भारत में अनंत कभी भी आप से ज्यादा दूर नहीं होता। कुछ माह पूर्व मैं एगमोर स्थित प्रसिद्ध मद्रास संग्रहालय गया था। जब मैं चोल युग की एक काँस्य प्रतिमा को निहार रहा था, तो एक अधेड़ दक्षिण भारतीय महिला मेरे पीछे से आई और बिना किसी झिझक के नटराज की उस प्रतिमा पर तिलक लगा दिया।
पहले तो मैं स्तब्ध रह गया लेकिन फिर मुझे अहसास हुआ कि हम दो अलग-अलग संसारों में रहते हैं। मेरा संसार धर्मनिरपेक्ष है, उसका धार्मिक। हम दोनों उस काँस्य प्रतिमा के समक्ष बिलकुल अलग-अलग अपेक्षाओं के साथ खड़े थे। मेरे लिए वह 900 साल पुरानी सुंदर वस्तु थी, उस महिला के लिए साक्षात ईश्वर। मेरे लिए यह सुरुचिपूर्ण आनंद प्राप्ति थी, उसके लिए पवित्र दर्शन।
जो मैंने देखा, उसे वह महिला नहीं देख पाई : आरंभिक चोल काल के एक कलाकार द्वारा बनाई गई अद्भुत काँस्य आकृति। नृत्य करते शिव की आनंदानुभूति को कलाकार ने बखूबी प्रदर्शित किया था। मैं आगे बढ़कर दूसरी काँस्य प्रतिमाओं के सामने से गुजरा और इस बात से बिफर गया कि ये प्रतिमाएँ धूल भरी थीं, इन पर पर्याप्त प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी, इनके बीच पर्याप्त दूरी नहीं रखी गई थी और इनका प्रस्तुतिकरण भी खराब था।
अचानक मुझे अपनी क्षुद्र चिंताओं और मीन-मेख निकालते मस्तिष्क पर शर्मिंदगी महसूस हुई। मैंने मुड़कर उस महिला की ओर देखा। वह अब भी वहीं थी, अपने नृत्य करते ईश्वर के दर्शन करने में मगन। एक ऐसा नृत्य जो सृष्टि की रचना करता है और फिर बिना कोई ताल गड़बड़ाए, समय आने पर इसका विनाश भी करता है। मुझे हम दोनों के जीवन में भारी अंतर का अहसास हुआ। एक ओर उसके धर्मनिष्ठ संसार की उर्वर समृद्धता थी तो दूसरी ओर मेरे थके हुए, कमजोर, संशयी और अधार्मिक अस्तित्व की गरीबी।
मैं उस महिला और उसके ईश्वर की ओर खिंचने लगा। वह शिवजी के दाएँ हाथ में डमरू देखती है और उसकी ध्वनि उसे उद्घोष करती-सी लगती है कि सृष्टि की रचना बस होने ही वाली है। बाएँ हाथ में धारण की गई अग्नि उसे बताती है कि संसार की रचना इस प्रकार की गई थी। निचले दाएँ हाथ की मुद्रा उसे भय से मुक्ति दिलाती है। और उठे हुए बाएँ पैर की ओर इंगित करता उठा हुआ बायाँ हाथ उसकी मुक्ति का प्रतीक है।
मैंने पाया कि ब्रह्मांड में इतना महत्वपूर्ण कार्य करते हुए भी उस महिला के ईश्वर बड़े धीर, बलिष्ठ और मनोहर हैं। मैं शिवजी के परिवार की ओर ध्यान केंद्रित करता हूँ। नन्हा बैल नंदी, जिसकी शिवजी कभी-कभी सवारी करते हैं, गोलमटोल प्रभाविता का धनी है। हाथी के सिर वाले उनके पुत्र गणेश अपनी बेडौल काया के बावजूद प्रेम व सम्मान का भाव जगाते हैं। शिवजी व उनके परिवार के सदस्य छवियों का खजाना हैं। चोल युग के मूर्तिशिल्पों ने इनमें प्राण फूँक दिए हैं और इन्हें दिव्य कौशल से परिपूर्ण कर दिया है। इन्हें दसवीं एवं बारहवीं शताब्दी के बीच तंजोर में राजराजा व राजेन्द्र चोल के संरक्षकत्व में बनाया गया था।
धर्मनिरपेक्षता के साथ यह मेरे असंतोष का एक कारण है। आधुनिक, उदारवादी, अँगरेजी शिक्षित भारतीय बड़ी तेजी से अपने जीवन के धार्मिक आयाम को खोते जा रहे हैं। वे कभी भी अपने जीवन की गहराई एवं समृद्धता को नहीं जान पाएँगे। सेक्यूलर तथा राजनीतिक रूप से सही होने के प्रयास में अँगरेजी भाषी संभ्रांत वर्ग सेक्यूलरवादियों के डर से अपने हिन्दू होने की बात हरगिज नहीं करेगा। दरअसल उस तमिल महिला के सुंदर संसार से हमारे हिन्दू राष्ट्रवादियों को सच्चा हिन्दुत्व सीखना चाहिए और कांग्रेस पार्टी तथा हमारे तमाम धर्मनिरपेक्षतावादियों को धर्मनिरपेक्षता का सच्चा अर्थ समझना चाहिए।
संग्रहालयों, संगीत सभाओं व पुस्तकों की दुकानों के मेरे संसार में सौंदर्य की तलाश तो खूब है लेकिन धर्म के लिए कोई स्थान नहीं है। हम क्षुद्र, मध्यमवर्गीय चिंताओं के अधार्मिक संसार में खो गए हैं। स्पष्ट है कि समकालीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में कोई बहुत बड़ी खामी है, जहाँ हमारे स्कूली पाठ्यमक्रम का बड़ा हिस्सा अब भी अंतर्वस्तु और भाव का दृष्टिकोण से औपनिवेशवादी है।
हमारे सबसे उच्चवर्गीय स्कूल जड़ से उखड़े उत्पाद तैयार करते हैं, जो स्वयं अपनी संस्कृति के बारे में बहुत कम जानते हैं लेकिन पाश्चात्य संस्कृति के बारे में कहीं अधिक जानते हैं और पाश्चात्य लोगों की फीकी प्रतिकृतियाँ भर बनकर रह जाते हैं।
कुछ हद तक इसमें परंपरागत धर्म का भी दोष है, जिसने मूल आध्यात्मिक प्रेरणा को दबा दिया व उसका साधारणीकरण कर दिया। यही नहीं, संगठित धर्मों, खासतौर पर इस्लामिक व हिन्दू कट्टरतावादियों ने हमें और भी अलग-थलग कर दिया है।
मेरे ख्याल से एक प्रामाणिक जीवन का रहस्य चेन्नाई की उस महिला में छिपा है, जिसके रवैए में अस्तित्व की परिपूर्णता की संभावना छिपी है। उसके जैसे लाखों लोगों की बदौलत ही इस बात की संभावना है कि भारत वैश्विक संस्कृति के आक्रमण के बावजूद अपनी जीवनशैली तथा विविधता, सहिष्णुता व आध्यात्मिकता की सभ्यता को बनाए रख पाएगा।
मैं मुख्य द्वार पर मौजूद मुख्य नटराज प्रतिमा पर लौटता हूँ। ईश्वर अब भी ब्रह्मांड को रचने व नष्ट करने के कार्य में मगन नजर आते हैं, लेकिन मुझे कुछ नया भी नजर आता है। उनके उठे हुए बाएँ पैर के नीचे एक गेंदे का फूल है! तो अब जब भी आप संसार से थक-हार जाएँ, तो वह करें जो मैं करता हूँ- किसी संग्रहालय में चले जाइए और सनातनत्व का अनुभव कीजिए।
यदि आप सनातनत्व का अनुभव नहीं करते, तो शायद आप यह जान पाएँगे कि एक लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता का पालन कैसे कराया जाता है। बात सिर्फ उस महिला के रवैए की नहीं है, वर्णनकर्ता के रुख की भी है, जो कि 'दूसरे' के प्रति सम्मान का है। भारत में धर्मनिरपेक्षता तभी सहजता से रह पाएगी, जब हम अत्यधिक परंपरावादी एवं धर्मालु लोगों की संवेद्यता का सम्मान करेंगे। (दास 'मुक्त भारत' के लेखक हैं।)