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विपश्यना: एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण

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प्रत्येक वस्तु के दो-तीन आयाम ही देख पाना संभव होता है, परंतु विपश्यना चार आयामों का संगम कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं। स्वयं पढ़ो किताबों के माध्यम से, देखो टीवी के माध्यम से, सुनो गुरुओं की वाणी से, परंतु अनुभूतियों को स्वयं के परिश्रम से मन, शरीर एवं संवेदनाओं के द्वारा विकार रहित होना ही मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है।

दस दिवसीय शिविर में साँस से शुरू होकर आना पान, विपश्यना, अष्टांग मार्ग या पंचशील का अनुकरण करते हुए प्रातः 4 बजे से रात्रि 9.30 बजे तक आर्य मौन में रहते हुए साधना करना सचमुच एक विलक्षण अनुभव है। 10 दिवस में पहले 3 दिवस कष्ट साध्य लगते हैं, परंतु जन्म से बाह्य जगत में विचरण करते-करते यह अंतर जगत की यात्रा धीरे-धीरे परमानंद की अनुभूति कराते-कराते निर्विकार एवं जीने की कला से साक्षात्कार कराते-कराते मुक्ति प्रदाता बनाने में सहायक होती है। जीवन में जन्म, जरा और मृत्यु के भय से मुक्त जीवन जीने में सहायक होती है। गृहस्थ हो या संत अपने परिश्रम अनुसार वांछित सुफल की प्राप्ति अवश्यंभावी है।

मैं स्वयं शासकीय सेवा से निवृत्ति के 3 माह पूर्व ऑन ड्यूटी 10 दिवसीय शिविर में शामिल हुआ एवं सेवानिवृत्ति के उपरांत भी प्रतिवर्ष 10 दिवसीय शिविर के 8 शिविरों में उपस्थित हुआ। पशु चिकित्सा स्नातक एवं पंजीकृत रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिशनर के साथ राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर हूँ। उम्र के 71 वर्ष पूर्ण होने के उपरांत भी इस विधा की प्राप्ति से स्वस्थ एवं प्रसन्न हूँ।

प्रथम प्रक्रिया द्वारा साँस को नासिका से आते-जाते देखना, मन को चौकीदार स्वरूप नासिका के बाहर प्रत्येक साँस को बाहर आते और अंदर जाते, ऊपर वाले होठ वाले स्थान पर महसूस कर, सूक्ष्म से सूक्ष्म स्तर पर ले जाना आना पान विधि का द्योतक है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार मानव शरीर भौतिक कलापों का स्कंध, परमाणुओं का स्कंध या सूक्ष्मतम कोशिका के विस्तार का फल है। प्रत्येक तंतु पूरे शरीर की रचना की इकाई होता है और इसी इकाई से पूरे शरीर का संचालन निर्धारण होता है। इसके जरा से असंतुलन से शारीरिक व्याधियों की शुरुआत होती है। जीव जगत हो या वनस्पति जगत समस्त कार्य संपादन तंतु इकाई के माध्यम से होता है, और इस सबकी ऊर्जा का स्रोत प्रकृति मानी गई है। प्रकृति और मानव शरीर ही ऐसा जीव है जो शील, समाधि, प्रज्ञा द्वारा अपना, दूसरों का एवं प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर स्वयं मुक्ति प्राप्त कर सकता है एवं दूसरों को मार्ग दिखला सकता है।

आना पान एवं विपश्यना विधि का तत्कालीन व शारीरिक लाभ मनुष्य को साँस, प्राण या आत्मा के द्वारा प्रत्येक तंतु को ऑक्सीकरण से विषैली गैस के उत्सर्जन से उबासी द्वारा गैस विसर्जन द्वारा मिलने लगता है। शरीर में ताजगी आती है एवं फुर्तीला बनना शुरू होता है। अतः आने वाले समय में इस विद्या से ही मानव जाति का कल्याण निहित है और ये ही एक विद्या ऐसी है जो सर्वजनित, सर्वकालीन, सर्वकल्याणकारी है। स्वयं करने की यह विद्या बिना किसी आडम्बर के ग्राह्य हो सकती है।

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