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विध्वंसक वित्तीय संकट के संकेत

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विष्णुदत्त नागर

यह कहावत कि इतिहास बार-बार अपने आपको दोहराता है, आज पुनः साबित हो रही है। वित्तीय संकट के वैश्विक वर्तमान दौर ने समाजवादी चिंतक लेनिन और नेपोलियन के टीकाकार की याद दिला दी। लेनिन के शब्दों में, 'पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में हर आने वाला वित्तीय संकट पिछले के मुकाबले में अधिक गहरा और घातक सबित होगा।' इतिहास साक्षी है कि 1906, 1989, 2001 और 2008 में आए वित्तीय संकट अमेरिका के संकट ही नहीं रहे, बल्कि दुनिया के चिंता के विषय बन गए।

नेपोलियन के टीकाकार ने टीका की थी कि क्रांति ने नेपोलियन को जन्म दिया, नेपोलियन
  अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन के अनुसार अमेरिका में वित्तीय व्यापार अत्यंत खोखला हो गया है। वैश्विक बाजारों में यह गलतफहमी बेची जा रही है कि संकट का दौर गुजर चुका है जबकि सच्चाई यह है कि सबप्राइम ऋण का अभी दूसरा अधिक घातक दौर दूर नहीं है      
ही क्रांति का स्वामी बना और बाद में वही शिकार हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटनवुड में जन्मी विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी नई वैश्विक संस्थाओं ने डॉलर को पुनर्जन्म दिया। वही डॉलर वैश्विक पूँजी का स्वामी बना। विश्व के 80 प्रतिशत सौदे डॉलर में हुए और प्रमुख वैश्विक मुद्रा के रूप में वैश्विक या वित्तीय व्यवस्था का प्रमुख निर्धारक बना, लेकिन बाद में उसी वित्तीय संकट का शिकार हुआ जिसने इसको जन्म दिया था।

भारत के पाँच बाजारों- शेयर, ऋण, मुद्रा, विदेशी मुद्रा और पूँजी बाजारों को विदेशी पूँजी ने पाला-पोसा, वही उनकी स्वामिनी बनी और उसी ने प्रकारांतर से पाँचों बाजारों का शिकार किया। देश के शेयर बाजार ताश के पत्तों की तरह गिरने के कारण डॉलर के मुकाबले रुपए का मूल्य गिरा और विदेशी निवेशकों द्वारा भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा निकालने के कारण 294 अरब डॉलर से गिरकर 273 अरब डॉलर रह गया। विदेशी मुद्रा भंडार में मार्च से अब तक 35 अरब डॉलर की कमी आई। गत शुक्रवार को ही सेंसेक्स 10 हजार अंक से नीचे आने के कारण देश के 10 बड़े औद्योगिक घरानों को 140 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

असल में विदेशी पूँजी की तरलता और वाष्पशीलता दोनों ही पाँचों बाजारों के लिए चिंता का विषय रही है। 24 जुलाई, 2006 के बाद सेंसेक्स पहली बार 10 हजार अंक से नीचे आ गया। वर्ष के आरंभ में एक ओर अत्यधिक पूँजी प्रवाह की तरलता से शेयर बाजार की कृत्रिम उछाल, सट्टा प्रवृत्ति और मुद्रा आपूर्ति बढ़ने के कारण मुद्रास्फीति में वृद्धि चिंता का कारण बनी, वहीं दूसरी ओर अब विदेशी पूँजी निवेशकों द्वारा अपनी पूँजी खींचकर बाहर ले जाने की प्रवृत्ति ने शेयर बाजार को गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारतीय निवेश मनोविज्ञान में भी बदलाव देखने को मिला। पिछले कुछ वर्षों से हमारे नीति-निर्धारक इस बात को बार-बार दोहराते थे कि पश्चिमी देशों में हो रही शेयर बाजार की उथल-पुथल से भारत ने अपने आपको सुरक्षित कर रखा है, लेकिन आज स्थिति यह है कि भारतीय निवेशक बीएसई सेंसेक्स के व्यवहार में बदलाव से पहले अमेरिका के डाउ जोंस की उछाल और गिरावट से प्रभावित होते हैं।

दिलचस्प बात यह है कि संकट से बचने या दूर करने के जिन उपायों के उपदेशों को विकसित देश विकासशील देशों को दे रहे हैं, वे स्वयं उनका अनुसरण नहीं करते। फलस्वरूप खुद डूबते हैं और दूसरों को भी ले डूबते हैं। अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन के अनुसार अमेरिका में वित्तीय व्यापार अत्यंत खोखला हो गया है। वैश्विक बाजारों में यह गलतफहमी बेची जा रही है कि संकट का दौर गुजर चुका है जबकि सच्चाई यह है कि सबप्राइम ऋण का अभी दूसरा अधिक घातक दौर दूर नहीं है। असल में सितंबर 2008 के मध्य आया संकट का दौर आने वाले दूसरे दौर के संकट का अग्रसूचना वाहक था।

इसका कारण यह है कि वर्ष 2002 से 2007 के बीच अमेरिकी रियल एस्टेट क्षेत्र में आए बूम का फायदा उठाने के लिए जिन साढ़े चार करोड़ खातेदारों को ऋण बाँटे गए उनके कर्ज की अदायगी बंद हो गई है यानी सभी बैंकों में धीरे-धीरे वित्तीय संकट पैदा हो गया है और हालात यहाँ तक पहुँच गए हैं कि उनको दिवालिया होना पड़ा है या शीघ्र होना होगा। सबप्राइम (उपमुख्य या उपप्रधान) कर्ज उन लोगों को दिया जाता है जिनकी पुनर्भुगतान क्षमता शंकाओं के घेरे में रहती है।

इसलिए ऐसे कर्जदारों को दिए गए कर्जों पर ऊँची ब्याज दर वसूली जाती है। ये ऋण ऐसे लोगों
  देश का जनमानस इस आसन्न कुशंका से ग्रसित है कि जिस तरह दुनिया के बड़े बैंकों का दिवाला निकल रहा है उसी तरह भारत की बैंकिंग प्रणाली भी चरमरा जाएगी। लोगों की चिंता बैंकों में सावधि जमा 31 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि है      
को दिए जाते हैं जिनको अन्य स्रोतों से कर्ज नहीं मिल पाते। एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका की चौथाई आबादी इस श्रेणी में आती है और 2006 में ऐसे 40 प्रतिशत कर्ज सबप्राइम श्रेणी में आ गए थे। कर्ज लेने वाले और कर्ज देने वाले दोनों भूल जाते हैं कि ऐसे कर्ज दोनों के लिए जोखिमभरे हैं, क्योंकि लेने वाले को ऊँची ब्याज दर देनी पड़ती है जिनकी खराब साख इतिहास, अतीत और संदिग्ध वित्तीय स्थितियों के कारण अनिश्चितताओं से घिरी होती है।

देश का जनमानस इस आसन्न कुशंका से ग्रसित है कि जिस तरह दुनिया के बड़े बैंकों का दिवाला निकल रहा है उसी तरह भारत की बैंकिंग प्रणाली भी चरमरा जाएगी। लोगों की चिंता बैंकों में सावधि जमा 31 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि है। उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा है कि एक वर्ष पूर्व जो सावधि राशि 55 लाख करोड़ से अधिक और एक माह पूर्व 35 लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा थी, वह 31 लाख करोड़ रुपए के करीब कैसे रह गई ? इस भय और अविश्वास के माहौल में यह पहेली भी अबूझ रही कि अमेरिका, ब्रिटेन और योरप द्वारा बैंकिंग क्षेत्रों को तीन हजार अरब डॉलर उपलब्ध कराने की सामूहिक प्रतिबद्धता के बावजूद क्या धन उपलबध कराने से वित्तीय संकट पर नियंत्रण हो जाएगा।

भारत सरकार और रिजर्व बैंक के सारे आश्वासन उसे अविश्वास के संकट से निजात दिलाने में असफल रहे हैं। आखिर पन्द्रह दिनों के दौरान नकद आरक्षी अनुपात में तीन बार कमी सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकती। वित्तीय व्यवसाय के विशेषज्ञ हैरान हैं कि नकदी आरक्षित अनुपात 9 प्रतिशत घटाकर 6.5 प्रतिशत कर देने के असाधारण कदम के बजाए सरकार ने 8 (कल तक 9) प्रतिशत रेपो दर (जिस पर रिजर्व बैंक वाणिज्य बैंकों को अल्पकालिक पूँजी उपलब्ध कराता है) और 6 प्रतिशत की रिवर्स दर (जिस दर पर रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों से ऋण लेता है) के बीच का अंतर कम क्यों नहीं किया गया।

अब तक कहा जाता था कि भूगोल ही इतिहास है। लेकिन विश्व बैंक के सलाहकार थॉमस फ्रीडमेन के शब्दों में 'दुनिया समतल है।' इसलिए पूँजी की गतिशीलता के कारण सभी देश विश्व की तकदीर से जुड़ गए हैं। ऐसी स्थिति में वैश्विक मंदी और आने वाले अधिक विध्वंसक वित्तीय संकट मुख्यतः इस बात पर निर्भर करेंगे कि भारत और अन्य उभरती व्यवस्थाएँ विदेशी पूँजी के आगम और निगम के बीच कितना प्रभावी संतुलन बनाए रखती हैं। सोखने की शक्ति से अधिक विदेशी पूँजी का आगम जहाँ मुद्रास्फीति बढ़ा सकता है, वहीं उसका तेजी से पलायन साख के स्त्रोत सुखाने के साथ समूची अर्थव्यवस्था को मंदी की गिरफ्त में ला सकता है।

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