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यह लोकतंत्र की जीत है...बशर्ते

-उमेश चतुर्वेदी

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, गुरुवार, 5 दिसंबर 2013 (15:58 IST)
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पहले कहा जाता था कि किसी देश या रियासत की राजधानी उस देश या राज की धड़कन होती है... कुछ इसी तर्ज पर दिल्ली को भी देश की धड़कन बताया जाता था...लेकिन क्या आजादी के पैंसठ साल के दौरान सचमुच में दिल्ली देश की धड़कन बन पाई है...इस सवाल के जवाब कई स्तरों पर और कई लिहाज से दिए जा सकते हैं। निश्चित तौर पर इन जवाबों में विरोधाभास हो सकता है और होगा भी। क्योंकि जिस देश में सत्तर फीसदी आबादी अब भी गांवों में रहती हो, उसकी धड़कन शहरी प्रमुखता वाली राजधानी कैसे बन सकती है। लेकिन हालिया विधानसभा चुनाव के दौरान कम से कम एक मसले पर दिल्ली देश की धड़कन का प्रतिनिधित्व करती नजर आई।

आजादी के पैंसठ साल के इतिहास में बीते चार दिसंबर को दिल्ली में जो नजारा दिखा...वह पहली बार नजर आया। मतदान केंद्रों पर रात आठ बजे से लेकर साढ़े नौ बजे तक मतदाताओं की लाइनें नजर आईं। दिल्ली में यह पहला मौका है...जब दिल्ली के मतदाताओं के उत्साह के सामने चुनाव आयोग को उत्साहित तौर पर झुकना पड़ा। और आखिरी तौर पर आए आंकड़ों ने दिल्ली को लेकर लोगों के नजरिए को बदलने के लिए मजबूर कर दिया। दिल्ली में करीब 68 फीसदी मतदान हुआ है। जिस दिल्ली में चुनाव के दिन को महज तफरी और पिकनिक के तौर पर मनाने का इतिहास रहा हो, वहां के वोटर मतदान के लिए इतनी संख्या में बाहर निकल जाएं तो हैरत होगी ही, और ऐसा हो भी रहा है।

सवाल यह है कि आखिर क्यों इतनी संख्या में दिल्ली वाले घरों से बाहर निकले। इसका श्रेय किसे दिया जाना चाहिए। क्या चुनाव आयोग को इसका श्रेय दिया जाए या फिर देश में चल रही मोदी की लहर को या फिर दिल्ली में महज एक साल में मजबूत राजनीतिक वजूद बना चुकी आम आदमी पार्टी को या फिर सबको...निश्चित तौर पर दिल्ली में मतदान का आधार बढ़ाने में इन तीनों ही कारणों को जोड़ा जा सकता है। यह सच है कि चुनाव आयोग ने इस बार मतदाताओं की सहूलियत बढ़ाने के लिए कई सारे इंतजाम किए थे। उसने हर बूथ पर बीएलओ यानी मतदान केंद्र स्तरीय अधिकारी तैनात किए थे, जो लोगों को वोट डालने के लिए उनका नाम मतदाता सूची में ढूंढकर बता रहे थे। इसने मतदाताओं के लिए काफी सहूलियतें बढ़ाईं।

यह मानना भी गलत नहीं होगा कि इस बार के चुनाव में लोगों में मोदी की अपील का भी असर रहा। अगर दिल्ली में बीजेपी को बढ़त या स्पष्ट बहुमत मिलता है तो निश्चित रूप से माना जाएगा कि दिल्ली के बढ़े हुए मतदान में मोदी की अपील ने भी बड़ा योगदान दिया है। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि दिल्ली में एक साल में धूमकेतु की तरह उभरी आम आदमी पार्टी ने भी वोटरों के उत्साह को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। आम आदमी पार्टी के भ्रष्टाचार मुक्त और पारदर्शी प्रशासन देने के वादे ने भी खासकर नौजवान वोटरों को रिझाने में बड़ी भूमिका निभाई। निश्चित तौर पर इसका उसे भी चुनाव नतीजों में फायदा मिलता नजर आएगा। लेकिन यह भी तय है कि अगर दिल्ली समेत उत्तर और मध्य भारत के सभी चारों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें बनती हैं तो भारतीय जनता पार्टी ज्यादा वोटिंग को मोदी की लोकप्रियता से जोड़कर देखने-दिखाने में पीछे नहीं रहेगी। क्योंकि दिल्ली ही क्यों, राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी इस बार भारी मतदान हुआ है।

चुनावों से दो साल पहले दिल्ली दो बड़े आंदोलनों की भी गवाह रही। पहले अन्ना और अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में दिल्ली में जनलोकपाल को लेकर आंदोलन चला और उसे दिल्ली ही नहीं, आसपास के शहरों और राज्यों के लोगों का भी जबर्दस्त समर्थन हासिल हुआ। फिर दिसंबर 2012 में दिल्ली की एक छात्रा के साथ जो दर्दनाक और जघन्य बलात्कार हुआ, उसके खिलाफ उठे आंदोलन में भी लोगों की भारी भूमिका रही। कहना न होगा कि इन दोनों ही आंदोलनों ने दिल्ली और उसके निवासियों को जगाने और जागरूक बनाने में बड़ा योगदान दिया।

इस जागरूकता ने ही अहिंसक आंदोलन और हिंसा का जवाब वोट से देने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में खास भूमिका निभाई। इसकी भी वजह रही कि दिल्ली में इस बार भारी मतदान हुआ। बहरहाल कारण चाहे जो भी रहे हों...लेकिन यह तय है कि इस पूरी कवायद में भारतीय लोकतंत्र ही जीता है। लेकिन लोकतंत्र की इस जीत का तभी ज्यादा फायदा मिल सकेगा...जब मुद्दा आधारित मतदान होगा। भारतीय लोकतंत्र ने अब तक जो यात्रा की है...उससे उम्मीद की जाती है कि मुद्दा आधारित वोटिंग तक की यात्रा भी भारतीय लोकतंत्र जरूर पूरी करेगा।

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