कांग्रेस के आधे सांसदों को टिकट नहीं
नई दिल्ली। देशभर में आम आदमी पार्टी (आप) को मिल रहे भारी समर्थन को बड़ी चुनौती मानकर चल रही कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनाव में अपने आधे से ज्यादा सांसदों के टिकट काट सकती है। पार्टी नए और युवा चेहरों पर भाग्य आजमाना चाहती है।
पार्टी के सूत्रों का कहना है कि पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने स्तर से अपने मौजूदा सांसदों का एक सर्वेक्षण कराया है। 'आप' की तर्ज पर कराए गए इस सर्वेक्षण में आम जनता की रायशुमारी की गयी है। सांसद के संसदीय क्षेत्र की जनता से सांसद को लेकर सवाल किए गए हैं। इसके बाद तय किया गया है कि टिकट वितरण में ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशी को प्राथमिकता दी जाएगी।कांग्रेस के उच्च पदस्थ सूत्रों के अनुसार पार्टी हाईकमान को जो जानकारी मिली है उसमें आधे से ज्यादा सासंदों को लेकर जनता में बेहद नकारात्मक छवि उभरी है। माना जा रहा है कि ऐसे नेताओं पर राहुल गांधी दांव नहीं आजमाएंगे। शुक्रवार को स्क्रीनिंग समिति के चेयरमैनों के साथ बैठक में राहुल ने साफ बता दिया कि आपराधिक छवि के दावेदारों पर विचार करने की जरूरत नहीं है। उम्मीदवार का पैमाना केवल और केवल जिताऊ ही न हो बल्कि वह जनता से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ होना चाहिए। इसके साथ ही हर दावेदार पर राहुल की पैनी नजर रहेगी और दो बार चुनाव हारने वाले तथा एक लाख से हारने वाले दावेदारों को टिकट नहीं दिया जाएगा। पिछले विधानसभा चुनाव में भी राहुल ने उम्मीदवार चयन के मामले में सख्ती बरती थी और कहा था कि उम्मीदवारों के बारे में ब्लॉक स्तर की राय को महत्व दिया जाए लेकिन महज खानापूरी के चलते सही रिपोर्ट ऊपर तक नहीं पहुंच पायी। जिसका नतीजा चार राज्यों में कांग्रेस को बुरी तरह मात खाने के रूप में सामने आया। लोकसभा चुनाव में राहुल इस स्थिति के सहन करने को तैयार नहीं हैं। बैठक में कहा गया कि जरूरी नहीं कि दावेदार लंबे समय से कांग्रेस से जुड़ा हुआ हो। यानी कोई जमीनी कार्यकर्ता जिसकी आम जनता में अच्छी छवि है और उसका आपराधिक रिकार्ड नहीं है तो उसके नाम पर भी विचार किया जाए। बैठक में राहुल ने साफ तौर पर संदेश दिया कि खास को नहीं, आम को तरजीह दी जाए। राहुल पार्टी के उम्मीदवारों की लिस्ट को फरवरी में अंतिम रूप देना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि दावेदारों की सूची निर्धारित समय सीमा के भीतर भेजी जाए।
आधुनिक युग में विदेश नीतियां घंटो के हिसाब से परिवर्तित होती है। मौसम के हिसाब से रंग बदलती है। विश्व की हर छोटी बड़ी घटनाओं के साथ समंजित होती हैं। परन्तु हमारी विदेश नीति का तो पता नहीं अंतिम बार कब समंजित हुई थी? जॉन एफ केनेडी ने कहा था कि घरेलू नीतियों की गलतियां हमें हरा सकती हैं किन्तु विदेश नीतियों की गलतियां हमारे प्राण ले सकती हैं। ऐसा ही कुछ भारत के साथ हो रहा है।
आपको जानकार आश्चर्य होगा कि आज भी अमेरिका और इंग्लैंड भारत को सालाना मुफ्त सहायता राशि प्रदान करते हैं। यद्यपि यह धीरे-धीरे कम हो रही है। सन् 2010 में अमेरिका द्वारा दी गयी 126 मिलियन डॉलर की राशि कम होते होते 2014 के लिये 91 मिलियन डॉलर तक घट चुकी है। राशि का अधिकांश भाग चिकित्सा सुविधाएं बढ़ाने के लिये दिया जाता किन्तु यह राशि भारत जैसे देश के लिए नगण्य है। फिर इस राशि को हम क्यों स्वीकार करते हैं? शर्म आती है जब अमेरिकी नागरिक और मीडिया उनकी सरकार से भारत को सहायता देने का कारण पूछता है? अमेरिकी नागरिकों का मानना है कि यह राशि जरूरतमंदों तक नहीं पहुंचती बल्कि प्रशासनिक स्तर पर ही गायब हो जाती है। इंग्लैंड भी 2015 में इन्हीं कारणो से मुफ्त सहायता बंद करे देगा।
प्रश्न यह है कि हमारी सरकार आज और अभी से यह राशि बंद क्यों नहीं कर देती? कौनसे आत्मविश्वास की कमी है ? चीन को देखिये आज अमेरिका और रूस की सामरिक शक्ति का दस प्रतिशत भी नहीं किंतु अपनी दिलेरी से दुनिया को हिला रखा है । चीन की स्वीकृति के बिना किसी देश पर कोई संयुक्त कार्यवाही नहीं होती। हम चीन से कौन कम हैं? केवल हमारे नेतृत्व में वैश्विक मंच से गर्जना करने का साहस नहीं।
विनम्रता शक्तिशाली का गहना होती है किन्तु कमज़ोर की मज़बूरी समझी जाती है। जिसके हाथ में भिक्षा का पात्र है उसको दाता पर गुर्राने का हक़ नहीं होता। अमेरिका में भारत की विदेश सेवा अधिकारी देवयानी खोबरागड़े की दुर्गति से प्रशासन की आंखें खुलनी चाहिए। राष्ट्र अमीर हो या गरीब, नेतृत्व पर निर्भर करता है कि वह राष्ट्र की छवि को विश्व में कैसे प्रस्तुत करता है। परन्तु जिन्हें राष्ट्र की परवाह नहीं वे देवयानी की क्या परवाह करेंगे? इतनी वैज्ञानिक, सामरिक और आर्थिक उपलब्धियों के पश्चात् भी हम याचक की श्रेणी में बने रहने के लिए विवश हैं तो इसका जिम्मेदार कौन?
भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की रक्षा समिति में अपनी सीट स्थाई करने के लिए हर देश के सामने हाथ फैलाये खड़ा है, क्यों? जाहिर है जिस राष्ट्र को अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए पश्चिम का मुंह देखना पड़ता है वह दूसरे देशों की सीमाओं पर लगी आग को बुझाने की जिम्मेदारी कैसे ले सकता है? लेकिन दोस्तों नेतृत्व के ढीलेपन ने अब तो भारत के आम नागरिकों को चैतन्य कर दिया है और यह चेतना नेतृत्व को विवश करेगी और साथ में विश्वास भी देगी विश्व में अपनी यथोचित साख बनाने के लिए जिसके हम योग्य हैं। यह जितनी जल्दी हो जाय इस गौरवशाली देश के लिए हितकर होगा।