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यह युद्ध नहीं लोकतांत्रिक प्रक्रिया है जनाब!

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अनिल सौमित्र

16वीं लोकसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यह न युद्ध है और ना ही किसी पार्टी के लिए अंतिम है। जैसा कि गत विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नारा दिया था- 'यह युद्ध आर-पार है, अंतिम यह प्रहार है'। युद्ध और प्यार में भले ही कोई प्रयास अंतिम और आर-पार होता हो, लेकिन राजनीति में आर-पार या अंतिम जैसा कुछ भी नहीं होता। राजनीति में इस तरह की नारेबाजी अशोभनीय कही जाएगी। हालांकि आज की राजनीति में अशोभनीय बातों को भी जायज मान लिया जाता है। इसके पीछे तर्क यह दिया जाता है की युद्ध, प्यार और राजनीति में सब जायज है।

 
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रामायण और महाभारतकालीन युद्धों में भी नीति और नियम का पालन देखने को मिलता है। छल-प्रपंच वहां भी था, लेकिन अपवादस्वरूप। आज तो हम लोकतांत्रिक युग की बात कर रहे हैं। जब युद्ध में नीति, नियम और सिद्धांतों की बात की जा सकती है तो लोकतांत्रिक पद्धति में अनीति, षड्यंत्र, छल-प्रपंच को अपवाद माना ही जा सकता है। राजनीतिक और बौद्धिक जमात को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि युद्ध और लोकतंत्र एक साथ नहीं चल सकते। इसलिए अगर भारत में चुनाव लोकतांत्रिक है तो आप इसे युद्ध की शैली में कैसे लड़ सकते हैं। अगर गत चुनाव में भाजपा-कांग्रेस आरपार या अंतिम लड़ाई लड़ रही होती तो किसी एक को ख़त्म हो जाना चाहिए था, लेकिन वे फिर से चुनावी मैदान में हैं। आगे भी रहेंगे।

किन्तु, यह एक राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। इस लिहाज से तो सभी दलों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए और लोकतांत्रिक बनने में एक-दूसरे की मदद करनी चाहिए। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष दोनों का सशक्त होना जरूरी है। चुनावी द्वंद्व में योजना, रणनीति, प्रबंधन और प्रयत्न सब जरूरी है, लेकिन यह सब करते हुए सभी पक्षों के लिए मर्यादा, नीति, परस्पर सम्मान, भाषा संयम और अहिंसा का पालन जरूरी है। इसी तरह राजनीतिक दलों को विभिन्न समस्याओं पर अपने विचार स्पष्ट करना चाहिए। दलों की विचारधारा जनता के समक्ष स्पष्ट हो, लेकिन वर्तमान स्थिति उलटा ही है। अमूमन सभी दल विचारधारा से परे हो गए हैं, जबकि कुछ दल सांप्रदायिकता जैसे नकारात्मक मुद्दों पर लामबंदी की कोशिश कर रहे हैं। दलों में अंतर कम हो गया है। राजनीति में मुद्दों और विचारधारा का क्षरण अशुभ संकेत है। कार्यशैली, विचारधारा और मुद्दों पर नीति से ही दलों में फर्क किया जाता है, लेकिन जब यही सब लुप्त हो तो जनता दलों में अंतर कैसे करे? कैसे वह एक का वरण करे? लगभग सभी दलों ने संगठन, विचारधारा और मुद्दों को पीछे धकेल व्यक्ति को आगे कर दिया है। व्यक्तित्वों के आभामंडल ने पार्टी की छवि का हरण कर लिया है। नीति, नियम और नियमन पर प्रबंधन हावी है। भारत में चुनाव अब भारतीय पद्धति से नहीं, बल्कि अमेरिकी तरीके से लड़ा जा रहा है। प्रचार में नकारात्मकता और चरित्रहनन का बोलबाला है।

चाहे उदार आर्थिक व्यवस्था का प्रभाव हो या राजनीति पर बाजार का प्रभाव हो, राजनीति में धन-बल, प्रबंधन, हिंसा और छल-प्रपंच का चलन बढ़ा है। इसी प्रकार विचारधारा, नीति और कैडर-कार्यकर्ता का ह्रास हुआ है। यह वर्तमान राजनीति में एक नई प्रवृत्ति है। पार्टियों में कार्यकर्ताओं के लिए कोई काम नहीं है। विपक्षी दलों के कार्यकर्ता तो कभी-कभार विरोध प्रदर्शन या पुतला दहन जैसे आयोजन कर भी लेते हैं, लेकिन सत्ताधारी दल के कार्यकर्ता सालभर क्या करें? सत्ता संचालन में भी कुछ ख़ास नेता-कार्यकर्ता ही सक्रिय हो पाते हैं। इसीलिए राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता हमेशा असुरक्षित रहते हैं। चुनाव के समय जो थोड़ा-बहुत काम होता था उसे भी पीआर और प्रबंधन एजेंसियों ने हड़प लिया। राजनीति में तकनीक, जनसंचार माध्यमों और नये मीडिया के बढ़ते प्रभाव से भी कई समस्याएं पैदा हो गई हैं। राजनीति में विकेंद्रीकरण की बजाय केन्द्रीकरण बढ़ा है। लोकतंत्र में तंत्र सुदृढ़ हुआ है, लोक कमजोर। मुद्दे गुम हो गए और नेता नारेबाजी में फंस गए। विचारधारा हवा हो गई।

आसन्न चुनाव में मोदी हैं, राहुल हैं और केजरीवाल हैं, नहीं हैं तो वे मुद्दे और विचारधारा जिसकी दुहाई राजनीतिक दल देते रहे हैं। देश का राजनीतिक परिदृश्य अगर मोदीमय और आपमय हो गया है तो इसमें जनचेतना की नहीं धनचेतना की भूमिका है। करोड़ों-अरबों का ठेका लेकर पीआर और मीडिया एजेंसियां राजनीति को अलोकतांत्रिक और केंद्रीकृत बना रही हैं। परम्परागत मीडिया परिदृश्य से गायब है। संचार तकनीक ने राजनीति और नेताओं को बहुआयामी बना दिया है। बहुआयामी मोदी जनता को आकर्षक तो दिख रहे हैं, लेकिन समझ से परे हैं।

इसी मीडिया ने मोदी के प्रति अंधी धारणाएं बना दी हैं। जहां भावनाएं तो हैं, लेकिन वास्तविकता और जमीनी सच्चाई नहीं। मोदी समर्थक इस तथ्य को नजरअंदाज करने लगे हैं कि भारत में संसदीय लोकतंत्र है। प्रधानमंत्री बनने के लिए पर्याप्त सांसद चाहिए। सांसद बनने-बनाने के लिए वोटों की जरूरत होगी। क्या मीडिया ने इतनी और इसी हवा बना दी है की मोदी के नाम पर किसी भी, कैसे भी उम्मीदवार को मत मिल जाए। अगर मोदी, राहुल, जयललिता, ममता, केजरीवाल जैसों में से किसी एक को चुनना होता तो बेशक अधिकांश जनता मोदी को पसंद करती, उसे ही अपना वोट देती, लेकिन न तो चयन प्रक्रिया इतनी आसान है और ना ही पसंद के प्रधानमंत्री के नाम पर नापसंद उम्मीदवार को वोट देना। फिर यह नारा कितना जायज है - कांग्रेसमुक्त भारत! धारणा यह भी बन रही है की भाजपा खुद कांग्रेस की शक्ल लेती जा रही है। फिर भाजपा कांग्रेसयुक्त और देश कांग्रेसमुक्त कैसे होगा! कई बार ऐसा भी होता है कि लोग कांग्रेस और राहुल से मुक्ति चाहते हैं, लेकिन स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के उम्मीदवार को पसंद करते है।

जाति, पंथ, सम्प्रदाय, व्यक्तित्व और व्यवहार के कारण कई बार उम्मीदवार सब बातों पर भारी पड़ता है। इसका कोई उपचार मोदी भक्तों के पास शायद ही होगा। तो जनाब मीडिया निर्मित अंधभक्ति, अति आत्मविश्वास, विद्रूप धारणाएं, हवाबाजी, खुशफहमी, मुगालता और अति उत्साह छोड़िए, लोकतंत्र के पर्व को युद्ध मत बनाइए। देश को कांग्रेसमुक्त करने की बजाय, भाजपा को कांग्रेसमुक्त बनाइए। जो अपने हैं, जो छूट रहे हैं, उन्हें भी गले लगाइए। वर्षों से सीख मिली है, जितना भी सीखा है, उसके आधार पर लकीर को छोटी करने, मिटाने की बजाय एक बड़ी लकीर खींचकर मिसाल बनाइए। तो जनाब! यह समझिए और समझाइए की लोकसभा का चुनाव युद्ध नहीं, लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। (लेखक मीडिया एक्टिविस्ट हैं)

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