एकाग्रता सिखाता है विपश्यना
धम्ममालवा विपश्यना केन्द्र (इंदौर) पर 17 से 26 मार्च तक आयोजित शिविर में विभिन्न आयु वर्ग के कोई 28 लोगों ने इस साधना का लाभ लिया। अशोक जोशी लाइब्रेरियन हैं, विपश्यना के बारे में पढ़ते-सुनते आ रहे थे। शिविर में भाग लेने की जिज्ञासा काफी समय से मन में थी, जो अब जाकर पूरी हुई। उन्होंने जोशी ने बताया कि काफी समय पहले उन्होंने प्रख्यात लेखक कोसांबी की भगवान बुद्ध पर लिखी पुस्तकों में विपश्यना के विषय में पढ़ रखा था। जब मुझे पता चला कि इंदौर में विपश्यना का शिविर हो रहा है तो मैंने भी इसमें शामिल होने का निश्चय किया। रजिस्ट्रेशन एवं अन्य प्रक्रिया पूरी करवाने के पश्चात हम विपश्यना केन्द्र स्थल के लिए रवाना हुए। दूसरे दिन से प्रातः साढ़े चार बजे से आचार्यजी के मार्गदर्शन में हम सभी लोगों का अभ्यास प्रारंभ हुआ। सभी साथियों को दस दिवसीय इस साधना में मौन रहने का आदेश था। प्रथम दिन तो मुझे अच्छा नहीं लगा और मैंने मन ही मन घर लौटने का निश्चय कर लिया, पर बाद में सोचा कि एक-दो दिन देखा जाए कि यहाँ रहकर कितना धैर्य इस क्रिया में लगा पाता हूँ। बाद में मुझे एहसास हुआ कि यह तो अपने चित्त की एकाग्रता की समाधि है और इसे मुझे करना ही चाहिए। इस तरह मैंने वहाँ रहने का एक तरह से संकल्प ही ले लिया।
एकाग्रता के साथ छोटी-छोटी तकलीफों की ओर ध्यान न देकर मैं जुटा रहा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि विपश्यना एक प्रकार का विशेष दर्शन है। जो मनु्ष्य शील में प्रतिष्ठित होकर विपश्यना की साधना करता है वह प्रज्ञावान हो जाता है। मैं प्रतिदिन केन्द्र की रीति-नीति के अनुसार मौन रहकर इस क्रिया में लीन रहने लगा। प्रारंभ में तो मुझे मौन रहना भी अच्छा नहीं लगा, पर मैंने सोचा कि जीवन भर लगातार प्रातः जागने से सोने तक न जाने कितने शब्दों का उपयोग कर मैं प्रतिदिन बोलता रहता हूँ, पर अब 10 दिन ही मौन रहना है तो क्या तकलीफ। इस तरह लगातार साधना में रहकर मैंने एक अलग ही तरह का अलौकिक आनंद प्राप्त किया। विपश्यना साधना केंद्र में सभी बातों के इंतजाम काफी अच्छे थे। सोचता हूँ कि इतनी अच्छी साधना व मार्गदर्शन के शिविर में इतने कम लोग क्यों आते हैं? ज्यादा से ज्यादा लोगों को तनाव भरी जिंदगी और भागमभाग भरे माहौल में जीवन जीने की क्रिया के लिए वक्त निकालना चाहिए।