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साक्षी भाव: धर्म का मूल और सार

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

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उपनिषद् कहते हैं देखने वाले को देखना ही साक्षी भाव है। वेदों का सार उपनिषद्, उपनिषदों का सार गीता और गीता का सार ध्यान को माना गया है। ध्यान में श्रेष्ठ है 'साक्षी भाव'।

पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप सभी बाहरी उपक्रम हैं, लेकिन 'साक्षी भाव' दुनिया की सबसे सटीक और कारगर विधि है जो पदार्थ, भाव और विचार से व्यक्ति का तादात्म्य समाप्त कर देती है। साक्षी भाव अध्‍यात्म का राजपथ तो है ही साथ ही यह जीवन के सुख-दुःख में भी काम आता है।

सिर्फ देखना : साँसों के आवागमन को देखना, विचारों के आने-जाने को देखना, सुख और दुःख के भाव को देखना और इस देखने वाले को भी देखना। यह वैसी प्रक्रिया है जबकि समुद्र की उथल-पुथल अचानक रुकने लगे और फिर धीरे-धीरे कंकर, पत्थर और कचरा नीचे तल में जाने लगे। जैसे-जैसे साक्षी भाव गहराता है मानो जल पूर्णत: साफ और स्वच्छ होने लगा।

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देखना ही जीवन हो। अपने अच्छे, बुरे और सम सभी तरह के कृत्य को गहरे में होशपूर्ण देखना। देखने को शुद्ध रूप से दर्शन कह सकते हैं। आपके और दृश्य के बीच ‍विचार और भावों की परत न हो, तर्क और वितर्क न हो, किसी भी तरह का विश्लेषण नहीं। यह भी देखो की आप देख रहे हो।

विपश्यना ध्यान : साक्षी भाव को ही बौद्ध विपश्यना ध्यान कहते हैं। विपश्यना सम्यक ज्ञान है। अर्थात जो जैसा है उसे वैसा ही होशपूर्ण देखना विपश्यना है। अतीत के दुःख और सुख तथा भविष्य की कल्पनाओं को छोड़कर विपश्यना पूर्णत: वर्तमान में जीने की विधि है।

उक्त साक्षी भाव में स्थित होने के लिए हिंदू, जैन और बौद्ध धर्मग्रंथों में अनेक प्रकार की विधियाँ बताई गई हैं। सभी तरह की विधियों का उपयोग कर साक्षी भाव में स्थित हो जाना ही आज के युग की आवश्यकता है। साक्षी भाव अर्थात हम दिमाग के किसी भी द्वंद्व, दुःख और दर्द में शरीक होना पसंद नहीं करते। हमने पूर्णत: वर्तमान में जीना तय कर लिया है।

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