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यह 'महामिलन' मंगलमय होगा!

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आलोक मेहता

भारतीय राजनीति के कुछ शुभचिंतकों ने एक नया राग छेड़ा है- भ्रष्ट, आपराधिक, अवसरवादी कुकुरमुत्तों की तरह उभरे नेताओं और छोटे दलों का वर्चस्व रोकने के लिए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को गठबंधन करने के लिए तैयार रहना चाहिए। नेपाल, पाकिस्तान, जर्मनी जैसे देशों में हुए बेमेल गठबंधनों का हवाला भी दिया जाता है। इस बार राजनीतिक शगूफा छोड़ने में विवादास्पद दलालनुमा नेता शामिल नहीं हैं। कुछ अर्सा पहले ब्रिटिश रंग में रचे-बसे मेघनाद देसाई ने एक लेख में इस तरह का सपना बुनने की कोशिश की थी।

पिछले दिनों भारतीय विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि और अटलबिहारी वाजपेयी परिवार के कोर
  यदि पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ता है और भाजपा पाकिस्तानी क्षेत्र के आतंकवादी शिविरों पर बमबारी का फैसला मंत्रिमंडल में कराना चाहेगी, तो क्या प्रणब दा उसी तरह सिर झुकाकर उनकी इच्छा पूरी कर पाकिस्तान से सीधे युद्ध के लिए तैयार हो जाएँगे?      
ग्रुप के सदस्य नामी टीवी पत्रकार रजत शर्मा ने भी कांग्रेस-भाजपा गठबंधन संभावना के लाभ गिनाए। ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के एक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ और कंजरवेटिव पार्लियामेंट ऑफ इंडिया के संस्थापक-संरक्षक डॉ. प्रेम शर्मा ने गत शनिवार को एक मुलाकात होने पर लगभग 20 मिनट इस तरह के गठबंधन का महत्व समझाने की कोशिश की। जिस तरह अमेरिका कुछ अर्से से भारत-पाकिस्तान के एकजुट होकर पहले आतंकवाद से और फिर चीन से लड़ने-भिड़ने की 'नेक सलाह' दे रहा है, उसी तरह राजनीतिक खेल के कुछ योरपीय, अमेरिकी और भारतीय सौदागर दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को 'परिणय सूत्र' में बाँधने की राय दे रहे हैं।

भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में फि लहाल प्रधानमंत्री के महत्वपूर्ण कामकाज की जिम्मेदारी संभाल रहे प्रणब मुखर्जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। वित्त और विदेशमंत्री प्रणब दा इससे गद्गद् हो गए। एक तरफ भाजपा-कांग्रेस के अन्य नेता एक-दूसरे के विरुद्ध गंभीर आरोप लगा रहे हैं, दूसरी ओर बंगाली बाबू प्रणबजी वामपंथियों की पाँच साल पुरानी बैसाखी को किनारे फेंक लालकृष्ण आडवाणी की ड्योढ़ी पर मत्था टेकने पहुँच गए।

दो सप्ताहों की इस नौटंकी को भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के लिए कितना मंगलमय कहा जा सकता है? क्या प्रणब दा और आडवाणी सचमुच चुनाव के बाद मंदिर-मस्जिद के बजाय गठबंधन को मजबूत कर सकने वाली शिलाएँ तैयार कर रहे हैं? ऐसा कर भी रहे होंगे, तो कम से कम वे सार्वजनिक रूप से यह नहीं बताएँगे। संभव है कि वे परदेसी 'शुभचिंतकों' को गठजोड़ की गुप्त मुलाकात का विवरण ई-मेल कर रहे होंगे।

सत्ता के लिए प्रणब दा प्रकाश करात-सीताराम येचुरी, मायावती, लालकृष्ण आडवाणी, मुलायमसिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, भजनलाल, ओमप्रकाश चौटाला, प्रकाशसिंह बादल, उमा भारती, यशवंत सिन्हा और अरुण जेटली तक को 'नमन' कर सकते हैं। इसी तरह डॉ. मनमोहनसिंह जयराम रमेश, मोंटेकसिंह अहलूवालिया, एमके नारायणन (सुरक्षा सलाहकार) वर्षों तक सरकारी सेवा में रहे हैं। चन्द्रशेखर, देवीलाल, अटल बिहारी वाजपेयी के आदेशों के पालन में उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं हुई। इसी तरह भाजपा की ओर से यशवंत सिन्हा, ब्रजेश मिश्र, अरुण शौरी, सुधीर कुलकर्णी जैसे रणनीतिकारों को प्रणब मुखर्जी जैसे कांग्रेसी नेताओं का साथ निभाने में कोई खास कठिनाई नहीं आएगी।

लेकिन यह 'मंगल-मिलन' कितना सार्थक होगा? चुनाव के बाद जरूरी तो नहीं कि भाजपा-कांग्रेस के संभावित महागठजोड़ के सांसद प्रधानमंत्री पद के लिए बेताब प्रणब मुखर्जी या पाँच साल तक किसी भाजपाई को न छेड़ने वाले 'संत' मनमोहनसिंह को ही शीर्ष नेता स्वीकारें, तब क्या सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी, अर्जुनसिंह, पी. चिदंबरम, अहमद पटेल, मणिशंकर अय्यर, मोतीलाल वोरा, अंबिका सोनी, एके एंटोनी भी प्रधानमंत्री के रूप में माननीय आडवाणीजी की आरती उतारने के लिए तैयार दिखाई देंगे? गठबंधन मजबूरी में स्वीकार हो गया, तो सोनिया गाँधी और राहुल की क्या भूमिका होगी?

अहमद पटेल, अर्जुनसिंह, एके एंटोनी, मणिशंकर अय्यर जैसे नेता क्या आडवाणी के मंत्रिमंडल में रहकर बाबरी विध्वंस कांड या गुजरात के नरसंहार की फाइलें खुलवाकर भाजपा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी स्वयंसेवक के खिलाफ दो शब्द भी बोल पाएँगे? कार्रवाई करने की बात तो बहुत दूर की है। वित्तमंत्री मनमोहनसिंह या प्रणब मुखर्जी या यशवंत सिन्हा के रहने पर शायद प्रवर्तन निदेशालय पिछले 10 सालों की वित्तीय गड़बड़ियों की फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल दे, लेकिन दोनों पार्टियों में सक्रिय चंदा लॉबी क्या आसानी से प्रसन्न हो पाएगी?

चुनाव के बाद यदि इस महागठजोड़ के दूसरे घटक कांग्रेस पार्टी का पलड़ा थोड़ा भारी हो गया तो क्या प्रभावशाली पैरवीकार अपने आडवाणीजी की मंडली को सोनिया गाँधी का नेतृत्व स्वीकार कराने में सफल हो पाएँगे? इसी तरह सोनिया गाँधी या एके एंटोनी या पी. चिदंबरम अथवा राहुल गाँधी क्या सत्ता के साझेदार आडवाणी को उपप्रधानमंत्री तथा भाजपा के भावी सूरज नरेन्द्र मोदी को सरकार में गृह मंत्रालय देने के लिए तैयार हो जाएँगे? अर्जुन सिंहजी या मणिशंकर अय्यर क्या पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के मुद्दों को उठाकर उनके लिए अपने एजेंडे को क्रियान्वित कर पाएँगे? ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट को मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में किन भाजपाइयों के सामने सिर झुकाना होगा?

महागठजोड़ होने पर पब कल्चर के विरुद्ध बोलने वाली और सामाजिक खुलेपन की पक्षधर अंबिका सोनी और रेणुका चौधरी को सुषमा स्वराज और सुमित्रा महाजन के साथ रहकर परंपरावादी हिन्दू आदर्शों का कट्टरता से पालन
  केवल परदेसी हितों की पूर्ति करने वाली सलाह को लागू कराने के लिए दिवास्वप्न देखना-दिखाना किसी एक पार्टी के लिए नहीं, पूरे लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है      
करवाने में क्या कोई कष्ट नहीं होगा? फिर वसुंधरा राजे यदि आडवाणी के आशीर्वाद से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो गईं, तो कांग्रेस की महिला नेत्रियों की स्थिति कितनी सुरक्षित रहेगी? इसी तरह संघ और विश्व हिन्दू परिषद के दिशा-निर्देश पर यदि आडवाणीजी और भाजपा अयोध्या में मंदिर निर्माण, काशी-मथुरा के धर्मस्थलों को भी 'गुलामी की पुरानी छाया' से निकालने के लिए 'जयघोष' के साथ काम शुरू करवा देंगे, तब क्या साझेदार कांग्रेस के नेता शंख और तालियाँ बजाने को तैयार होंगे?

यदि पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ता है और भाजपा पाकिस्तानी क्षेत्र के आतंकवादी शिविरों पर बमबारी का फैसला मंत्रिमंडल में कराना चाहेगी, तो क्या प्रणब दा उसी तरह सिर झुकाकर उनकी इच्छा पूरी कर पाकिस्तान से सीधे युद्ध के लिए तैयार हो जाएँगे? दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी महिला आरक्षण, अल्पसंख्यकों के लिए सच्चर कमेटी की व्यापक सिफारिशों के क्रियान्वयन पर फैसला करने लगेगी, तब भी क्या गठजोड़ के भाजपाई 'संत' जयकार के लिए तैयार होंगे? नए गठजोड़ में विकास का मोदी मॉडल चलेगा या गाँधी मॉडल?

अमेरिका के साथ रिश्ते पर तो दोनों पार्टियों को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन लाल चीन और कम्युनिस्ट रूस के साथ रिश्ते मजबूत करने के मुद्दे पर क्या सहमति बन पाएगी? समान सिविल कोड के भाजपाई मुद्दे पर क्या सोनिया-राहुल गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी आँख मूँदकर समर्थन देने की स्थिति में होगी? कांग्रेस या भाजपा में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं पर सीबीआई कार्रवाई के लिए कैसे सहमति बनेगी?

निश्चित रूप से जमीनी आधार वाले राष्ट्रीय दलों के अच्छे संगठनात्मक कामकाज से राजनीतिक स्थिरता आ सकती है। उनके कार्यक्रम भी व्यापक राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर तैयार हो सकते हैं, लेकिन दो अलग-अलग दिशाओं की ओर दौड़ने की कोशिश करने वाले सारथियों से क्या भारत के असली विकास लक्ष्य को सफल बनाया जा सकता है? केवल परदेसी हितों की पूर्ति करने वाली सलाह को लागू कराने के लिए दिवास्वप्न देखना-दिखाना किसी एक पार्टी के लिए नहीं, पूरे लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है।

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