'हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा' ऐसा कहने और सुनने वाले तो हजारों लोग हमारे आसपास होंगे परंतु इस गीत की पंक्तियों को आत्मसात कर राष्ट्रभाषा को अपना सम्मान मानकर हिंदी व्यवहारिक जीवन में प्रयोग करने वाले चुनिंदा लोग ही होंगे। तभी तो कहते हैं कहने, सुनने और ज्ञान देने में कोई श्रम नहीं लगता परंतु किसी चीज को आत्मसात करने में आदमी की जिंदगी खप जाती है।
भाषा है हमारी पहचान : भाषा को जहाँ हम विचारों के आदान-प्रदान का माध्यम मानते हैं, वहीं दूसरी ओर इसे हम अपनी पहचान भी मानते हैं। भाषा का जुड़ाव मनुष्य से आज से नहीं बल्कि कई हजारों सालों से है। हर व्यक्ति की पहचान जिस तरह से उसका नाम होता है, उसी प्रकार से किसी मुल्क की पहचान उसकी भाषा होती है।
कहने को हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है परंतु आज हिंदी बोलने का महत्व केवल तिलक लगाकर औपचारिकता पूरी करने जितना ही रह गया है। एक वह दौर था जब अँगरेजी शासन की जड़ों को हिलाने के लिए हिंदी ने अखबारों, गीतों व आंदोलनों की शक्ल में एक नए युग का सूत्रपात किया था व देश से अँगरेजों व अँगरेजी दोनों को ही दूर कर दिया था परंतु इसके विपरीत एक आज का युग है जिसने राष्ट्रभाषा को अतीत के गर्भ में दबाकर अँगरेजी को अपनाकर विदेशी संस्कृति व अराजकता को भारत में ठहरने व पनपने का मौका दिया है।
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हिंदी बोलने पर मिलेगी सजा : हिंदी को जहाँ हम अपना अभिमान और अपनी राष्ट्रभाषा कहते हैं वहीं किसी विधायक को मराठी की बजाय हिंदी में शपथ लेने पर अपमानित व प्रताड़ित करते हैं, जबकि होना इसके विपरीत चाहिए था, ऐसा क्यों? क्या 'मराठी मानुष' हिंदुस्तान के नागरिक नहीं हैं? क्या भारत की राष्ट्रभाषा बोलना आज भारत में ही अपमान की बात बन चुकी है? ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न आज हमारे मन के सागर में लहरें बनकर उठ रहे हैं।
यदि यही आलम रहा तो कल को हमें यह सुनने को मिले कि हिंदुस्तान का राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री कोई विदेशी व्यक्ति है तो यह सुनकर चौंकिएगा मत क्योंकि अब तो यही सबकुछ होने वाला है। जिस तरह से दबे पाँव हमने विदेशी कल्चर को अपनाया है उसी तरह आज हम विदेशी भाषा को भी अपना रहे हैं और कल को विदेशियों को भी अपनाएँगे।
क्या कागजी बन गई है हिंदी : देश की राष्ट्रभाषा हिंदी आज के दौर में महज कागजों पर ही सिमटकर रह गई है और 'हिंदी दिवस' बस भाषणबाजियों का दिवस बन गया है। यदि आप किसी बैंक में जाएँ तो वहाँ हर जगह लिखा होता है 'केवल हिंदी का ही प्रयोग करें' परंतु उसी बैंक में सभी संव्यवहार अँगरेजी में होते हैं। बैंक में जहाँ कम्प्यूटर पर अँगरेजी का प्रयोग होता है वहीं उसी बैंक में चैक व हस्ताक्षर के रूप में खानापूर्ति भी अँगरेजी में ही होती है। फिर बेचारी हिंदी को तख्तियों पर क्यों लटकाया जाता है, यह बात अब तक समझ से परे है।
हिंदी भाषा आज केवल साहित्यकारों की ही पहचान बनी हुई है, जिनकी लेखनी इसे अब तक निरंतर प्रवाहमान बनाए हुए है। अगर ये साहित्यकार भी इसका परित्याग कर देंगे तो शायद हिंदी कागजी संव्यवहार की भाषा कहलाने का मान भी खो देगी।
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शर्म करो देशवासियों : महाराष्ट्र विधानसभा में अबू आजमी का जो हाल हुआ वह हाल कल आपका और मेरा भी हो सकता है। हो सकता है तालिबानी हुकूमत की तरह हमारे देश में भी 'मनसे' की हुकूमत चले और सभी देशवासियों को मराठी सीखनी और बोलनी पड़े।
हो सकता है सार्वजनिक स्थलों पर हिंदी में बातचीत करने वाले को प्रताड़ना व अपमान का शिकार होना पड़े। यदि 'मराठी सर्वोपरि' को लेकर चली जंग आगे भी छिड़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब सारी प्रादेशिक भाषाएँ एक-दूसरे से सर्वोपरि व सर्वमान्य कहलाने के चक्कर में अपना अस्तित्व ही खो दें और देश की राष्ट्रभाषा हिंदी अपनी बदहाली और बेबसी पर आँसू बहाए।
राष्ट्रभाषा का अपने ही देश में अपमान, यह हर भारतवासी के लिए एक शर्मनाक बात है। यदि हम स्वयं को भारतवासी कहते हैं तो हमें देश के गौरव को बचाना होगा तथा बोलचाल व संव्यवहार में हिंदी को अनिवार्य रूप से शामिल करना होगा। देश को आज उन नौजवानों की आवश्यकता है, जो देश को जोड़े रखने में अपना योगदान दें न कि भाषा और संप्रदाय के नाम पर देश को तोड़ने का प्रयास करें।