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अपनी प्रज्ञा स्वयं जगाएँ

- आचार्य सत्यनारायण गोयन्का

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मन को वश में करना धर्म का महत्वपूर्ण अंग है। यही समाधि है। परंतु एक व्यक्ति समाधि हासिल करने के लिए जिस आलंबन का प्रयोग करता है, वह राग, द्वेष या मोह बढ़ाने वाला हो तो वह व्यक्ति दूषित चित्त से समाधिस्थ होता है। दूसरा व्यक्ति ऐसे आलंबन अपनाता है जो कि राग, द्वेष और मोह को क्षीण करने वाले हैं, तो पहले की अपेक्षा यह दूसरा व्यक्ति अधिक उत्तम है।

दूषित चित्त की एकाग्रता द्वारा मनोबल प्राप्त करके भी अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ-सिद्धियाँ हासिल की जा सकती हैं। इनके बल पर सामान्य लोगों को चकाचौंध कर देने वाले चमत्कार प्रदर्शित किए जा सकते हैं। परंतु इसे धर्म मान लेना खतरनाक है।

यह आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति ने सिद्धियाँ प्राप्त कर लीं, वह धर्मवान हो। अनेक दुःशील व्यक्ति चमत्कार प्रदर्शित करते हुए देखे जाते हैं। अतः चमत्कारों के आधार पर धर्म का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। करते हैं तो मूल्यांकन गलत होता है। समाधि के साथ शील की भूमिका अनिवार्य है।

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शुद्ध समाधि के मार्ग पर भी विभिन्न उपलब्धियाँ होती हैं। कभी हम लगातार तीन घंटे एक आसन पर बैठे रह जाते हैं। परंतु आसन-सिद्धि साधना का अंतिम लक्ष्य नहीं है। इसी प्रकार एकाग्रता के अभ्यास के दौरान कभी-कभी बंद आँखों के सामने हम प्रकाश, ज्योति, रूप, रंग, आकृतियाँ, दृश्य आदि देखने लगते हैं। कभी-कभी कानों से कोई अपूर्व शब्द सुनते हैं, नाक से कोई अपूर्व गंध सूँघते हैं, जीभ से कोई अपूर्व रस चखते हैं, शरीर से किसी अपूर्व स्पर्श का अनुभव करते हैं और इन भिन्ना-भिन्ना अतींद्रिय अनभूतियों को दिव्य ज्योति, दिव्य शब्द, दिव्य गंध, दिव्य रस और दिव्य स्पर्श कह कर इनको आवश्यकता से अधिक महत्व देने लगते हैं तो भटक ही जाते हैं।

इसी प्रकार समाधि का अभ्यास करते हुए कभी साँस सूक्ष्म होते-होते अनायास रुक जाती है। स्वतः कुंभक होने लगता है। अभ्यास करते-करते विचारों और वितर्कों का ताँता मंद पड़ने लगता है और कभी निर्विचार, निर्विकल्प अवस्था आ जाती है। एकाग्रता बढ़ती है तो भीतर प्रीति-प्रमोद जागता है। आनंद की लहरें उठने लगती हैं। मन और शरीर रोमांच पुलक से भर जाता है। बहुत हल्कापन महसूस होता है। परंतु इन भिन्न-भिन्न प्रिय अनुभूतियों को ही सब कुछ मान कर इनकी अतिशयोक्तिपूर्ण व्याख्या करने लगें तो भी भटक जाते हैं। ये अनुभूतियाँ इस लंबे मार्ग पर मील के पत्थरों जैसी हैं। इनमें से किसी के साथ चिपक जाएँ तो वह पत्थर गले का भार बन जाता है। आगे बढ़ना मुश्किल कर देता है। ये अनुभूतियाँ धर्मशालाएँ जैसी हैं। इनमें से किसी को अंतिम लक्ष्य मान कर उसमें टिक जाएँ तो आगे के रास्ते पर चलना ही नहीं हो सकता। यात्रा बंद हो जाती है। पहले से लेकर आठवें ध्यान तक की सभी समाधियाँ एक से एक अधिक उन्नात हैं। परंतु आठों ध्यानों में पारंगत हो जाने पर भी आध्यात्मिक क्षेत्र में संपूर्णता नहीं मानी जाती। आठों समाधि समापत्तियों की सहज अनुभूति करने वाले साधक को भी प्रज्ञावान होना नितांत आवश्यक है।

प्रज्ञावान में भी भेद है। कोई प्रज्ञावान ऐसा है जिसने श्रुतमयी प्रज्ञा हासिल की है; यानी पढ़-सुन कर प्रज्ञा की जानकारी प्राप्त की है। दूसरा ऐसा है जिसने चिंतनमयी प्रज्ञा भी हासिल की है यानी जो पढ़ा-सुना उसे चिंतन-मनन द्वारा बुद्धि की कसौटी पर कस कर युक्तिसंगत मान कर ही स्वीकार किया है। पहले से दूसरा प्रज्ञावान निश्चित रूप से उत्तम है। परंतु पहले और दूसरे से वह तीसरा प्रज्ञावान कहीं अधिक उत्तम है जो कि भावनामयी प्रज्ञा हासिल करता है; यानी प्रत्यक्ष अनुभूतियों के बल पर स्वयं अपनी प्रज्ञा जगाता है।

हमने अपनी भावनामयी प्रज्ञा जागृत की है अथवा पराई प्रज्ञा के बल पर केवल बुद्धिरंजन किया है, इसकी स्वयं जाँच करते रहना चाहिए। प्रज्ञा के नाप पर यदि केवल बुद्धिरंजन हुआ होगा तो जीवन की विषम परिस्थितियों में मन उत्तेजित, उद्वेलित हुए बिना नहीं रहेगा। भावनामयी प्रज्ञा का जितना अभाव होगा, मानसिक असमता उतनी ही अधिक होगी।

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