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....शायद 'नायक' जैसा कुछ हो जाए...

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जयदीप कर्णिक

दिल्ली की सड़कों पर सरपट दौड़ते रिक्शा यों तो बस सवारी को इधर से उधर पहुँचाते हैं, लेकिन इन दिनों वो एक संदेश भी पहुँचा रहे हैं- बदलाव का संदेश। तीन पहियों पर घूम रही परिवर्तन की इस चाहत को पढ़ना मुश्किल भी नहीं है। ऑटो में बैठते ही किसी भी रिक्शे वाले से पूछिए और वो कहना शुरू कर देगा- हम तो साहब केजरीवाल को ही वोट देंगे। अच्छा आदमी है। दम है। उसको क्या पड़ी है। अपनी नौकरी छोड़ के आ गया। ...मैं तो साहब कांग्रेसी हूँ शुरू से .... पर देख लिया इनको भी, ग़रीब की कोई चिंता नहीं। इस बार तो झाड़ू चलेगी .... दोनों को ख़ूब मौका दे दिया। एक बार नए को देखने में हर्ज ही क्या है?

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ऐसी तमाम बातें अलग-अलग रिक्शे वालों से सुनीं। ऐसा लगा की केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने अपनी एक साल की यात्रा में कम से कम एक ऐसा वर्ग तो जोड़ लिया है जो उनके प्रति समर्पित है। ये भी नहीं है कि सारे ही रिक्शे वाले "आप" के प्रति समर्पित हैं। हालाँकि एकदम ठीक आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं पर 75,000 से ज्यादा रिक्शा दिल्ली की सड़कों पर दौड़ते हैं। कुल सवा लाख से ज्यादा लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं। इनके सबके आठ बड़े संघ हैं और उनमें से कुछ तो सीधे किसी राजनीतिक दल से जुड़े हुए हैं। दिल्ली के रिक्शा पर राजनीतिक पोस्टर के मामले ने तो इतना तूल पकड़ा की मामला हाइकोर्ट तक चला गया।

क्यों ये अधिकांश रिक्शावाले "आप" और केजरीवाल को लेकर इतने आशान्वित हैं। या फिर और भी लोग जो इनसे उम्मीद लगाए बैठे हैं। - जवाब रवि कुमार से बात करने पर मिला। रवि कुमार बिहार से हैं। दिल्ली में 10 साल से ज्यादा हो गए। गया के पास गाँव है। उनमें व्यवस्था को लेकर भी आक्रोश है लेकिन लोगों से भी वो नाराज हैं। "केवल नेताओं को गाली देने से क्या होगा हमें भी तो अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी? कौन-सा काम है जो नहीं हो सकता... कानून है, लड़ाई लड़ो सब होगा।" मैंने तो अच्छे-अच्छे बुद्धिजीवियों में विचारों की दृढ़ता नहीं देखी। रवि कुमार बोलता चला जा रहा था। मैं सुन रहा था। तभी हम दिल्ली पब्लिक स्कूल के सामने से गुजरे। छुट्टी बस हुई ही थी। बच्चे गाड़ियों में बैठ रहे थे। उस वजह से कुछ जाम भी लगा था। वो बोला अब ये देखो साहब- ये कोई तरीका है देश चलाने का। एक तरफ इतना महँगा स्कूल... गरीब आदमी तो सोच भी नहीं सकता। सरकारी स्कूल बर्बाद हो रहे हैं। क्यों नहीं आप वहाँ अच्छे टीचर रखते। क्यों नहीं आप हर बच्चे को अच्छे से पढ़ा सकते? इसमें क्या अमीर-गरीब?" मैं सन्न था।

फिर मैंने कहा कि अच्छा ये बताओ अरविंद केजरीवाल क्या कर लेगा? तब वो जवाब आया- देखो सर क्या पता "नायक" हो जाए? मैं चौंका। मैंने पूछा- मतलब? बोला सर वो नायक पिच्चर है ना। एक दिन का मुख्यमंत्री भी इतना कर सकता है अगर चाहे तो। फिर एक बार पाँच साल के लिए बनने वाला तो क्या नहीं कर सकता? हो सकता है वो बस इसी मौके की तलाश में हो। वो मौका देने में क्या हर्ज है? शायद नायक हो जाए?"

मैं कुछ देर चुप ही रहा। फिर मैंने कहा- मगर उन पर तो भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं? रवि बोला- सर, ऐसा है कि राजनीति बड़ी गंदी जगह है। ये तो होना ही था। कह देने से क्या होता है?

जहाँ मैं उसकी समझदारी से प्रभावित था वहीं उसकी नायक की चाह को लेकर पसोपेश में। फिर मैंने सोचा की हिंदुस्तानी समाज को तो शुरू से ही नायक की चाह और तलाश रही है। राजा है वो प्रजा का ध्यान रखेगा। गाँधी या भगतसिंह या सुभाष आएँगे और आज़ादी दिलाएँगे। ...बस अब फर्क ये है कि राजा ठीक ना हो तो उसे बदला जा सकता है वोट के जरिए। और ये बड़ा फर्क है। आगे जाकर राजा को सेवक और ख़ुद को ही नायक मानने की परिपक्वता भी शायद आ ही जाएगी।

फिलहाल तो देखना ये है कि क्या केजरीवाल सचमुच वो नायक हैं जिसका दिल्ली को इंतज़ार है?

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