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बाल ठाकरे को दोहराते हुए राज

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हमें फॉलो करें मराठी मानुस
-पुण्य प्रसून वाजपेयी

महाराष्ट्र में राजनीति के लिए दुश्मन चाहिए और राज ठाकरे उसी की संरचना में जुटे हैं। उन दुश्मनों पर हमला करने के लिए राज की सेना धीरे-धीरे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के नाम पर गढ़ी जा रही है। यह मराठी मानुस राजनीति की हकीकत है, जिसे साठ के दशक में बालासाहेब ठाकरे ने शिवसेना के जरिए उभारा और 21वीं सदी में राज ठाकरे उभार रहे हैं।

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राज ठाकरे का उभार महज उच्छृंखल राजनीति की देन नहीं है, न ही 40 साल पहले बालासाहेब का उभार इस तरह की राजनीति से आया था। याद कीजिए बीस के दशक से लेकर चालीस के दशक तक महाराष्ट्रीय नेता भाषा, संस्कृति, इतिहास और परंपरा के नाम पर अलग महाराष्ट्र गठित कराने का प्रयास चलाते रहे।

आजादी के बाद संयुक्तमहाराष्ट्र समिति ने एकीकृत महाराष्ट्र का आंदोलन चलाया और उस दौर में न सिर्फ महाराष्ट्रीय अस्मिता संगठित हुई, बल्कि राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों का विरोध करते हुए विदर्भ के उन जिलों को भी अपने में शामिल करने की कोशिश की, जिनका अलग राज्य बनाने का प्रस्ताव था। फिर सुनिश्चित किया कि मुंबई अलग राज्य न बने। फिर गुजरात को द्विभाषी राज्य के दायरे से बाहर निकलवाने में सफलता प्राप्त की। महाराष्ट्रीय अब भी कर्नाटक के बेलगाम और करवार जिलों का करीब 2806 वर्ग मील क्षेत्र अपना मानते हैं।

गोवा का विलय भी महाराष्ट्र का अधूरा सपना है। असल में आजादी के बाद मराठीभाषियों की स्मृति में दो ही बातें रहीं। पहली शिवाजी और उनके उत्तराधिकारियों द्वारा स्थापित किया गया मराठा साम्राज्य। उसके बाद स्वतंत्रता आंदोलन में तिलक, गोखले और रानाडे जैसे महान नेताओं की भूमिका, जो उन्हें आजादी के लाभों में अपने हिस्से के दावे का हक देती है

मराठी मानुस की महक हुतात्मा चौक से भी समझी जा सकती है, जो कभी फ्लोरा फाउंटेन के नाम से जाना जाता था, लेकिन इस चौक को संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन से जोड़ दिया गया। वहीं गेटवे ऑफ इंडिया पर शिवाजी की घोड़े पर सवार प्रतिमा के मुकाबले पूरे महाराष्ट्र में गाँधी की कोई प्रतिमा नहीं मिलेगी।

असल में शिवसेना ने जब 60 के दशक में मराठी मानुस का आंदोलन थामा और बालासाहेब की राजनीति का दौर शुरू हुआ तब महाराष्ट्र में गुजराती, पारसी, पंजाबी, दक्षिण भारतीयों का प्रभाव मुंबई में था। शिवसेना इस स्थिति को साजिश बताते हुए इससे लड़ने के लिए मराठियों को एकजुट कर अपनी सेना भी बना रही थी।

ठीक इसी तर्ज पर राज ठाकरे भी दुश्मन की ईजाद करते हुए उससे लड़ने के लिए अपनी सेना बनाने में जुटे हुए हैं। इस सेना में युवा मराठी मानुस सबसे ताकतवर हो सकता है, इसका अहसास बाला साहेब को भी रहा और अब राज ठाकरे भी समझ चुके हैं।

60 के दशक में मुंबई में अधिकांश निवेश पूँजी प्रधान क्षेत्रों में हुआ, जिससे रोजगार के मौके कम हुए। फिर साक्षरता बढ़ने की सबसे धीमी दर महाराष्ट्र में थी। इन परिस्थितियों में नौकरियों में पिछड़ना महाराष्ट्रीयों के लिए एक बड़ा सामाजिक और आर्थिक आघात था। बाल ठाकरे ने इसी मर्म को छुआ और अपने अखबार के जरिए महाराष्ट्र और मुंबई के किस रोजगार में कितने मराठी हैं, इसका आँकड़ा रखना शुरू किया।

बालासाहेब ने बेरोजगारी को भी हथियार बनाते हुए उसकी वजह दूसरे राजनीतिक दलों को लचीलापन करार दिया और अगले दौर में कामगारों को साथ करने के लिए वाम ट्रेड यूनियनों पर निशाना साधा। भारतीय कामगार सेना बनाकर एक तीर से कई निशाने साधे। दक्षिण भारतीयों के खिलाफ भी युवा मराठियों में रोष उभारा। इसके बीच जैसे ही ठाकरे ने ट्रेड यूनियन बनाई, कई उद्योगपतियों ने ठाकरे से दोस्ती कर ली।

राज ठाकरे की राजनीति अभी ट्रेड यूनियन के जरिए शुरू नहीं हुई है, लेकिन वे बालासाहेब की ही तर्ज पर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का पैंफ्लेट छपवा कर नौकरी के लिए कामगारों की नियुक्ति को प्रभावित करने लगे हैं। बालासाहेब से इतर राज की राजनीति आधुनिक परिप्रेक्ष्य में उद्योगपतियों से संबंध गाँठकर अपनों के लिए रोजगार और पूँजी बनाने की जगह सीधे पूँजी पर कब्जा करने की रणनीति ज्यादा है।

बाला साहेब के दौर में कामगारों को साथ जोड़ने में खाली नौकरियों पर शिवसैनिक ध्यान रखते थे और फिर कामगार सेना के पर्चे पर फार्म भर कर नौकरी देने के लिए उघोगपतियों को हड़काया जाता था, वहीं राज ठाकरे के दौर में महाराष्ट्र के हर जिले में एमआईडीसी यानी महाराष्ट्र औद्योगिक विकास निगम बन चुका है। बाल ठाकरे राजनीति करते हुए स्टार वेल्यू के महत्व को भी बखूबी समझते थे और अब राज ठाकरे ने भी इसे महत्व दिया है।

बालासाहेब ने युसूफ भाई यानी दिलीप कुमार पर पहला निशाना साधा था तो राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन पर साधा है। बालासाहेब से समझौता करने के लिए शत्रुघ्न सिन्हा को ठाकरे के घर मातुश्री जाना पड़ा था तो करण जौहर को राज के घर कृष्ण निवास जाना पड़ा।

याद कीजिए 1995 में शिवसेना के महाराष्ट्र में सत्ता में आने से पहले की राजनीति। शिवसेना के मुखपत्र में विधानसभा अध्यक्ष का अपमानजनक कार्टून छपा। विधानसभा में हंगामा हुआ। विशेषाधिकार समिति के अध्यक्ष शंकर राव जगताप ने ठाकरे को सात दिन का कारावास देने की सिफारिश की। मुख्यमंत्री शरद पवार ने टालने के लिए और ज्यादा कड़ी सजा देने की सिफारिश कर दी।

पवार के सुझाव पर पुनर्विचार की बात उठी और माना गया कि टेबल के नीचे पवार और सेना ने हाथ मिला लिया है, लेकिन 1995 के चुनाव में बालासाहेब ने पवार को अपना दुश्मन बना लिया और सेना के गढ़ को मजबूत करने में जुटे। विधानसभा चुनाव के ऐलान के साथ ही बालासाहेब ने पवार को झटका दिया और दाऊद इब्राहिम के ओल्गा टेलिस को दिए उस इंटरव्यू को खूब उछाला, जिसमें दाऊद ने पवार से पारिवारिक रिश्ते होने का दावा किया था।

फिर खैरनार के आरोपों को भी पवार के मत्थे सेना जमकर फोड़ा। नतीजतन मुंबई के गृह मंत्रालय पर भगवा लहराने का बालासाहेब ठाकरे का सपना साकार हो गया और शपथ समारोह में वही खैरनार अतिथि के तौर पर आमंत्रित थे, जिन्होंने पवार के खिलाफ भ्रष्टाचार की मुहिम चलाई थी।

संयोग से राज ठाकरे का कद अभी इतना नहीं बढ़ा है कि वह महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का झंडा मंत्रालय पर लहरा सके, लेकिन जिस तर्ज पर कांग्रेस की राजनीति पवार को शह और शिवसेना को मात देने के लिए राज ठाकरे से एक साथ कई चाल चलवा रही है, उसमें आने वाले दिनों में राज को मुश्किल होगा, यह भी तय है।

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