नक्सली हमला और जमीनी सच्चाइयां
छत्तीसगढ़ में विगत दिनों हुए नक्सली हमले ने कई परिवार उजाड़ दिए। पार्टी विशेष के नेता और उनके सहायक मौत के घाट उतार दिए गए। राजनीतिक रूप से सभी पार्टियों ने अपने-अपने मत और मंतव्य प्रकट कर दिए। फौरी तौर पर समस्या से निपटने और निदान के संकल्प प्रकट कर दिए गए। मीडिया ने लगातार जन आक्रोश के तेवर दिखा दिए।
कुल मिलाकर पूर्व के जख्म हरे हो गए और पहली बार यह भी उजागर हुआ कि पहले भी वर्दीधारी चाहे वह पुलिस के हों या सीआरपीएफ जैसे अर्धसैनिक बलों के जवान हों, नक्सलियों के निशाने पर सदा से रहे हैं और उन्होंने अपने बहुतेरे जांबाज सेवारत रहते खोए हैं। फर्क यह है कि तब इतना आक्रोश देखने में नहीं आया, चूंकि वे लोग एक शासकीय तंत्र का हिस्सा थे। शासकीय तंत्र की अपनी सीमाएं होती हैं। दूसरे मारे गए जवान अधिकांशत: स्थानीय नहीं थे, जबकि वर्तमान हमले में मारे गए लोग गैरसरकारी और स्थानीय थे। शासकीय सेवकों जिनकी पोस्टिंग या स्तानांतरण बस्तर के नक्सली इलाकों में होता है, इन्हीं कारणों के चलते वहां जाना पसंद नहीं करते अन्यथा नौकरी छोड़ देते हैं। बाहरी व्यक्तियों से ज्यादा सुरक्षित स्थानीय व्यक्ति होते हैं। और यह पहली बार हुआ है कि स्थानीय व्यक्तियों पर इतना बड़ा हमला नक्सलियों द्वारा किया गया है।राज्य शासन और उसके खुफिया तंत्र की नाकामी प्रथम दृष्टया सही है, मगर पार्टी विशेष और स्थानीय नेताओं तथा कार्यकर्ताओं का सैलाब जिनके अपने सूचना तंत्र रहते हैं उन तक यह खबर या आक्रमण की तैयारी के आसार न पहचान पाना और अधिक आश्चर्यजनक और सनसनीखेज मामला है। यह सही है कि कांग्रेस के नेता स्व. महेन्द्र कर्मा नक्सलियों के निशाने पर लंबे समय से थे। नक्सली कार्रवाइयों के खिलाफ उन्होंने सलवा जुडूम जैसा जन आंदोलन चलाया था और उसके बाद नक्सलवाद को फैलने से रोकने में मदद देने वाले और खुलकर सामने आए लोगों की आत्मरक्षार्थ हथियारों के लाइसेंस दिया जाना शासन की मदद से संभव हुआ था, मगर 2011 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार शासन पोषित इस कार्यक्रम पर रोक लगा दी गई। दरअसल, मानवाधिकारों के नाम पर कई बार एंटीनक्सल कार्रवाइयां या तो रोक दी गईं अथवा उन्हें अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सका। यह भी कि कई बार नक्सली नेता लचर व्यवस्था के चलते अथवा न्यायालय और न्यायिक प्रक्रिया के तहत मानव अधिकार उल्लंघन या गवाहों के अभाव में छूट गए। ऐसा भी नहीं कि नक्सली कमांडरों या नक्सलियों का सच मीडिया, पुलिस, जनता आदि से छुपा हुआ हो या कि हमारे राजनेता उस सच से वाकिफ नहीं हों। दरअसल, न्यायालय के समक्ष इन बातों को सप्रमाण रखना कोई नहीं चाहता। यह हकीकत है कि छत्तीसगढ़ में चलने वाले विभिन्न उद्योग और औद्योगिक घराने नक्सलियों को बाकायदा माहवारी रुपया देते हैं ताकि उनकी औद्योगिक गतिविधियां और उनके लोग सुरक्षित रूप से अपनी कार्यक्षमता का पूरा उपयोग कर सकें। ठेकेदारों, खदान मालिकों, बड़े ट्रांसपोर्टर्स, बड़े व्यापारी, बड़े हॉस्पिटल आदि सभी से यहां तक कि बड़े बिल्डर्स और कॉलोनाइजर्स से भी नक्सली माहवारी वसूलते हैं। कई सिक्यूरिटी एजेंसियों में नक्सली बतौर गार्ड काम कर रहे हैं, जो कि फुर्सत के समय और खबरें इकट्ठी करने के लिए यह कार्य करते हैं, असल में वे नक्सली मूवमेंट से जुड़े हैं। नक्सलवाद के नाम से एक अघोषित आर्थिक तंत्र पूरे देश में फैला हुआ है जिसे बड़े पढ़े-लिखे लोग इस समय चला रहे हैं। दरअसल, इस ढंग से इकट्ठा किया गया पैसा हथियार खरीद और नक्सली प्रशिक्षण शिविरों को चलाने, संगठन की गतिविधियां बढ़ाने, ग्रामीणों को बहला-फुसलाकर संगठन से जोड़ने और ग्रामीणों को छोटी-बड़ी मदद इस रूप में देने के काम में लिया जाता है ताकि वे भावनात्मक रूप से नक्सलियों को अपना हितैषी मानने लगें और उस पर इनके द्वारा प्रशासन और शासन के खिलाफ भड़काए जाने वाला प्रचार सीधे-सादे ग्रामीणों को नक्सलवाद से जोड़ देता है।
आज भी कई ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जो इनको मसीहा नहीं मानते, मगर इनकी बंदूकों के डर से वे चुप्पी साधे हैं। अव्वल, पुलिस ग्रामीणों की सुनती नहीं और दूसरे ग्रामीण अच्छी तरह जानते हैं कि नक्सलियों के विरोध में खड़े होना यानी गाहे-बगाहे दुश्मनी मोल लेना और नक्सली गोली खाना है, क्योंकि जब नक्सली गांव में आकर हमला करते हैं तब पुलिस वहां नहीं होती।