Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

आखिर कैसे हुई केजरीवाल की वापसी

ये जो पब्लिक है, वो सब जानती है

हमें फॉलो करें आखिर कैसे हुई केजरीवाल की वापसी
दिल्ली के चुनाव और उसके ऐतिहासिक परिणामों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और लिखा जाता रहेगा। परिणामों के पहले तक बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित और विशेषज्ञ भी 'आप' की प्रचंड 'लहर' को भांपने में असफल रहे।  नरेन्द्र मोदी के विजय रथ को रोक कर अरविन्द केजरीवाल न सिर्फ दिल्ली बल्कि पूरे भारत के लिए एक मिसाल बन गए हैं। लेकिन केजरीवाल ने ऐसा क्या किया जो उन्हें इतनी भारी सफलता मिली। आखिर क्यों मोदी फैक्टर भी दिल्ली में भाजपा को सफलता नहीं दिला पाया। 
 
सबसे पहले यदि पिछले लोकसभा चुनावों के पन्ने पलटे तो आम आदमी पार्टी के 90 प्रतिशत उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। दिल्ली में सरकार भंग कर जनता के गुहनगार बने केजरीवाल ने गलतियों से सबक लेते हुए जनता से खुलकर माफी मांगी और वादा किया कि अब ऐसी गलती नहीं करेंगे। भारत जैसे उदार देश की संस्कृति में क्षमा को सर्वोपरि माना गया है। जनता ने न सिर्फ अरविन्द को माफ किया बल्कि भारी बहुमत देकर साफ कर दिया कि अब किसी भी हालत में उन्हें अपने किए वादे निभाने ही होंगे। 
 
लोकसभा में करारी हार के बाद केजरीवाल टूटे जरूर लेकिन एक सैन्य जनरल की तरह उन्होंने फिर से खुद को और पार्टी को एकजुट करने और जनता से मिले नेगेटिव फीडबैक की सूची बनाई और उन्हें दूर करने में जुट गए। उन्होंने अपने सबसे बड़े समर्थकों से बार बार माफी मांगी और मुफ्त बिजली, पानी जैसे नारे से उन्हें लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके अलावा मध्यम वर्ग और युवाओं को लुभाने के लिए उन्होंने मुफ्त वाईफाई का भी वादा किया। 
 
केजरीवाल को पता था कि दिल्ली के संभ्रात और उच्च वर्ग में उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिलने वाला लेकिन बिजनेस समुदाय में दांव आजमाने के लिए उन्होंने फंड रेजिंग डिनर भी आयोजित किए जिससे भी उन्हें कुछ हद तक उच्च समुदाय से समर्थन या निर्विरोध जीत का विश्वास मिला।   
 
दिल्ली में चुनाव करवाने में देर करने से अरविन्द केजरीवाल को खुद को और पार्टी को मजबूत करने का अतिरिक्त समय मिल गया। आप पार्टी के लोग भी मानते हैं कि यदि चुनाव कुछ महीने पहले होते तो परिणाम अलग होते। भाजपा ने टालमटोल की नीति अपनाई और उम्मीदवारों को चुनने में भी देर कर दी। 
 
अगले पन्ने पर....भाजपा के साथ क्या गलत हुआ। 

भाजपा की कोर थिंक टीम का आकलन था कि अभी भाजपा लहर जारी है और दिल्ली में भाजपा की सरकार तय है। अति आत्मविश्वास से लबरेज भाजपा ने चुनाव कराने में देरी की और फायदा मिला आप को। इसके अलावा चुनाव में स्थानीय कार्यकताओं और पुराने भाजपाई नेताओं को दरकिनार कर अमित शाह एंड टीम ने अपनी मर्जी के उम्मीदवार उतारे।  
 
webdunia
रामलीला मैदान पर मोदी की पहली रैली से ही लग रहा था कि दिल्ली अपना मन बना चुकी है। यहां कम भीड़ से घबराए हाईकमान को खुश करने के लिए केजरीवाल के मुकाबले का उम्मीदवार उतारने में अन्ना की टीम की किरण बेदी को लाना मास्टर स्ट्रोक कहा गया। किरन बेदी ने आते ही ऐसा बर्ताव शुरू कर दिया जैसे वो मुख्यमंत्री हो, अहंकारी बोल से त्रस्त और 'पैराशूट कैंडिडेट' से खिजाए कार्यकर्ताओं ने बेमन से चुनाव लड़ा। 
 
लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र, झारख़ंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और हरियाणा में भाजपा की सफलता और मोदी की लहर से उन्मुक्त हुए कुछ नेताओं ने अनर्गल बयान दे कर बहुत बड़े जन समुदायों को सतर्क कर दिया था। हिंदुवादी नेताओं के लगातार उग्र बयानों से विकास के नाम पर भाजपा से जुड़े अल्पसंख्यक वर्ग धीरे-धीरे भाजपा से दूरी बना कर सही मौके की तलाश कर रहे थे। 
 
लव-जिहाद, घर वापसी जैसे आक्रमक राजनैतिक अभियानों ने उनके डर को सही साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दिल्ली चुनावों में अल्पसंख्यकों जो पहले कांग्रेस और अन्य दलों के समर्थक थे, ने एकजुट होकर 'आप' को वोट दिया। दिल्ली में चर्च पर हुए हमले की घटना के फलस्वरूप क्रिश्चियनों के पढ़ेलिखे तबके ने पूरे तौर पर आप को अपना वोट दिया। 
 
दिल्ली में पूर्वांचल (बिहार व पूर्वी उप्र) से आए लोग कम से कम 5 सीटों पर सीधा प्रभाव रखते हैं और 14 सीटों पर इनकी भूमिका निर्णायक है। आप ने इस तबके के 14 उम्मीदवार उतारे जबकि भाजपा ने सिर्फ 3 पूर्वांचली उम्मीदवार खड़े किए। 
 
मोदी की कार्यप्रणाली अब सरकारी बाबुओं के लिए चिंता का सबब बन गई थी। बायोमेट्रिक प्रणाली से उपस्थिति दर्ज होना और समय पर न आने से तनख्वाह कटने के डर और भाजपा सरकार आई तो रिटायरमेंट उम्र घटाने का आदेश से डर भी भाजपा के खिलाफ रहा। 
 
केजरीवाल के खिलाफ व्यक्तिगत हमले, उन्हें गणतंत्र दिवस परेड पर न बुलाना और नकारात्मक बयानों को जनता ने सही नहीं माना जिसके नतीजे में केजरीवाल को सहानुभूति मिली। 
 
दिल्ली चुनाव परिणामों से एक बार फिर सिद्ध हो गया है कि राजनीति हमेशा से निष्ठुर होती है। यहां कोई अजेय न हुआ था और न हो पाएगा। परिवर्तन राजनीति के लिए न केवल आवश्यक बल्कि अपरिहार्य भी है। लोकतंत्र में यह परिवर्तन ही इसे जीवित रखते हैं। 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi