राम, कृष्ण, गौतम, महावीर और गाँधी की इस पुण्य पावन भूमि पर हर काल और युग में महान मनीषियों, मानस विज्ञानियों, योगियों ने जन्म लेकर इसकी महिमा को हमेशा बढ़ाया है। पूज्य गुरुवर विपश्यनाचार्य गोयन्काजी के बारे में पढ़ता व सुनता आया था। मन में एक लगन थी कि जब-जब वैश्य अपना मूल कार्य छोड़कर अन्य विधा में गया है, तब-तब समाज को गाँधी और लोहिया जैसे महापुरुष मिले हैं।
मन में गहरा आत्मविश्वास था कि गोयन्काजी ध्यान की जिस विधा को लोगों में बाँट रहे हैं, यह जरूर विशिष्ट व अनूठी होगी। पिछले कुछ वर्षों से माइग्रेन जैसी दुरुह बीमारी से ग्रस्त था। अनेकानेक चिकित्सा पद्धतियों के उपयोग के बाद कई जानकारों से यह बात मालूम हुई कि मेरी बीमारी का इलाज सिर्फ ध्यान के अभ्यास में निहित है। पिछले कुछ दिनों से योग निद्रा इत्यादि का अभ्यास प्रतिदिन करता था। निःसंदेह इससे कुछ फायदा तो हो रहा था, पर बात नहीं बन पा रही थी। ऐसे में अचानक ही विपश्यना व इसके 10 दिवसीय शिविर की जानकारी प्राप्त हुई। तुरंत ही रजिस्ट्रेशन करवाकर शिविर का लाभ लिया।
कुछ वर्षों पुरानी बीमारी का संत्रास व कुछ संजीवनी मिलने का अति आत्मविश्वास कि शिविर शुरू होने के दो दिन पहले पत्नी का दुर्घटना में पैर का फ्रैक्चर भी मुझे शिविर करने से नहीं रोक सका। शिविर के चौथे दिन से संवेदनाओं का अंतहीन ज्वर शरीर की सतह पर प्रकट होने लगा व स्वभाववश हुई गलतियों व पापों की परत-दर-परत उखड़ती गई। जैसे-जैसे मानस पर चढ़ा मैल उतरता जा रहा था, वैसे-वैसे आश्चर्यमिश्रित खुशी का पारावार न था। बड़े विस्मय के साथ यह आत्मस्वीकारोक्ति बनती जा रही थी। मेरी सभी समस्याओं का कारण तो मैं स्वयं हूँ। प्रतिदिन मन में उठने वाली शंकाओं, जिज्ञासाओं व विषय के प्रति और जानकारी हासिल करने की इच्छा का गुरुजी संध्याकाल को होने वाले प्रवचनों में सटीक व वैज्ञानिक उत्तर देते थे जिससे साधना का कार्य अनायास ही आसान हो जाता था।
कई वर्षों स्वसाधना के बाद गुरुजी ने इस 10 दिवसीय जीवनचर्या को इतने सटीक व परिपूर्ण तरीके से तैयार किया है कि प्यासों की हर प्यास स्वतः ही बुझ जाती है। एक बार बीमारी से त्रस्त होकर एक दिन में पूरी गीता पढ़ डाली। मन को बड़ा अच्छा लगा। तीन-चार दिन तक तो बड़ा स्वःस्फूर्तवान रहा। उसके बाद वही बीमारी का पलटवार। गुरुजी की बात से समझ आया कि ग्रंथ रटने या पढ़ने का कोई फायदा नहीं है, कुछ फायदा मिलता भी है तो उसका चिंतन-मनन करने से या उसके सार को आत्मसात करने से। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि मन के ऊपर कर्मरूपी बंधनों की इतनी परतें व अवरोध चढ़े हुए हैं कि यह मन, मानस का प्रकृति-प्रदत्त धर्मसम्मत सार आत्मसात करे भी तो कैसे?
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तो सबसे पहले हमें जन्म-जन्मातंरों के राग-द्वेष व मोहवश संचालित कर्म संस्कारों से पीछा छुड़ाना होगा, जो इस कोमल नाजुक मन को बड़ी विकृत व जटिल गाँठ के रूप में जकड़े हुए हैं। माता-पिता के पुण्य प्रताप से यह बात जल्दी समझ आने लगी। गीता का सार सही मायने में विपश्यना करने से ही आत्मसात हुआ।
गीता में स्थितप्रज्ञ का महत्व बताया गया है, लेकिन स्थितप्रज्ञ की ओर जाने वाला रास्ता विपश्यना के अभ्यास से समझ आया कि शरीर पर होने वाली स्थूलतम से लेकर सूक्ष्मतम संवेदना को तटस्थ भाव से, साक्षीभाव से, दृष्टाभाव से, अनासक्त भाव से जानना ही स्थितप्रज्ञता है। गीता सैद्धांतिक पक्ष है तो विपश्यना व्यावहारिक पक्ष।
गाँधीजी का कालजयी आंदोलन : गाँधी ने भी राग-द्वेष से सर्वथा परे रहकर नितांत निर्मल चित्त की शक्ति से विश्व का एकमात्र अनोखा युगांतरकारी, कालजयी आंदोलन रच डाला। शिविर के दौरान विभिन्न साइको सोमिटिक बीमारियों जैसे माइग्रेन, अवसाद, चिंता, बेचैनी, हड़बड़ाहट, उन्माद, अत्यधिक क्रोध का स्फुटन इत्यादि के बारे में अचानक ही एक अवधारणा बनी कि ये सभी बीमारियाँ मानव के क्रमिक विकास के एक संक्रमणकाल का सूचक हैं।
संक्रमण काल किसका- एक तरफ भौतिकता की अंधी दौड़ में लोभ, मोह, हिंसा, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष के प्रति चिपकाव। दूसरी ओर विधि के विधान परम सत्ता का कानून युगों-युगों से अजर-अमर ब्रह्मांडीय नियम जिन्हें भारत की भाषा में धर्म कहा गया है, के प्रति चिंतन, लगाव व आकर्षण। जब कोई भी चित्त अपने क्रमिक विकास के दौरान इस संक्रमण काल में फँसता है तो इन बीमारियों के माध्यम से इस अवस्था के लक्षण दिखाई देते हैं। इस पूर्ण दिग्भ्रमित अवस्था से बाहर खींचकर लाने का सामर्थ्य सिर्फ विपश्यना में ही है।
सबसे सुखद अनुभूति यह हुई कि एलोपैथिक दवाओं के दुष्प्रभाववश मैं ईश्वरतुल्य माता-पिता से बहुत दूर चला गया था। सालों की यह दूरी विपश्यना ने मात्र 10 दिन में मिटा दी।