारा भी भरी जा रही है।

खैर... तो हमने केजरीवाल का आकलन भी उसी तरह किया और मान लिया कि यही वो व्यक्ति है या ‘आप’ ही वो पार्टी है, जो कांग्रेस या भाजपा जैसी परंपरागत पार्टियों से अलग, बहुत शुचितापूर्ण ढंग से देश के समाज को बदल सकती है।

केजरीवाल ने जनता के मन के इस गणित को बहुत अच्छी तरह से पढ़कर अपना राजनीतिक गणित तैयार किया है। उन्होंने जनता की इसी कमजोरी का फायदा उठाते हुए अपनी छवि ऐसी बनाने की कोशिश की है, जैसे वे जनता के ही मन की बात कह रहे हों। उन्हें मिलने वाले समर्थन या उनसे होने वाले फौरी जुड़ाव का एक बड़ा कारण यही है।

अब जब आप जनता को सार्वजनिक रूप से यह बताएं कि आप अमुक-अमुक चीजों के सख्त खिलाफ हैं और बाकी दल उनके बारे में जनता को गुमराह कर रहे हैं या बाकी दलों की कथनी और करनी में अंतर है तो जनता मानती है कि आप उनसे अलग कुछ ऐसा करके दिखाएंगे, जो उसके सपनों के नजदीक होगा।

दो तरह के इंसान बहुत तकलीफ पाते हैं- एक जला हुआ दूसरा छला हुआ। ‘आप’ के इस दोहरे चरित्र से लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं
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लेकिन जब जनता देखती है कि आप कैमरे के सामने कुछ कहते हैं और कैमरे के पीछे समझौतावादी बातें करते हैं तो इस तरह की प्रतिक्रिया आना स्वाभाविक है। साधन और साध्य की पवित्रता तो बहुत-बहुत ऊंची बातें हैं, आप तो अपनी ही बात की विश्वसनीयता पर भी खरे उतरते नहीं लगते।

इस देश की राजनीति में एक वाक्य ने कई नेताओं के करियर को या यूं कहें कि पूरी राजनीति को ही चौपट किया है और वह वाक्य है- ‘सबके सब एक जैसे हैं...’। अब टीवी एंकर से हुई बातचीत को केजरीवाल या ‘आप’ भले ‘ऑफ द रिकॉर्ड’ कहें लेकिन जो कुछ भी हुआ अब वो ‘ऑन रिकॉर्ड’ है।

लोग यह भी जानना चाहेंगे कि या मान लेंगे कि यह तो किसी वजह से बात सामने आ गई वरना आप तो पीठ पीछे जाने कहां-कहां, किस-किस से, क्या-क्या समझौते करते होंगे?

इस घटना को आप कितना ही दबाने या उस पर अपने हिसाब से लीपापोती करने की कोशिश करें लेकिन पीठ के पीछे या बगल में भगतसिंह का फोटो लगाकर इंटरव्यू देने से कोई क्रांतिकारी नहीं हो जाता।

क्रांतियां इस तरह के दोमुंहेपन से होती भी नहीं हैं। आप यदि सत्य के मार्ग पर हैं तो जनता आपसे उम्मीद यही करती है कि आप जो सामने हैं वही पीठ पीछे भी रहें। जैसे कैमरे के सामने हैं, वैसे ही जीवन में भी रहें। वरना आपका तो कुछ नहीं जाएगा... जिस जनता ने इतने सालों बाद हालात सुधरने की उम्मीद बांधी है वो टूट जाएगी।

याद रखिए.. दो तरह के इंसान बहुत तकलीफ पाते हैं- एक जला हुआ दूसरा छला हुआ। ‘आप’ के इस दोहरे चरित्र से लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं, इसलिए उस पर इतनी प्रतिक्रिया हो रही है।

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