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कांग्रेसियों की निगाह अब राहुल पर

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सुरेश बाफना

NDND
नेहरू-गाँधी परिवार के करिश्मे में अपना भविष्य टटोलने वाले अधिकतर कांग्रेसियों की निगाह अब राहुल गाँधी पर है। उनकी धारणा है, गाँधी परिवार का यह नौजवान पार्टी के सुनहरे दिनों को वापस ला सकता है। कांग्रेस नेताओं का एक वर्ग उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राहुल को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपने के पक्ष में है।

उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को महासचिव बनाने की माँग तेज होती जा रही है। उत्तरप्रदेश के प्रभारी महासचिव अशोक गेहलोत का कहना है कि राहुल गाँधी को संगठन में तुरंत जिम्मेदारी दी जानी चाहिए।

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी का कहना है कि राहुल को ही निर्णय लेना है कि वे किस रूप में संगठन में सक्रिय होना चाहते हैं? वर्ष 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद सोनिया गाँधी ने जब डॉ. मनमोहनसिंह को प्रधानमंत्री के रूप में मनोनीत किया था, तब यह स्पष्ट था कि राहुल गाँधी इस राजपरिवार के प्रिंस होंगे।

सरकार के ढाई साल पूरे होने के बाद भी यह गलतफहमी किसी को नहीं है कि डॉ. मनमोहनसिंह का अपना कोई स्वतंत्र वजूद है। आज भी वे अपनी ताकत सोनिया गाँधी के शक्ति-केन्द्र से ही प्राप्त करते हैं। यह मुहावरा सटीक है कि सोनिया गाँधी के बिना कांग्रेस पार्टी व मनमोहन सरकार में पत्ता भी नहीं हिलता है।

पेट्रोल व डीजल के दामों में कटौती करने का श्रेय भी सोनिया गाँधी ने प्रधानमंत्री को नहीं लेने दिया। नैनीताल में आयोजित संयुक्त पत्रकार-वार्ता में सोनिया गाँधी ने ही इस सवाल का जवाब दिया था कि सरकार में कोई भी उपप्रधानमंत्री नहीं होगा।

डॉ. मनमोहनसिंह भी यह दावा नहीं करते कि वे कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की तरह निर्णय लेने में समर्थ हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि सोनिया गाँधी ने मृतप्राय कांग्रेस पार्टी में एक नई जान फूँकी। लेकिन यह भी तथ्य है कि ढाई साल तक केन्द्र में गठबंधन सरकार चलाने के बाद भी सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी का जीर्णोद्धार संभव नहीं हो पाया है।

संकट के समय यदि सोनिया ने कमान नहीं संभाली होती तो कांग्रेस कई गुटों में विभाजित नजर आती। कांग्रेसियों को पार्टी के जीर्णोद्धार का एकमात्र रास्ता राहुल गाँधी के रूप में दिखाई दे रहा है। इस साल जनवरी में हुए हैदराबाद कांग्रेस अधिवेशन में युवा व वृद्ध नेताओं की एक ही माँग थी कि राहुल गाँधी को महासचिव बनाया जाए।

'राहुल लाओ' की माँग का सीधा अर्थ यह है कि सोनिया गाँधी अब कांग्रेस को खोया हुआ जनाधार दिलाने में समर्थ नहीं हैं। विचारणीय सवाल यह है कि क्या राहुल की कमान में कांग्रेस पार्टी उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में 60-65 सीटें जीत पाएगी? हाल ही में स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस की संभावित सफलता पर सवालिया निशान लगा दिया है।

राहुल के संसदीय क्षेत्र अमेठी में ही कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा है। कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं का सुझाव है कि विपरीत हालात में राहुल गाँधी को दाँव पर लगाना उचित नहीं होगा। इसमें कोई शक नहीं है कि देश की जनता में नेहरू-इंदिरा-राजीव परिवार के सदस्यों के प्रति विशेष लगाव है। सोनिया गाँधी ने बड़ी चतुरता के साथ इस पारिवारिक लगाव को अपने साथ जोड़ने में सफलता पाई है। लेकिन जाति, धर्म व क्षेत्रीय आधार पर बँटी राजनीति में परिवार या नेतृत्व का निजी करिश्मा एक सीमा के बाद कारगर नहीं होता है।

पिछले कुछ सालों के दौरान हमने देखा है कि सोनिया गाँधी की जनसभाओं में भारी भीड़ जुटी, पर चुनावी सफलता नहीं मिल सकी। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस व भाजपा के कमजोर होने के बाद राजनीति कई छोटे दलों में विभाजित हो गई है। कांग्रेस का पुराना राजनीतिक फार्मूला पूरी तरह असफल हो गया है। सोनिया-राहुल ने विकास को प्रमुख मुद्दा मानकर कांग्रेस को मजबूत करने का प्रयास किया, किंतु अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

उत्तरप्रदेश में कांग्रेस संगठन की अंदरूनी हालत बेहद असंतोषजनक है। अपनी आंतरिक कमजोरियों को दूर करने की बजाय कांग्रेस के कुछ नेता राहुल गाँधी को सभी मर्ज की दवा के रूप में पेश कर रहे हैं।

कांग्रेसियों को अब भी लगता है कि सोनिया-राहुल की हवा चलेगी और वे विधानसभा या लोकसभा में पहुँच जाएँगे। इसी मानसिकता की वजह से उत्तरप्रदेश व बिहार में कांग्रेसपार्टी आज बुरी स्थिति का सामना कर रही है। उत्तरप्रदेश कांग्रेस का संचालन लखनऊ की बजाय दिल्ली से होता है।

आज की राजनीतिक वास्तविकता को देखते हुए यह निष्कर्ष गलत नहीं होगा कि अगले तीन-चार चुनाव तक कांग्रेस अपने बल पर केन्द्र में सरकार नहीं बना सकती है। पिछले ढाई साल का अनुभव यह बताता है कि कुछ दिक्कतों के बावजूद कांग्रेस गठबंधन सरकार बेहतर ढंग से चलाने में सफल रही है।

कांग्रेस के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि 121 साल पुरानी पार्टी को नए संदर्भों के साथ कैसे जोड़ा जाए? इंदिराजी के नुस्खे पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। कांग्रेस पार्टी देश की ऐसी राजनीतिक मशीन रही है, जिसमें समाज के सभी वर्गों के वाजिब हित सुरक्षित रहे हैं। आज देश का आर्थिक व सामाजिक नक्शा पूरी तरह बदल गया है। समाज के दबे-कुचले वर्गों में नई चेतना आई है तो बड़े पैमाने पर मध्य वर्ग का उदय हुआ है।

पिछले बीस सालों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस पार्टी दबे-कुचले व पिछड़े वर्गों को सत्ता में हिस्सेदारी देने में विफल रही है। आज कई राज्यों में कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ती है, बल्कि कांग्रेस के नाम पर अलग-अलग गिरोह चुनाव लड़ते हैं। पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से राहुल गाँधी कांग्रेस का जीर्णोद्धार कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक न्याय को भी समान महत्व देना होगा। कांग्रेस की परेशानी है कि वह समाज के दबे-कुचले व पिछड़े लोगों का निरंतर जाप करती है, लेकिन जब सत्ता में हिस्सेदारी का मौका आता है तो इन वर्गों को किनारे कर दिया जाता है।

कांग्रेस के सामने सवाल यह है कि क्या राहुल गाँधी इस चुनौती का सामना करने में सक्षम हैं? राजनीतिक चमत्कार की उम्मीद करने वाले कांग्रेसी नेता राहुल गाँधी के साथ अन्याय कर रहे हैं।

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