प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान के दौरान एक रैली में कहा था- 'जो देश का मूड है, वही दिल्ली का मूड है और जो देश सोचता है, वही दिल्ली सोचती है।' तो दिल्ली के चुनावी नतीजों के आधार पर क्या अब यह मान लिया जाना चाहिए कि देश का मोदी और भाजपा से मोहभंग हो रहा है!
नरेंद्र मोदी की अगुवाई में पिछले चौदह महीनों से दौड़ रहा भाजपा के 'अश्वमेध' का अश्व दिल्ली में युवजनों की एक नवजात पार्टी ने रोक लिया, जिससे उसका 'चक्रवर्तित्व' संकट में आ गया है। महज नौ महीने पहले दिल्ली की सभी सातों लोकसभा सीटों पर प्रचंड जीत दर्ज करने वाली भाजपा को दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जैसी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा, उसकी कल्पना उसके चतुरसुजान समझे जाने वाले रणनीतिकारों ने ख्वाब में भी नहीं की होगी। खुद आम आदमी पार्टी को भी अंदाजा नहीं था कि उसे दिल्ली की जनता का ऐसा प्रचंड समर्थन मिलेगा। लेकिन दिल्ली की जनता ने पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जिस प्रयोग को शुरू किया था उसे इस बार उसने पूरे दिल से सिरे चढ़ाने की इच्छा का इजहार किया।
यही वजह है कि नौ महीने पहले आम चुनाव के दौरान जिस नेता और पार्टी को उसने सिर आंखों पर बिठाया था, इस बार उसे पूरी तरह दरकिनार कर दिया। आम आदमी पार्टी को 54 फीसदी से ज्यादा वोट मिलना यह बताता है कि उसके पक्ष में लोग किस कदर लामबंद हो गए थे। इन नतीजों से देश की भावी राजनीति के प्रभावित होने की संभावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। महानगरीय चरित्र वाले देश के इस एकमात्र राज्य और देश की राजधानी के चौंकाने वाले इन चुनावी नतीजों से पूरी भाजपा सकते में है और उसके शीर्षस्थ नेतृत्व के फैसलों पर सवाल उठना शुरू हो गए हैं।
लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक अमित शाह को चुनावी राजनीति के चाणक्य के तौर पर पेश किया जाता रहा है, लेकिन दिल्ली की हार से यह भी सवाल उठने लगे हैं कि केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सांसदों और वरिष्ठ नेताओं की पूरी फौज और सेनापति के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को झोंकने के बावजूद अगर पार्टी को कामयाबी नहीं मिली तो जाहिर है कि पार्टी की रणनीति ही पूरी तरह ध्वस्त हो गई। चुनाव अभियान के शुरुआती दौर में भाजपा के रणनीतिकार अपनी बनाई रणनीति और मोदी के करिश्मे को लेकर इतने ज्यादा आश्वस्त थे कि उन्होंने कोई भी फैसला लेने में पार्टी के स्थानीय नेतृत्व को कोई तवज्जो नहीं दी। यहां तक कि किरण बेदी को रातोरात पार्टी में शामिल कर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के मामले में भी स्थानीय नेताओं को भरोसे में नहीं लिया गया। इतना ही नहीं पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर करीब एक दर्जन ऐसे लोगों को पार्टी का उम्मीदवार बना दिया गया, जो चुनाव की घोषणा के बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से असंतुष्ट होकर भाजपा में आए थे।
शीर्ष नेतृत्व की इस मनमानी का भी पार्टी की शर्मनाक पराजय में पर्याप्त योगदान रहा। पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का ख्वाब बुने बैठी भाजपा को 70 सदस्यीय विधानसभा में महज तीन सीटें हासिल हुई हैं। यानी वह विधानसभा में अधिकृत विपक्ष का दर्जा हासिल करने की स्थिति में भी नहीं रही। जहां तक कांग्रेस की बात है, उसमें तो अपने डूबते जहाज को बचाने की बेचैनी जरा भी नहीं दिखी। पंद्रह वर्ष तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का इस बार खाता भी नहीं खुल पाया। आम आदमी पार्टी को 67 सीटों के साथ विशालतम बहुमत मिला, जो ऐतिहासिक है। विधानसभा चुनाव में ऐसे एकतरफा नतीजे पूर्वोत्तर के कुछेक राज्यों को छोड़ दें तो देश के और किसी राज्य में कभी नहीं आए।
दरअसल, दिल्ली का चुनाव लीक से हटकर था, जिसमें जनता ने राजनीति के पारंपरिक गणित और चुनावी परिभाषाओं को उलटकर रख दिया। सांप्रदायिक और जातिगत ध्रुवीकरण के सारे जतन नाकाम रहे। पारंपरिक वोट बैंक के मिथक भरभरा कर ढह गए। कांग्रेस और भाजपा के जिन दिग्गजों की जीत को लेकर उनके विरोधी भी संदेह नहीं करते थे, वे भी बुरी तरह हार गए। यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सहमति से मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार बनाई गईं किरण बेदी भी भाजपा के लिए सबसे सुविधाजनक और सुरक्षित मानी जाने वाली सीट पर हार गईं।
कहा जा सकता है, दिल्ली विधानसभा के चुनाव का नतीजा एक तरह से पारंपरिक राजनीति से जनता के मोहभंग और उसके जनद्रोही होते जाने के खिलाफ बगावत का और साथ ही देश में नए तरह की राजनीति के आगाज का संकेत है। संभवतः भाजपा के रणनीतिकारों को भी अपनी पार्टी की हार का अंदेशा चुनाव प्रचार अभियान के चलते हो गया था, इसीलिए उन्होंने मतदान से पहले ही कहना शुरू कर दिया था कि दिल्ली की हार-जीत को केंद्र की मोदी सरकार के कामकाज पर जनमत संग्रह न माना जाए। यही बात चुनाव नतीजे आने के बाद भी कही गई।
भाजपा के तमाम प्रवक्ता और रणनीतिकार चाहे जो कहें, लेकिन हकीकत यह है कि भले ही यह चुनाव दिल्ली प्रदेश का था, पर भाजपा ने इसे लड़ा तो नरेंद्र मोदी के नाम ही था। 'चलो चलें मोदी के साथ' वाले स्लोगन के पोस्टर दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर, बसों, मेट्रो और ऑटो रिक्शाओं पर नुमायां थे। इसी स्लोगन वाले अखबारी विज्ञापनों में मोदी सरकार की आठ माह की 'उपलब्धियों' की फेहरिस्त थी। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रचार का स्वरूप कमोबेश नगर निगम चुनावों की तरह होता है, लिहाजा यहां प्रधानमंत्री अमूमन चुनाव प्रचार में नहीं उतरते हैं लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के प्रचार के लिए मोर्चा संभाला और एक-दो नहीं बल्कि विभिन्न इलाकों में पांच रैलियों को संबोधित किया।
भाजपा ने चुनाव प्रचार में अपने अकूत साधन-संसाधन ही नहीं झोंके, बल्कि उसका पूरा प्रचार अभियान भी नकारात्मक और भाषा के लिहाज से बेहद स्तरहीन रहा। प्रधानमंत्री से लेकर पार्टी के हर छोटे-बड़े नेता ने अरविंद केजरीवाल के लिए अराजक, नक्सली, चोर, बेइमान, बदनसीब, भगोड़ा, बंदर, हरामखोर जैसी संज्ञाओं का इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं किया। उनकी पोशाक-मफलर और खांसी तक पर तंज कसे गए। लेकिन इस तरह के नकारात्मक प्रचार को दिल्ली की आम जनता ने पसंद नहीं किया, यहां तक कि भाजपा समर्थक मतदाताओं के एक बड़े वर्ग ने भी नहीं। अपनी इस नापसंदगी का इजहार उन्होंने आम आदमी पार्टी के पक्ष में मतदान के जरिए किया।
हालांकि यह कहना उचित नहीं होगा कि आम आदमी पार्टी को मिली जीत में अकेले भाजपा के नकारात्मक प्रचार अभियान का ही योगदान रहा। उसने खुद भी अपनी सुदीर्घ चुनावी तैयारी और जनता से सतत संवाद बनाए रखने के साथ ही अपनी 49 दिनों की सरकार के कामकाज को और बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा और पूरी दिल्ली को वाईफाई से जोड़ने जैसे अपने आगामी लक्ष्यों को भी जनता के सामने रखा। इसके अलावा अपनी सभाओं और टीवी की बहसों में भाजपा के हमलों का संयत और सटीक तरीके से जवाब देते हुए मोदी सरकार की नाकामियों, कॉर्पोरेट घरानों से उसकी यारी और प्रधानमंत्री के लखटकिया सूट की बात को जोरशोर से जनता तक पहुंचाने के काम को उसके नेताओं ने बड़ी शाइस्तगी के साथ अंजाम दिया। आम आदमी पार्टी को जिस तरह से समाज के हर तबके का वोट मिला, उससे यह भी पता चलता है कि लोगों ने वर्गीय खांचों में बांटने वाली राजनीति को भी सिरे से नकारा है।
इस चुनाव की सबसे उल्लेखनीय एक बात यह रही कि आम आदमी पार्टी ने अपने पक्ष में जामा मस्जिद के इमाम द्वारा जारी अपील को निर्ममतापूर्वक ठुकराने का साहस भी दिखाने में कोई संकोच नहीं किया। ऐसा करके उसने न सिर्फ इमाम को अपनी जगह और हद बताई बल्कि इमाम की अपील के बहाने सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के भाजपा के मंसूबे की भी हवा निकाल दी। जब नतीजे आए तो यह भी जाहिर हुआ कि दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं ने भी इमाम बुखारी की अपील को कोई तवज्जो नहीं दी। आम आदमी पार्टी की यह जीत जितनी उसके और अरविंद केजरीवाल के प्रति लोगों के भरोसे से जुड़ी हुई है, उतनी ही इस बात से भी कि लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी के विकास के वायदे के बावजूद उनके कतिपय मंत्रियों और सांसदों की सांप्रदायिक वैमनस्य पैदा करने वाली बदजुबानी, संघ परिवार के संकीर्ण और विभाजनकारी कार्यक्रमों और इन सब पर प्रधानमंत्री की चुप्पी को नापसंद किया है।
आम आदमी पार्टी को मिलने वाला समर्थन इतना विशालकाय है कि अरविंद केजरीवाल को भी यह कहने को मजबूर होना पड़ा कि इस जनसमर्थन के पीछे खड़ी जनता की उम्मीदें उन्हें डरा रही हैं। हर वर्ग और हर क्षेत्र की उनसे बांधी गई उम्मीदें अलग-अलग हैं और यही वह जगह है जहां से उनकी समस्या शुरू हो सकती है। चूंकि भाजपा के सिर्फ तीन उम्मीदवार ही जीते हैं, लिहाजा अब अगले पांच साल तक विधानसभा में उन्हें घेरने के लिए कोई विपक्ष नहीं होगा। लेकिन अगर वे लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे तो उनकी लोकप्रियता का ग्राफ उतनी ही तेजी से नीचे आ सकता है, जितनी तेजी से हाल के कुछ दिनों में ऊपर चढ़ा है। खासकर इसलिए भी कि उनकी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादे कुछ ज्यादा ही लंबे-चौड़े हैं। इसके अलावा अलग-अलग वर्गों की उम्मीदें भी परस्पर एक-दूसरे की विरोधी हो सकती हैं। मुश्किल इसलिए भी आ सकती है कि भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर सत्ता हासिल कर लेना आसान हो सकता है कि लेकिन भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करना काफी जटिल चुनौती है। यह तजुर्बा देश को पहले भी हो चुका है, जब 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कथित स्विस बैंक खाते का नंबर हाथ में लहराते हुए दावा करते थे कि सत्ता में आने के बाद वे बोफोर्स दलाली कांड का पर्दाफाश कर देंगे। मगर न तो वे कोई खुलासा कर पाए और न ही अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार।
भाजपा और उसकी सरकार के मौजूदा सरपरस्त नरेंद्र मोदी ने आम चुनाव के दौरान कहा था कि सत्ता में आने के बाद सौ दिन के भीतर उनकी सरकार विदेशों में कालाधन वापस ले आएगी और वह इतनी मात्रा में होगा कि देश के प्रत्येक व्यक्ति के खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा हो जाएंगे। जब सत्ता में आए तो प्रधानमंत्री ने रेडियो पर 'मन की बात' कही कि उन्हें नहीं पता कि विदेशों में कितना काला धन जमा है और सत्ता में आने के ढाई सौ दिन बीत जाने के बाद मोदी के शाह और पार्टी के तमाम नेता कह रहे हैं कि पंद्रह लाख वाली बात तो चुनावी जुमला थी। बात काले धन की ही नहीं, आम चुनाव के पहले महंगाई कम करने की बात भी कही गई थी, लेकिन अभी भी महंगाई जस की तस बनी हुई है। मान लिया जाना चाहिए कि महंगाई कम करने की बात भी चुनावी जुमला थी।
अरविंद केजरीवाल का दावा रहा है कि उनकी पार्टी का लक्ष्य देश के समक्ष वैकल्पिक राजनीति का मॉडल पेश करना है, लिहाजा उनकी सरकार के सामने उन तमाम वादों को पूरा करने की चुनौती तो होगी ही जो उन्होंने जनता से किए हैं। इसके साथ ही उन्हें यह भी साफ करना होगा कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और श्रममेव जयते की चाशनी में लिपटे श्रम सुधार के नाम कामगार को संरक्षण देने वाले कानूनों को कॉर्पोरेट घरानों के हक में शिथिल करने के मोदी सरकार के प्रयासों के बारे में उनकी सरकार का नजरिया क्या है? शिक्षा और चिकित्सा सेवा के व्यवसायीकरण पर लगाम कसने के लिए उनकी सरकार के पास क्या योजनाएं हैं? अगर वे ऐसा नहीं कर पाए तो उन्हें भी बाकी राजनेताओं की भीड़ का हिस्सा मान लेने में जनता देर नहीं करेगी।
बहरहाल, दिल्ली के नतीजों ने राजनीतिक हलकों में जो झुरझुरी पैदा की है उसका असर केंद्र में सत्तारुढ़ कुनबे में तो अभी से दिखना शुरू हो गया है। भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे ने जबरदस्त कटाक्ष करते हुए कहा है कि दिल्ली के लोगों ने दिखा दिया है, सूनामी में किसी भी लहर से ज्यादा दम होता है। उन्होंने दिल्ली में भाजपा की हार को नरेंद्र मोदी की हार करार दिया है। भाजपा के दूसरे विश्वस्त सहयोगी अकाली दल ने भी असंतोष जताने में देरी नहीं की। दिल्ली में उसके एक पराजित प्रत्याशी मनजिंदर सिंह सिरसा ने खुलकर कहा कि भाजपा के कट्टरपंथी नेताओं के भड़काऊ और नफरतभरे बयानों ने उनकी जीत की संभावनाओं को बट्टा लगाने का काम किया। दो प्रमुख सहयोगी दलों से आई इन टिप्पणियों ने पार्टी के अंदर शुरू हुई बहस को तेज करने का काम किया है, जिसकी जरूरत काफी समय से महसूस की जा रही थी।
यह भी तय है कि दिल्ली के चुनाव नतीजों का असर आने वाले समय में देश के दूसरे सूबों की राजनीति में भी कुछ तो दिखाई देगा ही। इसी साल के आखिर में बिहार के विधानसभा चुनाव होने हैं जिसके लिए बिसात बिछना शुरू हो गई है। वहां पिछले दो दशक से एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव अब मोदी की चुनौती का एकजूट होकर मुकाबला करने की तैयारी कर रहे हैं। बिहार को लेकर मोदी और उनकी पार्टी के लोगों ने बड़ी हसरतें पाल रखी हैं। इस चुनाव को भी मोदी अपनी धमाकेदार आक्रामक शैली में ही लड़ना चाहेंगे लेकिन बिहार के मैदान में उतरते वक्त वे अखंड विजय गाथा के नायक नहीं होंगे।
दिल्ली में भाजपा की हार उनके विरोधियों को नया हौसला तो देगी ही। फिर अगले साल पश्चिम बंगाल और पंजाब में, उसके बाद उत्तर प्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव होने हैं। मुमकिन है कि आम आदमी पार्टी भी दिल्ली की जीत के बाद अखिल भारतीय स्तर पर अपने हाथ आजमाने के लिए मैदान में उतर सकती है। हालांकि लोकसभा चुनाव में उसे पंजाब के अलावा सभी जगह बुरी तरह निराशा हाथ लगी थी, लेकिन यह तथ्य भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि दिल्ली में भी उसे मुकम्मिल और असली कामयाबी अपने दूसरे प्रयास में ही मिली है।