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शिक्षा के सागर में कर्ज की नैया

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आलोक मेहता

कांग्रेस पार्टी ने आगामी लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में दावा किया है कि 'शैक्षणिक ऋण देने के दुनिया के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक भारत में चल रहा है। पिछले पाँच वर्षों में 15 लाख छात्रों को 26 हजार करोड़ रुपए विभिन्न व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए ऋण के रूप में प्रदान किए गए हैं।' पार्टी ने वादा किया है कि भविष्य में वह किसी भी मान्यता प्राप्त कॉलेज या विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलने पर विद्यार्थी को बिना किसी जमानत के शैक्षणिक ऋण प्रदान करेगी।

संभव है कि उदार आर्थिक नीतियों की पक्षधर भारतीय जनता पार्टी या अन्य दल
  इस समय अमेरिका में ऐसे सैकड़ों युवा संकट में पड़ गए हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लिया और अब उनके पास नौकरी नहीं है। वहाँ तो ऋण पर ब्याज की दरें भी बहुत कम हैं      
भी शैक्षणिक ऋण के लिए कुछ और उदार योजनाओं की घोषणा कर दें। पिछले वर्षों के दौरान अमेरिका और योरप से प्रेरणा लेकर भारत में शैक्षणिक ऋण देने के लिए व्यापक अभियान चलाए गए हैं। विदेश में उच्च शिक्षा के लिए लगभग 15 लाख रुपए का कर्ज मिलने की सुविधा का लाभ हजारों छात्रों ने उठाया है। यही नहीं, भारत में भी निजी शिक्षण संस्थानों में उच्च शिक्षा पाने वाले छात्रों को करीब साढ़े सात लाख रुपए के कर्ज की सुविधा बैंक दे रहे हैं।

प्रारंभिक दौर में ऋण पाने वाले तथा समय पर कर्ज अदायगी की स्थिति से कर्जदाता बैंक भी खुश हो रहे हैं, इसीलिए उच्च शिक्षा के सैकड़ों संस्थान धड़ाधड़ खुल रहे हैं। कुछ का स्तर बहुत अच्छा है और कुछ का बहुत खराब। फीस और अन्य खर्चों में निरंतर बढ़ोतरी होती जा रही है। संस्थानों के प्रबंधक संपन्नतम होते जा रहे हैं लेकिन उच्च शिक्षा की कोई डिग्री या डिप्लोमा लेकर भविष्य के सपने बुनने वाले लाखों छात्रों और उनके परिजनों को अमेरिका और योरप की तरह झटके तो नहीं लगने लगेंगे? फिर कुकुरमुत्ते की तरह फैले अधकचरे संस्थानों से मिले सर्टिफिकेट के आधार पर भारत में क्या नौकरियाँ उपलब्ध हो पाएँगी?

डॉ. मनमोहनसिंह और उनके प्रिय सहयोगी अर्थशास्त्री मोंटेकसिंह अहलूवालिया के नेतृत्व वाले योजना आयोग के आधिकारिक विश्लेषण पर विश्वास किया जाए तो सिर्फ एक साल बाद यानी सन्‌ 2010 तक भारत के बेरोजगार लोगों में 60 प्रतिशत शिक्षित व्यक्ति होंगे। ऐसी स्थिति में जब छात्र शिक्षा के सागर में कर्ज की नाव से आगे बढ़कर किनारे पहुँचेगा, तो रोजगार के बिना किनारे खड़े कर्जदाता को किस तरह अदायगी करेगा?

इस समय अमेरिका में ऐसे सैकड़ों युवा संकट में पड़ गए हैं, जिन्होंने उच्च शिक्षा के लिए कर्ज लिया और अब उनके पास नौकरी नहीं है। वहाँ तो ऋण पर ब्याज की दरें भी बहुत कम हैं। प्रतिष्ठित हॉवर्ड विश्वविद्यालय में एमबीए या एलएलबी, एलएलएम उच्च शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियों को नौकरी के लाले पड़ रहे हैं। अमेरिका हो या भारत, कर्ज अदा न कर सकने वाले युवा अधिक विचलित होंगे। आखिरकार पिछले वर्षों के दौरान कर्ज न चुका सकने वाले किसानों की आत्महत्याओं की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हुई है। बेरोजगार शिक्षित युवा हिंसक गतिविधियों में शामिल होने लगे हैं।

चुनावी अभियान में महात्मा गाँधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर लंबे-चौड़े भाषण देने वाले राजनीतिक दल क्या अपने महापुरुषों के आदर्शों के अनुरूप शिक्षा और रोजगार की व्यावहारिक योजनाओं का कोई खाका पेश कर पा रहे हैं? उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत पढ़ाई के लिए कर्ज, खेती के लिए कर्ज, मकान के लिए कर्ज, घरेलू उपयोग की वस्तुओं के लिए कर्ज, क्रेडिट कार्ड से कपड़े-जूते या जेवर के लिए कर्ज, यात्रा के लिए कर्ज, इलाज तक के लिए कर्ज को हरसंभव तरीके से प्रोत्साहित किया जा रहा है लेकिन क्या यह असली समाधान है?

रोजगार दिला सकने वाली शिक्षा-व्यवस्था का कोई आदर्श नक्शा सामने नहीं पेश किया गया है। आरक्षण, सांप्रदायिक या सेकुलर पाठ्यक्रम, विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में दुकान चलाने जैसे मुद्दों पर अधिकाधिक ध्यान दिया जा रहा है। राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न राज्यों में झूठे दावों और अधकचरी शिक्षा सुविधा वाले हजारों संस्थानों पर कड़ाई से लगाम कसने के लिए कांग्रेस भाजपा या कम्युनिस्ट शासित सरकारों ने बहुत ही कम ध्यान दिया है।

इक्का-दुक्का कार्रवाई होने से शिक्षा में ठगी बढ़ती जा रही है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत कर सकने वाले शैक्षणिक पाठ्यक्रमों पर कोई कारगर नीति किसी पार्टी ने नहीं बनाई है।

हम चीन से मुकाबला करना चाहते हैं। उस चीन से जहाँ पाँच लाख से अधिक व्यावसायिक
  सवाल यह है कि सत्ता-व्यवस्था शिक्षा और स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकताओं को निजी क्षेत्र में धकेलकर धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला क्यों झाड़ना चाहती है?      
शैक्षणिक तथा प्रशिक्षण संस्थान हैं जबकि भारत में ऐसे संस्थान मात्र 12 हजार हैं। सन्‌ 2002 में छत्तीसगढ़ जैसे पिछड़े राज्य में सरकारी भ्रष्टाचार और शिक्षा माफिया के प्रभाव से निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम लाया गया लेकिन इस कानून के नाम पर खुली अधिकांश दुकानों की भारी अव्यवस्था प्रमाणित होने पर 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम को ही रद्द कर दिया।

इसलिए केवल निजी क्षेत्र में उच्च शिक्षा संस्थान बढ़ाने से भारतीय युवाओं के भले की बात सोचना गलत है। आखिरकार सरकारी सर्वशिक्षा अभियान सफल हो रहा है तो उच्च शिक्षा के लिए भी व्यावहारिक दूरगामी नीति बनाकर मर्यादित खर्च पर अच्छी शिक्षा देने वाले संस्थान, विश्वविद्यालय क्यों नहीं स्थापित किए जाते? ऐसा भी नहीं है कि भारत जैसे देश में आने वाले वर्षों में नौकरियों की संभावनाएँ खत्म हो जाएँगी। जापान में चार हजार और अमेरिका में 3,650 विश्वविद्यालय हैं, जबकि भारत में करीब 350 विश्वविद्यालय हैं।

सवाल यह है कि सत्ता-व्यवस्था शिक्षा और स्वास्थ्य की मूलभूत आवश्यकताओं को निजी क्षेत्र में धकेलकर धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारी से पल्ला क्यों झाड़ना चाहती है? अन्य क्षेत्रों के अनावश्यक खर्च कम करके शिक्षा की श्रेष्ठतम व्यवस्था के लिए व्यापक अभियान क्यों नहीं चलाया जा सकता?

ग्रामीण क्षेत्रों में भी काम-धंधा कर सकने की संभावना के साथ गाँधीवादी शैक्षणिक पाठ्यक्रमों के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता? जब अमेरिका या योरपीय देश अपनी विफल शिक्षा तथा अर्थनीतियों पर पुनर्विचार कर रहे हैं तो हम क्यों उनकी पिटी-पिटाई नीतियों का अनुसरण करना चाहते हैं? कर्ज आत्मनिर्भरता का सही रास्ता नहीं हो सकता। श्रम और समझदारी से ही आर्थिक आत्मनिर्भरता का लक्ष्य पूरा हो सकता है।

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