Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

भाजपा में उथल-पुथल का दौर

हमें फॉलो करें भाजपा में उथल-पुथल का दौर

सुरेश बाफना

, बुधवार, 4 जुलाई 2007 (23:31 IST)
सन्‌ 2004 के लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद भाजपा की परेशानियाँ कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। पंजाब, बिहार व उत्तराखंड में सहयोगी दलों के साथ मिली विजय से उत्साहित भाजपा का रथ उत्तरप्रदेश में मायावती के ट्रक से टकराकर चूर-चूर हो गया और फिर गोआ में पराजय का मुँह देखना पड़ा।

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में 125 से अधिक सीटें पाकर भाजपा 2009 के लोकसभा चुनाव में विश्वास के साथ आगे बढ़ना चाहती थी। लोकसभा चुनाव में 160-170 सीटें पाकर भाजपा एक बार फिर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन होना चाहती है।

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी अध्यक्ष राजनाथसिंह की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा दाँव पर लगी हुई थी, तो विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को उम्मीद थी कि अच्छे नतीजों से लोकसभा की डगर आसान हो जाएगी।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार भैरोसिंह शेखावत भी उत्तरप्रदेश के चुनाव नतीजों को उम्मीदभरी नजरों से देख रहे थे। उत्तरप्रदेश की हार को राजनाथसिंह ने हल्के ढंग से लेते हुए कहा कि राजनीति में हार-जीत चलती रहती है, वहीं लालकृष्ण आडवाणी ने हार को काफी गंभीरता से लेते हुए कहा कि आत्म-समीक्षा कर हार के कारणों का पता लगाया जाना चाहिए।

यह अलग बात है कि जिस आत्म-समीक्षा की बात आडवाणी कर रहे हैं, उसकी जरूरत तब भी महसूस नहीं की गई थी, जब वे पार्टी के अध्यक्ष थे। यह ओपन सीक्रेट है कि पिछले कुछ महीनों से आडवाणी व राजनाथ के बीच शीतयुद्ध चल रहा है। पार्टी के भीतर आडवाणी-समर्थकों का कहना है कि उत्तरप्रदेश में हुई दयनीय पराजय के बाद राजनाथसिंह का अध्यक्ष पद पर बने रहना अवांछनीय हो गया है।

वहीं राजनाथसिंह के समर्थकों का कहना है कि आडवाणीजी को इस बात का जवाब देना चाहिए कि उनके द्वारा बड़ी संख्या में जनसभाओं को संबोधित किए जाने के बाद भी उत्तरप्रदेश में दुर्गति क्यों हुई? भाजपा के भीतर आरोप-प्रत्यारोप की यह राजनीति कैंसर का रूप लेती जा रही है। हाल ही पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आडवाणी ने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह को कटघरे में खड़ा कर दिया।

राजनाथसिंह उत्तरप्रदेश को अतीत मानकर भविष्य की तरफ बढ़ना चाहते थे, तो आडवाणीजी का कहना था कि यदि इससे सबक नहीं लिया गया तो भाजपा का भविष्य अंधकारमय है। दिलचस्प बात यह है कि जिस उत्तरप्रदेश ने भाजपा को दिल्ली की कुर्सी पर बिठाया था, आज वही उत्तरप्रदेश भाजपा के लिए गंभीर चिंता का विषय बन गया है।

भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्व हिन्दू परिषद की संयुक्त कोशिश यह रही है कि देश में एक हिन्दू वोट बैंक बनाया जाए। राम जन्मभूमि, राम सेतु व मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे मुद्दों के माध्यम से भाजपा-संघ परिवार हिन्दुओं को एक राजनीतिक ताकत के रूप में एकजुट करने का प्रयास कर रहा है।

उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा-संघ परिवार की यह रणनीति न केवल बुरी तरह विफल हुई, बल्कि भाजपा का पारंपरिक ब्राह्मण वोट खिसककर मायावती की झोली में गिर गया। आडवाणीजी की मुख्य चिंता अब यह है कि यदि उत्तरप्रदेश से लगे भाजपा शासित राज्यों में भी मायावती के हाथी ने उथल-पुथल मचा दी तो 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की हालत और भी पतली हो जाएगी।

इस तरह भाजपा के लिए 2009 का सपना काफी धुँधला हो गया है। हिन्दुत्व के प्रचलित नुस्खे विफल हो गए हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में दिए गए भाषण में लालकृष्ण आडवाणी ने आधारभूत व पारंपरिक जनाधार मजबूत करने के साथ समाज के सभी वर्गों में पार्टी का विस्तार करने की बात कही है। यह नोट करने लायक है कि आडवाणी या राजनाथसिंह ने अपने भाषणों में हिन्दुत्व या राम मंदिर का कोई जिक्र नहीं किया।
आडवाणी अब चाहते हैं कि सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक सुधार, शिक्षा, आंतरिक सुरक्षा व विदेश नीति जैसे मुद्दों पर भाजपा के जनाधार का विस्तार किया जाए। उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद विश्व हिन्दू परिषद का शोर फिलहाल बंद हो गया है। विहिप का दावा भी हवाई सिद्ध हो गया है कि उसकी वजह से भाजपा चुनाव जीतती है। संघ को अपनी वैचारिक व राजनीतिक सीमाओं का अहसास हो गया है।

आडवाणी के ठीक विपरीत राजनाथसिंह का सोच यह है कि मतदान केंद्रों के स्तर पर पार्टी की बूथ कमेटियों का गठन कर देने मात्र से पार्टी का कायाकल्प संभव है। राजनाथसिंह का सुरक्षा कवच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है। जिन्ना-प्रकरण के संदर्भ में लालकृष्ण आडवाणी को भाजपा अध्यक्ष पद से जबरन मुक्त करने के बाद संघ ने पार्टी पर अपना शिकंजा काफी मजबूत कर लिया है। केंद्र से लेकर राज्यों में संगठन मंत्रियों के पद पर संघ के प्रचारक नेताओं को बिठा दिया गया है।

भाजपा का अध्यक्ष कौन होगा व उसकी टीम में कौन लोग शामिल होंगे, यह फैसला अब पूरी तरह सरसंघचालक के. सुदर्शन के हाथ में ही है। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी इस बात का अच्छी तरह अहसास है कि जिस दिन नागपुर का समर्थन नहीं रहा, उस दिन वे मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे। ऐसी हालत में यह उम्मीद करना उचित नहीं है कि भाजपा हिन्दुत्व की खोल से बाहर निकलकर आडवाणी की सलाह को स्वीकार करेगी।

भाजपा की हर चुनावी पराजय के बाद संघ परिवार का राग यही होता है कि यदि प्रखर हिन्दुत्व अपनाया होता तो हार नहीं होती। भाजपा की सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि संघ का निरंतर दबाव इसे एक स्वतंत्र राजनीतिक दल के रूप में उभरने से रोकता है। यह दु:खद तथ्य है कि पिछले तीन साल के दौरान केन्द्र में भाजपा एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने में विफल रही है। राजनाथसिंह के अध्यक्ष बनने के बाद शिखर स्तर पर गुटीय तनाव काफी बढ़ गया है।

भाजपा-समर्थक एक वरिष्ठ पत्रकार का सुझाव है कि राजनाथसिंह को अपनी विफलता स्वीकार करके अध्यक्ष पद लालकृष्ण आडवाणी को सौंप देना चाहिए। 2009 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अगले साल भाजपा शासित मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात व कांग्रेस शासित दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा की एक और अग्निपरीक्षा होगी।

भाजपा के लिए एक दु:खद सचाई यह भी है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बिखरता नजर आ रहा है। एक बड़ी पार्टी के रूप में यदि भाजपा की ताकत कमजोर हुई तो राजग के बिखरने की प्रक्रिया और भी तेज हो जाएगी।

फिलहाल सत्ता का जोड़ राजग को जोड़े हुए है। राजग में सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा की जिम्मेदारी है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के खिलाफ खुद को एक वास्तविक विकल्प के रूप में पेश करें। यदि ऐसा नहीं होता है तो 2009 में उत्तरप्रदेश फिर से दोहराए जाने का खतरा भाजपा के सामने होगा।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi