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निगहबान सवालों के घेरे में

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उमेश त्रिवेदी

मध्यप्रदेश के लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल इन दिनों 'पब्लिक स्क्रीन' पर हैं, लेकिन स्क्रीन का फलक सिर्फ उनके चेहरे तक ही सीमित नहीं है। परिदृश्य पर कई ऐसे चेहरे भी उभरते हैं, जो मध्यप्रदेश की ऐसी विशिष्ट और विशेषाधिकार संस्थाओं के प्रतीक हैं जिन्हें आमजनों के हित में व्यवस्था के शुद्धिकरण के लिए खासतौर से गठित किया गया है। इन संस्थाओं के गठन से यह विश्वास पैदा करने की कोशिश की गई थी कि उनकी निगहबानी में शासन-प्रशासन की धमनियाँ साफ-सुथरी और स्वस्थ रहेंगी।

आजकल इन संस्थाओं के इर्द-गिर्द जो कुछ भी घट रहा है, उसके कारण ये कोशिशें नाकाम होती नजर आ रही हैं। विश्वास के दायरे टूटते महसूस हो रहे हैं। लगता है कि शासन-प्रशासन के भ्रष्ट रोगाणुओं और राजनीति ने इन संस्थाओं को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। पिछले दस-बारह महीनों के राजनीतिक एवं प्रशासनिक घटनाक्रमों के बाद इन संस्थाओं के आसपास जो दल-दल पैदा हो गया है, उससे तत्काल निजात पाना संभव नहीं लगता है। यह दल-दल अकारण पैदा नहीं हुआ है। राजनेता, अधिकारी और इन संस्थाओं के प्रज्ञा-पुरुषों ने मिल-जुलकर इस कृत्य को अंजाम दिया है। नतीजतन लोकायुक्त, कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका के अधिकार और प्रक्रियाएँ एक-दूसरे से टकराकर अँगारे पैदा कर रहे हैं।

यदि घटनाओं पर सरसरी तौर पर निगाह डाली जाए, तो समय का पिछला सिरा ज्यादा दूर नहीं दिखाई देता है। पिछले वर्ष यानी अक्टूबर 2007 में राजनीतिक हलकों में इस बात को लेकर सनसनी फैल गई थी कि मध्यप्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी ने लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल को विधानसभा की अवमानना का नोटिस जारी कर दिया है। यह नोटिस लोकायुक्त की उस कार्रवाई के बाद भेजा गया था जिसके तहत विधानसभा के दो वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ निर्माण गतिविधियों में हुई कथित अनियमितताओं की जाँच की बात कही गई थी। ये निर्माण विधानसभा परिसर में ही हुए थे। लोकायुक्त की इस कार्रवाई को स्पीकर ने गैरवाजिब करार दिया था।

  जिस मामले में मुख्यमंत्री का नाम शरीक हो, उसका चर्चित होना और विवादास्पद होना अस्वाभाविक नहीं है। लोकायुक्त के निर्देश पर प्रकरण दर्ज करते हुए ही मध्यप्रदेश की राजनीति गरमाने लगी। कांग्रेस को विरोधी सरकार के मुखिया पर हमला करने का एक हथियार मिल गया      
इस मामले में स्पीकर ईश्वरदास रोहाणी ने कहा था कि लोकायुक्त की कार्रवाई से वे आहत महसूस करते हैं कि इस प्रकार का कोई प्रकरण विधानसभा के अधिकारियों के खिलाफ दर्ज हो गया है। यह बात समझ से परे है कि एक संस्था विधायिका के कार्यों में इतना गहरा हस्तक्षेप करे। लोकायुक्त के नोटिस के जवाब में विधानसभा की अवमानना की सूचना पर अभी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई है, क्योंकि बचाव में लोकायुक्त ने सुप्रीम कोर्ट की शरण ले रखी है। मसले की संवैधानिक पेचीदगियों को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आगे की कार्रवाई पर रोक लगा दी है।

विधायिका और लोकायुक्त की तकरार अभी थमी नहीं थी कि नवंबर 2007 में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के खिलाफ डम्पर प्रकरण ने सिर उठा लिया। इटारसी के एक कार्यकर्ता की शिकायत पर कोर्ट के आदेश के अनुपालन में लोकायुक्त ने डम्पर-कांड में एफआईआर दर्ज करने के आदेश दिए। यह प्रथम सूचना रिपोर्ट मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, उनकी पत्नी साधना सिंह और चार अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध दर्ज हुई थी।

जाहिर है, जिस मामले में मुख्यमंत्री का नाम शरीक हो, उसका चर्चित होना और विवादास्पद होना अस्वाभाविक नहीं है। लोकायुक्त के निर्देश पर प्रकरण दर्ज करते हुए ही मध्यप्रदेश की राजनीति गरमाने लगी। कांग्रेस को विरोधी सरकार के मुखिया पर हमला करने का एक हथियार मिल गया जिसके सहारे उसने बवंडर मचाना शुरू कर दिया। विधानसभा की कार्रवाई में अवरोध पैदा करने के साथ-साथ कांग्रेस ने सड़कों पर भी आंदोलन को खड़ा करने की कोशिशें शुरू कर दीं।

यहाँ तक कि लोकायुक्त कार्यालय में पुलिस महानिरीक्षक के पद पर विजय यादव के स्थानांतरण को भी मुद्दा बना लिया गया। नेता प्रतिपक्ष ने राज्यपाल को ज्ञापन देकर आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री डम्पर-कांड की जाँच प्रभावित करने की गरज से मनपसंद अधिकारी को लोकायुक्त कार्यालय में पदस्थ करना चाह रहे हैं, जबकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का सीधा-सपाट कहना था कि कांग्रेस राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए लोकायुक्त जैसे संगठनों को चपेट में नहीं लें। वह सड़कों पर राजनीति करे, जनता के बीच वाद-विवाद करे, वे और उनकी पार्टी हर सार्वजनिक फोरम पर इसका जवाब देने को तैयार हैं।

मुख्यमंत्री, लोकायुक्त, स्पीकर के बीच खुले इन मोर्चों के साथ तीसरा मोर्चा सूचना आयुक्त और लोकायुक्त के बीच भी खुल गया। सूचना आयुक्त ने लोकायुक्त के खिलाफ आरोप लगाए और लोकायुक्त ने सूचना आयुक्त को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। दोनों संवैधानिक पदाधिकारियों के बीच विवाद पिछले साल तब शुरू हुआ, जब सूचना आयुक्त पीपी तिवारी ने सूचना के अधिकार के तहत लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल से एक जाँच कार्रवाई की रिपोर्ट माँगी। यह नोटिस सूचना आयुक्त द्वारा रामनारायण राठौर नामक एक कर्मचारी की अपील पर जारी किया गया था। रामनारायण के खिलाफ लोकायुक्त द्वारा भ्रष्टाचार के मामले की जाँच की जा रही थी। इसी जाँच कार्रवाई की रिपोर्ट उसने सूचना के अधिकार के तहत माँगी थी।

सूचना आयुक्त का नोटिस लोकायुक्त को नागवार गुजरा। उन्होंने सूचना आयुक्त के अधिकार को चुनौती देते हुए कहा कि लोकायुक्त सूचना आयुक्त के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसके जवाब में सूचना आयुक्त ने लोकायुक्त को पत्र लिखकर कहा कि सूचना आयुक्त की नियुक्ति केंद्र सरकार के अधिनियम के तहत राज्य सरकार ने की है। उसके खिलाफ कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है, वह भी राज्यपाल की अनुशंसा पर। अन्यथा सूचना आयुक्त को केवल महाभियोग से ही हटाया जा सकता है। साथ ही सूचना आयोग के दायरे से केवल गुप्तचर एजेंसियों और रक्षा मामलों को बाहर रखा गया है। लोकायुक्त इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आता।

लोकायुक्त ने इसका प्रतिवाद किया। सूचना आयुक्त ने यह आरोप भी लगाया कि लोकायुक्त ने उन पर अनुचित दबाव डाला तथा मामले को प्रभावित करने की कोशिश की। इस बीच राज्य सरकार ने नियमों में संशोधन कर लोकायुक्त को सूचना के अधिकार के दायरे में शामिल कर लिया। इसके खिलाफ लोकायुक्त ने हाईकोर्ट में अपील की और स्टे ले लिया है।

व्यवस्था के शिखर-पुरुषों के बीच तनाव की घटनाओं के ताजे क्रम में आज स्वयं लोकायुक्त रिपुसूदन दयाल जनता के सामने जवाबदेही की स्थिति में खड़े हैं। उनके बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने पद का दुरुपयोग करते हुए भोपाल में मप्र हाउसिंग बोर्ड की आलीशान कॉलोनी 'रिवेरा टाउनशिप' में चार बेडरूम वाला शानदार डुप्लेक्स हासिल किया है। किस्सा चार साल पहले शुरू होता है। 20 नवंबर 2003 को रिवेरा टाउनशिप के लिए उनका पंजीयन हुआ था। 16 दिसंबर 2003 को उनका आवेदन स्वीकार किया गया। 24 जनवरी 2004 को उनको डुप्लेक्स कॉर्नर क्रमांक 76 लॉटरी के तहत आवंटित हुआ।

आवंटन के बाद श्रीमती उषा दयाल के आवेदन पत्र पर भवन क्रमांक 76 के स्थान पर भवन क्रमांक 60 आवंटित कर दिया गया। प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के निर्देश पर स्वतंत्र पत्रकार आलोक सिंघई के आवेदन पर लोकायुक्त के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के निर्देश हुए हैं जिसमें स्वयं के लिए नाजायज आर्थिक लाभ प्राप्त करने के अलावा शासन और हाउसिंग बोर्ड को आर्थिक हानि पहुँचाने के आरोप हैं।

लोकायुक्त-मुख्यमंत्री, लोकायुक्त-स्पीकर और लोकायुक्त-सूचना आयुक्त इन तीनों मामलों में लोकायुक्त 'कॉमन-फैक्टर' हैं... क्यों...? लोकायुक्त ने एक साक्षात्कार में कहा है, दागी मंत्रियों और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ उन्होंने जितनी कार्रवाई की है, उतनी किसी ने नहीं की। शायद इसी से बौखलाकर मुझ पर आरोप मढ़े जा रहे हैं। यह एक पहलू है, लेकिन क्या दाल में काला नहीं है। मुख्यमंत्री के खिलाफ मामला दर्ज करना कानूनी मजबूरी हो सकती है, लेकिन क्या स्पीकर और सूचना आयुक्त से टकराव नहीं टाला जा सकता था? सभी पक्ष इसके लिए जिम्मेदार हैं। स्पीकर समझते हैं कि लोकायुक्त को विशेषाधिकार भंग का नोटिस देने के वैधानिक अधिकार कमजोर अथवा नगण्य हैं और लोकायुक्त भी जानते हैं कि वे सूचना के अधिकार के दायरे के बाहर नहीं हैं, फिर यह नासमझी क्यों हो रही है?

आगे धारा 156 (3) के प्रावधानों के तहत एफआईआर दर्ज करने के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की जिन व्यवस्थाओं को लोकायुक्त स्वयं कवच के रूप में इस्तेमाल करना चाहते हैं, वह कवच उन्होंने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को उपलब्ध कराना मुनासिब क्यों नहीं समझा? अपने पूर्वाग्रहों, पूर्व धारणाओं के चलते आज सभी कटघरे में खड़े हैं? उन्हें सोचना चाहिए कि कटघरे में मुख्यमंत्री, लोकायुक्त, स्पीकर या सूचना आयुक्त नहीं, लोगों का विश्वास कटघरे में खड़ा है, लोगों की आस्थाएँ कटघरे में खड़ी है। संवैधानिक संस्थाओं के आसपास राजनीति की गंदी लकीरें लोकतंत्र के आदर्शों, अवधारणाओं और अस्मिता को गंदा करेंगी, जो आमजन के विश्वास की धुरी हैं? शिखर पुरुषों को देखना होगा कि उनके आचरण से कहीं विश्वास की धुरी टूट न जाए। (लेखक नईदुनिया के समूह संपादक हैं।)

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