Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

शोर-शराबे की मंडी बनी लोकसभा

Advertiesment
हमें फॉलो करें शोर-शराबे की मंडी बनी लोकसभा

उमेश त्रिवेदी

स्पीकर के रूप में लोकसभा का संचालन सोमनाथ चटर्जी के राजनीतिक जीवन की सबसे अवसाद भरी भूमिका है। लोकतंत्र की गरिमा के लिए उनकी बुलंद आवाज में छिपी गिड़गिड़ाहट भीतर तक हिला देती है। देश उनकी आवाज का दर्द महसूस कर रहा है, लेकिन जनप्रतिनिधि नहीं। 12 मार्च, 2008 को संसद में उनका बयान फिर वही सवाल खड़े कर रहा है, जो देश की सबसे बड़ी चिंता है। दुर्भाग्य से लोकसभा और विधानसभाएँ राजनेताओं के लिए शोर-शराबे की मंडी में तब्दील हो गई है।

भारत के साठ साल पुराने प्रजातंत्र की सफलता के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा और विधानसभा के अंदर घट रही घटनाएँ हैं। आए दिन टेलीविजन और अखबारों की सुर्खियों में बदहवास सदन चीखता नजर आता है, जो प्रजातांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्थाओं की अवमानना के अलावा कुछ नहीं होता है।

13 मार्च 2008 को ऐसा हुआ
संसद को सड़क मत बनाओ...

शोर-शराबे से परेशान होकर लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने सांसदों को खरी-खरी सुना दी। केरल के कन्नूर जिले की घटना पर सदन का माहौल बिगड़ता देख वे बोले- ये संसद सड़क बनकर रह गई है। उन्हें यहाँ तक कहना पड़ा कि यदि आप लोग नहीं सुन रहे हैं तो कृपया सदन के संचालन के लिए बनी नियमावली को महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने जला डालिए।

हिंदुस्तान की लोकसभा व विधानसभाएँ राजनीतिक सौदागरों के लिए शोर-शराबे की मंडी में तब्दील होती जा रही हैं, जहाँ बैठकर नेता आम जनता और देश के हितों को ताक में रखकर अपनी-अपनी बोली लगाते हैं और अपने स्वार्थ साधते हैं। लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और राज्यसभा के सभापति मोहम्मद हामिद अंसारी सदन की प्रतिष्ठा और गरिमा की खातिर आए दिन आँसू बहाते नजर आते हैं, लेकिन लगता है कि ज्यादातर राजनीतिक दलों के नेता कान में रुई डालकर बैठे हैं और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हैं।

सांसद-विधायक और चुने हुए प्रतिनिधि हर दिन स्क्रीन पर देश की जनता का अपमान करते हुए नजर आते हैं। आमजनहर पाँच वर्षों में साढ़े पाँच सौ सांसद और हजारों विधायकों को लोकसभा और विधानसभाओं के लिए चुनकर भेजते हैं। जनप्रतिनिधियों के इस चुनाव के पीछे उनकी भावनाएँ होती हैं, मान्यताएँ होती हैं, आदर्श होते हैं, विश्वास होता है कि उनकी बातों को सदन में उठाया जाएगा, उनके सुख-दुःख के लिए उनके नियोजित प्रतिनिधि तर्क-संगत संघर्ष करेंगे। देश-प्रदेश को आगे बढ़ाएँगे, क्षेत्र के विकास की बात करेंगे, उनके हकों के लिए कानून बनाएँगे। लेकिन यह सब कुछ क्या सदन में हो पा रहा है? इस सवाल के जवाब में हम बगैर ऊहापोह के कह सकते हैं कि प्रजातंत्र के इन मंदिरों में वह सब कुछ नहीं हो पा रहा है, जो संविधान में अपेक्षित है।

संविधान विशेषज्ञ और पर्यवेक्षकों को शायद ही याद होता कि लोकसभा में सार्थक बहस पिछले दिनों कब हुई थी? सदन के लिए निर्धारित कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जनप्रतिनिधि अपनी भूमिकाओं का गंभीरता से निर्वहन कर रहे हैं, यह कहीं भी दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। कानून बनाने का नियम-प्रक्रियाओं का परीक्षण करने से उनका दूर-दूर तक वास्ता नहीं है। सदन में सैद्धांतिक तकरारों को सुने अर्सा बीत गया है। सिर-फुटव्वल रोज देखने को मिलती है। हर स्तर पर स्वार्थों को लेकर नेतागण लोकसभा या विधानसभाओं को अखाड़े की तरह इस्तेमाल करते हैं। सदन में उनके क्रियाकलापों और भूमिकाओं में उनके निजी, राजनीतिक और दलगत स्वार्थ ही सर्वोपरि दिखते हैं। स्वार्थों की खातिर वे एक हैं और स्वार्थों की खातिर वे एक-दूसरे के दुश्मन हैं।

निर्वाचित जनप्रतिनिधि ज्यादातर मुद्दे पर एक-दूसरे से टकराते रहते हैं। केवल एक मामले में उनका कभी भी तकरार या टकराव नहीं होता है, वह है उनके वेतन-भत्तों में इजाफा। कई बार ऐसा लगता है कि राष्ट्रहित से जुड़े किसी भी मामले से ऊपर उनके वेतन-भत्तों का मामला होता है, जिस पर उनकी सर्वसम्मति और सहमति उल्लेखनीय होती है। अन्यथा सदन के प्रति जनप्रतिनिधियों की गंभीरता चिंतनीय और चौंकाने वाली है। दिलचस्प बात यह है कि जनता जिस काम के लिए उन्हें चुनती है, वह करना तो दूर, वे सदन की प्रक्रियाओं और कार्य सूची में भागीदारी के लिए उत्सुक नजर नहीं आते हैं।

एक गैर सरकारी संगठन पार्लियामेंट्री रिसर्च सर्विस ने वर्तमान लोकसभा सांसदों की संसदीय सक्रियता को लेकर एक शोध किया था। शोध की जानकारियाँ चौंकाने वाली हैं। सांसदों की उपस्थिति का जो आकलन किया, उसके अनुसार चौदहवीं लोकसभा के पहले सत्र में ही सांसदों की उपस्थिति अस्सी प्रतिशत रही है, जो सर्वाधिक है। शायद पहला सत्र होने के कारण उत्सुकता और उत्साह के चलते सांसदों की उपस्थिति ने यह आँकड़ा छुआ था, अन्यथा ताजा जानकारियाँ बताती हैं कि सांसदों की उपस्थिति पचास से साठ प्रतिशत के बीच मिल रही है, जो किसी भी स्थिति में चिंतनीय है। अनुपस्थिति की यह बीमारी लगभग सभी दलों में गंभीर है।

राजद और माकपा के सांसदों में यह रवैया अपेक्षाकृत कम है। सबसे गौरतलब और गंभीर मुद्दा युवा सांसदों की भूमिका को लेकर है। यह उत्साहजनक नहीं है। सदन की कार्रवाई में ज्यादातर हिस्सेदारी इकसठ से सत्तर साल तक सांसदों की होती है। एक ओर सांसदों की लोकसभा में उपस्थिति का यह विश्लेषण संसदीय कार्रवाई में कमतर होती दिलचस्पी का प्रतीक है, तो विश्लेषण का दूसरा पहलू यह दिखता है कि संसद में जितनी भी भागीदारी होती है, वह कैसी और किस स्तर की है।

इसका अंदाज इसी से लग सकता है कि जब पिछले सप्ताह तेरह मार्च को सांसदों के हंगामे से दुःखी लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को यह कहना पड़ा कि यदि सांसदों का यह आचरण है तो उनके लिए सदन की कार्रवाई को संचालित करना असंभव है। स्पीकर की व्यथा का अनुमान इसी में लगाया जा सकता है कि उन्हें यह कहना पड़ा कि यदि आप लोग नहीं सुन रहे हैं तो कृपया सदन के संचालन के लिए बनी नियमावली को महात्मा गाँधी की प्रतिमा के सामने जला डालिए।

स्पीकर का दर्द इन आँकड़ों से भी समझ में आता है कि सन्‌ 2007 में लोकसभा की कार्रवाई सिर्फ छियालिस दिन ही विधिवत या बगैर किसी शोर-शराबे के संचालित हो सकी। इस दरमियान लोकसभा प्रतिदिन सिर्फ 4.3 घंटे ही काम कर सकी, जबकि उसके नियमानुसार 6 घंटे प्रतिदिन बैठना चाहिए।

राज्यसभा में काम की अवधि 3.3 प्रति घंटे प्रतिदिन रही, जबकि उसे पाँच घंटे प्रतिदिन होना चाहिए। आँकड़ों के विश्लेषण के निष्कर्ष हैं कि दोनों सदनों में सिर्फ साठ प्रतिशत ही काम निर्धारित मानदंडों के हिसाब से हो सका। संसदीय कामकाज के 40 प्रतिशत की यह गिरावट प्रजातांत्रिक संसदीय व्यवस्था के लिए किसी भी हालत में शुभ संकेत नहीं माना जा सकता।

बात यहीं नहीं रुकती है। 2007 में वर्ष 2006 की तुलना में कामकाज भी कम हुआ। इस वर्ष 2007 में 46 बिल पारित हुए, जो 2006 में 65 थे। इनमें 40 प्रतिशत बिल ऐसे थे जो बगैर चर्चा के ही पारित हो गए। ये कानून और अधिनियम ऐसे हैं, जो सीधे-सीधे जनजीवन को प्रभावित करते हैं। संसद और सांसदों की यह लापरवाही देश और प्रजातंत्र के लिए कितनी घातक हो सकती है, इसके लिए अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। लगता है कि राजनीतिक दलों के लिए लोकसभा एक मार्केट है, जहाँ वे शोर-शराबे के धंधे में लगे रहते हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi