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कांग्रेस की दोहरी चाल से भड़की तेलंगाना की आग

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स्मिता मिश्रा

, मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014 (13:06 IST)
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कुछ महीने पहले मैंने कांग्रेस के एक बड़े नेता से बात की। यह नेताजी दक्षिण की कांग्रेस की रणनीति के अहम किरदार हैं। यह वो समय था जब पहली दफा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन किरण कुमार रेड्डी ने तेलंगाना के गठन के विरोध में सीधे सोनिया गांधी के नेतृत्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था। जब मैंने नेताजी से पूछा की इतना बड़ा दुस्साहस करने के बाद क्या रेड्डी को निकाला नहीं जाएगा, तो नेताजी का सवाल हैरान करने वाला था। उन्होंने बताया कि वह रेड्डी को कैसे निकाल सकते हैं जब रेड्डी वही कर रहे हैं जो पार्टी ने उनको करने की हिदायत दी है।

उसके बाद से लगातार आंध्र के हालत बिगड़ते चले गए। पिछले गुरुवार को संसद में जो कुछ हुआ वह इसी रणनीति का नतीजा था। संसद में जो मिर्च का स्प्रे किया गया, उसकी जलन देश भर ने महसूस की। लेकिन मिर्च छिड़कने वाले को जिम्मेदार ठहराते वक्त हम उन लोगों को जिम्मेदारी से बरी कैसे कर सकते हैं जिन्होंने हालत को इस शर्मनाक स्थि‍ति तक पहुंचाया है।

आंध्र के जटिल हालात और तेलेंगाना के गठन में हो रहे बवाल को समझने के लिए कुछ साल पीछे जाना जरूरी है। 2009 में ऐतिहासिक बहुमत से मुख्यमंत्री बने वाईएसआर रेड्डी के अकस्मात् मृत्यु से आंध्र की राजनीति में काफी उथल पुथल हुआ। तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता के चंद्रशेखर राव ने नवंबर 2009 में आमरण अनशन शुरू कर दिया। केसीआर कहीं तेलंगाना क्षेत्र में कांग्रेस की जड़ न खोद दें, इस डर से केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम ने तेलंगाना बनाने का एलान कर डाला। लेकिन हालात ठंडे पड़ने पर कांग्रेस ने अपने हाथ पीछे खींच लिए। जिससे भावनाएं और भी भड़क गईं।

तेलंगाना आंदोलन का केंद्र उस्मानिया कैंपस जल उठा। गांव-गांव में इस आग की आंच फैल गई। तभी से कांग्रेस तेलंगाना पर एक कदम आगे, दो कदम पीछे का खेल खेलती आई है। उसी का नतीजा है की आज सीमांध्र की जनता कांग्रेस नेतृत्व को अपने दुश्मन के रूप में देखने लगी है। जबकी बार बार उनकी उम्मीदों और उमंगों को हवा देकर हाथ पीछे खींचने के चलते अब कांग्रेस की जयजयकार करने वाले तेलंगाना के लोग भी कांग्रेस नेतृत्व को लेकर सशंकित हो गए हैं। उनके मन में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या कांग्रेस सचमुच तेलेंगाना के सपने को पूरा करेगी?

कभी प्रणब मुख़र्जी कमिटी, कभी श्रीकृष्ण कमिटी और कभी जीओएम के बहाने एक कारगर और स्वीकार्य फार्मूला निकालने का दावा करने वाली कांग्रेस को तेलेंगाना की जनता अब समय काटने वाली पार्टी के रूप में देख रहे हैं।

आखिर ये नौबत क्यों आई? क्योंकि कांग्रेस की रणनीति बनाने वाले कुछ दिग्गजों ने पार्टी आलाकमान को शायद ये समझा दिया की उन्हें कोई ऐसी तरकीब अपनानी चाहिए जिससे प्रदेश के बंटवारे के बाद सीमांध्र भी उनकी मुट्ठी में रहे और तेलंगाना भी। यही वजह है कि एक तरफ पार्टी ने तेलेंगाना के गठन की प्रक्रिया जारी रखी तो दूसरी तरफ इसका विरोध करने वालों को बढ़ावा देती गई। ये अंदाजा लगाया गया की अगर तेलंगाना के नाम पर किरण रेड्डी पार्टी से दूसरी पार्टी भी बना लें तो अक्म से कम वह तेजी से कांग्रेस को ठिकाने लगा रहे जगन मोहन रेड्डी को रोकने में कामयाब हो जाएंगे।

मुमकिन है कांग्रेस ने यह भी सोच लिया कि एक बार जगन को सीमांध्र में सारी सीटें लेने से रोक लिया गया तो बाद में किरण रेड्डी कांग्रेस में वापस आ सकते हैं, आखिर उनका अपना अकेला आधार तो है नहीं। पार्टी ने यह भी गुणा भाग करके देख लिया की अगर रेड्डी अलग पार्टी में रहकर भी कांग्रेस से सहयोग करते रहें तो नुकसान नहीं हैं, बशर्ते वह जगन कि लोकप्रियता को काबू कर लें।

अब हालात यह हैं कि न तो सीमांध्र के लोग इस बंटवारे पर किसी भी फॉर्मूले के मानने को राज़ी हैं और न ही तेलेंगाना की जनता में अब और इंतजार करने का धैर्य। इस बीच जीओएम और बड़े नेताओं के मार्फ़त पार्टी ने सीमांध्र के लोगों को कुछ पैकेज और सहूलियतें देकर बिगड़ी को बनाने का प्रयास किया है। विपक्षी बीजेपी को तेलंगाना के वादे की याद दिलाकर उससे भी साधने की कोशिश हो रही है। लेकिन चुनाव से पहले इस आखिरी संसद सत्र में सरकार को ज्यादा सहयोग करना बीजेपी के लिए भी जोखिम भरा कदम होगा। खास तौर पर ऐसे मुद्दे को लेकर जिसपर संकट पैदा करने की पूरी जिम्मेदारी खुद सत्ताधारी पार्टी की है।

इन हालात में पूरे आंध्र में यह धारणा बैठ गई है की कांग्रेस प्रदेश का बंटवारा करे या न करे, उसने वहां के लोगों के दिलों को हमेशा के लिए बांट दिया है। इसमें अब कोई शक नहीं की तेलंगाना की आग कांग्रेस की दोहरी रणनीति का नतीजा है और अब इस आग को बुझाने का फार्मूला न कांग्रेस को सूझ रहा है और न ही विपक्ष को।

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