बाबरी मस्जिद गिराने के लिए हुए कट्टरपंथियों के अयोध्या आंदोलन के दौरान उत्तरप्रदेश में दो नेता शीर्ष पर रहे। मस्जिद गिराने के लिए सड़क से सत्ता तक सब कुछ दाँव पर लगाने वाले भाजपाई कल्याणसिंह को 'भक्तों' ने 'पंडित' कहकर महिमामंडित किया। वहीं कारसेवकों पर गोली चलाने वाले समाजवादी मुलायमसिंह यादव को लोगों ने 'मौलाना' कहकर अल्पसंख्यकों का मसीहा बताने की कोशिश की।
इन दो ध्रुवों में कई समानताएँ रही हैं। दोनों तीस के दशक में पैदा होने के कारण लगभग हमउम्र हैं। दोनों शिक्षक होने के साथ पहलवानी भी कर चुके हैं। दोनों ही 1969 में पहली बार विधानसभा में पहुँचे और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर उत्तरप्रदेश में मंत्री भी एक साथ बने, लेकिन 80 और 90 के दशक में दोनों की राजनीतिक दिशाएँ बिलकुल विपरीत तथा टकराव वाली रहीं।
कल्याणसिंह ने तो बाबरी मस्जिद गिराए जाने पर पूरे गौरव के साथ जिम्मेदारी अपने सिर पर ले ली थी ताकि वफादार पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारियों पर कोई आँच न आए। मस्जिद गिराए जाने के लिए साथ देने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भाजपा ने सांसद इत्यादि के पद देकर पुरस्कृत भी किया। इसमें कोई शक नहीं कि कल्याणसिंह की दृढ़इच्छा के बिना सिंघल-आडवाणी-जोशी-उमा के साथ जुटी हजारों की भीड़ मस्जिद नहीं गिरा सकती थी।
कल्याणसिंह ने मुख्यमंत्री के सिंहासन पर बैठे रहकर दो मुकुट लगा रखे थे। एक मुकुट पहन वे केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट को आश्वासन देते रहे कि बाबरी मस्जिद नहीं गिरने देंगे, लेकिन कमरा बंद होते ही दूसरा मुकुट पहन फोन उठा 'जय श्रीराम' का उद्घोष करते हुए मस्जिद गिराने को तैयार कारसेवकों की सफलताओं के लिए हर इंतजाम कर रहे थे।
इसलिए भाजपा के सत्ता में आने पर उन्हें बड़े पद की उम्मीद रखना गलत नहीं था। वे, राजनाथसिंह, नरेन्द्र मोदी या अरुण जेटली जैसे राष्ट्रीय नेताओं से अधिक वरिष्ठ भी थे। राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का अध्यक्ष बनने की तमन्ना पर भी किसी को आश्चर्य नहीं हो सकता, लेकिन संघ-भाजपा के नए राजनीतिक समीकरणों में वे किनारे होते चले गए। उनकी चालाकियों और निजी जिंदगी के किस्सों से वे विवादास्पद होते चले गए। भाजपा के एक प्रभावशाली गुट ने पहले कल्याणसिंह का इस्तेमाल अटल बिहारी वाजपेयी को गाली दिलवाने के लिए किया और रास्ते में छोड़ दिया। नतीजतन उन्हें पार्टी से जाना पड़ा। कुछ बरस भटकने के बाद उन्होंने फिर भाजपा में शरण ली, लेकिन सत्ता का भरा हुआ मटका नहीं मिला। खीझकर कल्याणसिंह ने अपने सबसे पुराने प्रतिद्वंद्वी मुलायमसिंह यादव के अखाड़े में शरण ली।
राजनीति के अखाड़ों में यह कोई नई बात नहीं है। खासकर पुराने सोशलिस्ट और बहुत से कांग्रेसी मुसीबत के बादल आने पर किसी घोर विरोधी के दरवाजे पहुँच शरण लेने या समझौता करने में संकोच नहीं करते। पुराने वक्त में राजनीतिक धारा, वैचारिक प्रतिबद्धता का थोड़ा बहुत पर्दा रहता था, लेकिन इस बार पंडित-मौलाना की परस्पर चरण वंदना बेहद फूहड़ लग रही है।
पता नहीं चला कि पंडित कल्याण का हिन्दुत्व किस टोकरी से बाहर फेंक दिया गया और मौलाना मुलायम का बहुमूल्य अल्पसंख्यक कार्ड किसी कूड़ेदान में चला गया? बाबरी विध्वंस कांड पर बैठे लिब्राहन आयोग में कल्याणसिंह ने शपथ पत्र देकर दावा किया कि 'अयोध्या में विध्वंस होना ही था और उन्हें इसका कोई अफसोस नहीं रहा।' इसके बाद वे कई ऐसी सभाओं में उपस्थित रह चुके हैं, जिनमें अयोध्या की तरह मथुरा और काशी में मस्जिदों को ध्वस्त करने की आकांक्षाएँ व्यक्त की जाती रही हैं। जो कल्याणसिंह तीन वर्ष पहले सार्वजनिक सभा में 'हर एक हिन्दू के मारे जाने पर प्रतिशोध में कम से कम चार मुस्लिमों को मार देने' का खुला आह्वान करते रहे, वे हरी पगड़ी पहने मौलाना मुलायम के हमनिवाला अल्पसंख्यक समर्थकों की जमात में कैसे फिट हो पाएँगे? इसी तरह मुलायम खेमे में इस अवसरवादिता से उत्पन्ना बेचैनी कैसे दूर होगी? यों मुलायम ने इतनी सफाई दे दी है कि कोई औपचारिक समझौता नहीं हुआ, लेकिन यह तो और भी खतरनाक स्थिति है।
सत्ता के अखाड़े में दोनों पहलवान जातीय झंडे और मिलते-जुलते रंग की लंगोटियाँ पहन करतब दिखाना चाहते हैं। मुलायम और कल्याण की पार्टियों ने एक के बाद एक मौका मिलते ही मायावती के हाथी की आरती उतारकर उत्तरप्रदेश की राजनीति को निकृष्टतम स्तर पर पहुँचाया था। आज वही हाथी कल्याण-मुलायम के रथों को नेस्तनाबूद करने के लिए चिंघाड़ते हुए आगे बढ़ रहा है। अधिक घाटे में मुलायमसिंह ही रहने वाले हैं, क्योंकि वे अयोध्या के बाद मथुरा पर भी 'हिन्दुत्व' का ध्वज फहराने के कल्याणसिंह के सपने को पूरा करने की स्थिति में नहीं हैं।
वर्ष 1990 में मुलायमसिंह ने जो धर्मनिरपेक्ष छवि बनाई थी, वह पिछले कुछ वर्षों के दौरान पर्दे के पीछे होते रहने वाले गुप्त समझौतों से बिगड़ती चली गई है। हालत यह है कि मिली-जुली कुश्ती का हर दाँव आजमाने के बावजूद न कांग्रेस उन पर पूरा भरोसा करती है और न ही भारतीय जनता पार्टी। कल्याणसिंह और उनका परिवार आगामी लोकसभा चुनाव में समाजवादी गाड़ी को कितना धक्का लगा पाएँगे? इसके विपरीत कांग्रेस और कम्युनिस्टों का साथ छूट जाने पर मुलायम को न तो भाजपा की गोदी में बैठकर सत्ता के शिखर पर पहुँचने का आनंद मिल सकेगा, न ही देर सबेर बहन मायावती के समक्ष समर्पण की मजबूरी स्वीकारी जा सकेगी। दोनों पहलवानों ने अखाड़े की मिट्टी ही खराब कर दी है।
सबसे मजेदार स्थिति यह है कि आगामी लोकसभा चुनाव में मुलायमसिंह किसी न किसी रूप में कांग्रेस के साथ समझौता चाहते हैं ताकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में निर्णायक भूमिका न मिल पाए, जबकि कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग उनके पुराने रुख को भूल नहीं पा रहा है। स्वयं मुलायम ने एक अर्से पहले कहा था।