जब भी चुनाव नजदीक आते हैं तो कुछ राजनीतिक दल मुसलमानों की भलाई का ढिंढोरा पीटने लगते हैं और दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ इसलिए विरोध करती है कि थोक में हिन्दू वोट उनकी झोली में गिर जाएँ। दिक्कत यह है कि हमारे राजनीतिक दल स्वार्थ के गलियारे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते हैं। उनकी निगाह सिर्फ कुर्सी पर होती है।
उन्नसवीं सदी में प्रसिद्ध ब्रिटिश प्रशासक मोन्स्टुआर्ट एलफिंसटन ने 'मुस्लिम समुदाय के पिछड़े वर्गों के विकास के लिए विशेष कार्रवाई' की बात कही थी। कुछ लोगों ने इसे फूट डालो और राज करो की नीति का हिस्सा बताते हुए इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का हिस्सा कहा। फिर जब 1935 में दलित हिन्दुओं के साथ दलित मुसलमानों को भी आरक्षण की सुविधा दिए जाने संबंधी कानून बना, तब भी यह कहा गया कि मुसलमानों का विशेष उल्लेख करके उन्हें खुश करने का प्रयास किया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी पर तो आजादी से पहले और इसके बाद मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगातार लगते रहे हैं। इंदिराजी ने जब डॉ. गोपालसिंह के नेतृत्व में अल्पसंख्यकों, परिगणित जातियों और अनुसूचित जातियों के लिए समिति का गठन किया था, तब भी मुस्लिम तुष्टिकरण को इसका एक उद्देश्य माना गया था। जब इस समिति ने यह कहा कि'यदि हम अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा का प्रभावशाली अंग बनाना चाहते हैं तो उनमें यह एहसास जगाना ही होगा कि उनके प्रति भेदभाव नहीं हो रहा है', तब भी इसे राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित मुस्लिम तुष्टिकरण की एक कोशिश बताया गया था। मतलब यह कि लगभग डेढ़ सौ साल सेमुसलमानों के तुष्टिकरण की नीति अपनाई जा रही है, उससे पहले तो देश में मुसलमानों का राज था ही। तो फिर यह कैसे हुआ कि इस सारे तुष्टिकरण के बावजूद आज भी देश का मुस्लिम समुदाय कुल मिलाकर एक वंचित समुदाय बना हुआ है?
यह सवाल सच्चर समिति की रिपोर्ट के हवाले से भी उठाया जा सकता है। सच्चर की रिपोर्ट विस्तृत आँकड़ों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँची है कि 'विकास के सभी आयामों में (मुस्लिम) समुदाय बाकियों से पिछड़ा है... कुल मिलाकर मुस्लिम एससी/ एसटी से कुछ ऊपर हैं,लेकिन अन्य पिछड़ों से कहीं नीचे हैं।' समिति के सुझावों में एक प्रमुख सुझाव यह है कि (मुसलमानों समेत) वंचित वर्गों की शिकायतों के सदंर्भ में एक 'समान अवसर आयोग' गठित किया जाना चाहिए।
भाजपा और शिवसेना को छोड़कर देश के बाकी लगभग सभी दलों ने सच्चर समिति की रिपोर्ट को सही दिशा में उठाया गया कदम बताया है। भाजपा और शिवसेना को सच्चर समिति का गठन और उसकी रिपोर्ट दोनों में राजनीतिक स्वार्थों की गंध आ रही है और वे इसे मुस्लिम तुष्टिकरण का एक और उदाहरण बता रहे हैं, जबकि देखा जाए तो यह रिपोर्ट इस आरोप को सिरे से खारिज करती है कि आजादी के बाद की कांग्रेस सरकारें मुस्लिमों के प्रति तुष्टिकरण की नीति अपनाती रही हैं।
लेकिन, इसके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपने-अपने समय में वक्त की सरकारें स्वयं को कुछ वर्गों अथवा किसी वर्ग-विशेष का हितैषी सिद्ध करके राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करती रही हैं। हमारे राजनीतिक दलों ने भी ऐसी कोशिशों को छिपाने की कभी कोशिश नहीं की। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर और कभी वर्ग के नाम पर वोट बैंक बनाने की कोशिशें तुष्टिकरण की इसी राजनीति का एक हिस्सा है। मजे की बात यह है कि हर राजनीतिक दल दूसरे पर इस आशय का आरोप लगाता है और स्वयंको इस प्रवृत्ति से मुक्त बताता है। बाबरी मस्जिद कांड इसका क्लासिक उदाहरण है। कौन नहीं जानता कि मस्जिद के ताले खुलवाकर राजीव गाँधी ने हिन्दुओं को प्रसन्ना करना चाहा था और बाद में आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा ने रथयात्रा के माध्यम से न केवल हिन्दुओं का वोट बैंक सुरक्षित करना चाहा, बल्कि सांप्रदायिकता की राजनीति को एक नया आयाम भी दिया। इसी तरह कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनों मुसलमानों को रिझाने में लगे रहे हैं। आज स्थिति यह बन गई है किसी भी वर्ग के विकास के लिए किसी राजनीतिक दल द्वारा कही गईकोई भी बात दूसरे को राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि लगने लगती है।
विकास की प्रक्रिया में वंचितों, विशेषकर मुसलमानों की हिस्सेदारी की प्रमुखता को रेखांकित करने वाले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह के बयान पर मचा बावेला इसी तथ्य को सामने लाता है। आखिर प्रधानमंत्री ने कहा क्या था? यही न कि 'हमें ऐसी योजना बनानी होगी कि अनुसूचित जातियों, परिगणित जातियों, महिलाओं, बच्चों, अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, को विकास का समान लाभ मिल सके- देश के संसाधनों पर इनका पहला हक माना जाना चाहिए।' इसमें गलत क्या है? परिवार में जो बच्चा कमजोर होता है, उसका ज्यादा ध्यान रखना स्वाभाविक माना जाता है। और यदि कोई पिता अपने चार बच्चों से कहे कि तुम्हारे कमजोर भाई का पौष्टिक भोजन पर पहला हक बनता है, तो इसमें पिता के मंतव्य पर शक करने जैसा क्या है? सच्चर समिति की रिपोर्ट भारतीय समाज के वंचित वर्गों की स्थिति का एक दर्पण है। इस रिपोर्ट के बाद किसी भी सरकार का यह कर्तव्य बन जाता है कि वह समूचे समाज के संतुलित विकास के लिए ऐसे कदम उठाए, ताकि वंचितों को विकास का समानुपातिक लाभ मिल सके। सामाजिक न्याय की हमारी समूची अवधारणा का सार क्या यही नहीं है?
तो फिर संसद में भाजपा ने इस सवाल पर हो-हल्ला क्यों मचाया? यदि वंचितों के सदंर्भ में प्रधानमंत्री का दिया गया भाषण उन्हें उत्तरप्रदेश के आने वाले चुनावों में मुस्लिम वोटों को रिझाने की कोशिश लग रहा है तो क्या भाजपा की निगाहें उत्तरप्रदेश के हिन्दुओं के वोटों पर नहीं हैं? राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवंतसिंह इन दिनों देश के विभाजन के संबंध में एक पुस्तक लिखने की तैयारी में लगे हैं। इस बारे में वे जो कुछ पढ़ रहे हैं, उसके आधार पर उन्होंने कहा है, ऐसी ही बातों से विभाजन की नींव पढ़ी थी 'तब (हिन्दुओं-मुसलमानों)को समान अधिकार देने की बात कही गई थी, अब तो मुसलमानों को वरीयता देने की बात कही जा रही है ...यह भयंकर मुसीबत बुलाने जैसी बात है।'
भयंकर मुसीबत तो यह है कि हमारे राजनीतिक दल दलीय स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहते। चाहे सत्तारूढ़ दल हो या विपक्ष, कुल मिलाकर उनकी निगाहें सत्ता की कुर्सी पर ही लगी रहती हैं। कहने को हम सब एक भारतीय समाज की बात करते हैं, लेकिन भीतर ही भीतरहम कई-कई समाजों में विश्वास करते हैं और इन टुकड़ों का राजनीतिक लाभ उठाने में जुटे रहते हैं। राजनीतिक दलों के बजाय मैंने हम शब्द का प्रयोग इसलिए किया है, क्योंकि कहीं न कहीं दोषी हम सब हैं- हम राजनीतिक दलों को उनकी मनमानी करने देते हैं और अक्सरहम उनका हथियार भी बन जाते हैं। भ्रष्टाचार को लेकर जब कोई कांग्रेसी नेता यह कहता है कि यह विश्वव्यापी प्रक्रिया है, तब हम इसे चुपचाप सह लेते हैं। प्रधानमंत्री की न्यायसंगत बात को जब कोई भाजपा नेता 'अपराध' कहता है, तब भी हम चुप रह जाते हैं। हमारे सांसदसंसद को अखाड़ा बनाते हैं, तब भी हम देखते रहते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सभी राजनीतिक दल अपने-अपने स्वार्थों के मारे हैं, लेकिन जब भी कोई गलत कहे-करे तो आगाह करना जरूरी है। जनतंत्र में जनता की आवाज सर्वोपरि होती है, यह आवाज सुनी जाए, इसका कोई रास्ता हमें खोजना होगा।