धर्म की जाति, वर्ण, वर्ग, समुदाय, देश, राष्ट्र की सीमाओं में भी नहीं बाँधा जा सकता। मानव समाज के किसी भी वर्ग में धर्मवान व्यक्ति हो सकता है। धर्म पर किसी एक वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं हुआ करता। धर्म हमें नेक आदमी बनना सिखाता है। नेक आदमी, नेक आदमी है। वह अपने संप्रदाय की ही नहीं, प्रत्युत सारे मानव समाज की शोभा है।
जो नेक आदमी ही नहीं है, वह नेक हिन्दू या मुसलमान, नेक बौद्ध या जैन, नेक भारतीय या बर्मी, नेक ब्राह्मण या क्षत्रिय कैसे हो सकता है? और जो नेक आदमी हो गया वह सही माने में धर्मवान हो गया। उसे कोई किसी नाम से पुकारें, क्या फर्क पड़ता है?
ND
गुलाब गुलाब ही रहेगा, नाम बदल लेने से उसकी महक में कोई अंतर नहीं आएगा। जिस बगिया में खिलेगा, न केवल उसे बल्कि आसपास के सारे वायुमंडल को अपनी सौरभ से सुरभित करेगा। अतः मुख्य बात है धर्मवान बनने की। नेक इंसान बनने की। नाम चाहे सो रहे। बगिया चाहे जिस समुदाय की हो। उस पर चाहे जिस नाम का बोर्ड लगा हो। फ़ूल खिलने चाहिए। सौरभ बिखरना चाहिए।
सांप्रदायिक और जातीयता का रंगीन चश्मा उतार कर देखें तो ही धर्म का शुद्ध रूप समझ में आता है। अन्यथा अपने संप्रदाय का रंग-रोगन, नाम-लेबल ही सारी प्रमुखता ले लेता है। धर्म का सार महत्वहीन हो जाता है। धर्म की कसौटी पर किसी व्यक्ति को कसकर देखना हो तो यह नहीं देखेंगे कि वह किस संप्रदाय में दीक्षित है? अथवा किस दार्शनिक मान्यता को मानता है? अथवा किन रूढ़ियों को पालता है? वरन यह देखेंगे कि उसका आचरण कैसा है?
जीवन-व्यवहार कैसा है? कुशल है या नहीं? पावन है या नहीं? आत्म-मंगलकारी और लोक-मंगलकारी है या नहीं? यदि है तो धर्मवान ही है। जितना-जितना है, उतना-उतना धर्मवान है। यदि नहीं है तो उस व्यक्ति का धर्म से कोई संबंध नहीं है। भले वह अपने आपको चाहे जिस नाम से पुकारे, भले वह चाहे जिस संप्रदाय का, चाहे जैसा आकर्षण बिल्ला लगाए फिरे। धर्म का इन सांप्रदायिक बिल्लों से क्या संबंध? कोरे नाम से, बिल्लों से हमें क्या मिलने वाला है? किसी को भी क्या मिलने वाला है?
शराब भरी बोतल पर दूध का लेबल लगा हो तो उसे पीकर हम अपनी हानि ही करेंगे। यदि उसमें पानी भरा हो तो उसे पीकर प्यास भले बुझा लें, परंतु बलवान नहीं बन सकेंगे। बलवान बनना हो तो निखालिस दूध पीना होगा। बोतल का रंग-रूप या उस पर लगा लेबर चाहे जो हो। इन नाम और लेबलों में क्या पड़ा है? सांप्रदायिकता, जातीयता और राष्ट्रीयता का भूत सिर पर सवार होता है तो केवल बोतल और बोतल के नाम और लेबल को ही सारा महत्व देने लगते हैं। दूध गौण हो जाता है। धर्म गौण हो जाता है।
आओ, इन नाम और लेबलों से ऊपर उठकर अपने आचरण सुधारें। वाणी को संयमित रखते हुए ़झूठ, कड़वापन, निंदा और निरर्थक प्रलाप से बचें। शरीर को संयमित रखते हुए हिंसा, चोरी, व्याभिचार और प्रमाद सेवन से बचें। अपनी आजीविका को शुद्ध करें और जन अहितकारी व्यवसायों से बचें। मन को संयमित रखते हुए उसे वश में रखना सीखें।
उसे सतत सावधान, जागरूक बने रहने का अभ्यास कराएँ और प्रतिक्षण घटने वाली घटना को जैसी है, वैसी, साक्षीभाव से देख सकते का सामर्थ्य बढ़ाकर अंतस की राग, द्वेष और मोह की ग्रंथियाँ दूर करें। चित्त को नितांत निर्मल बनाएँ। उसे अनंत मैत्री और करुणा से भरें। बिना नाम-लेबल वाले धर्म का यही मंगल-विधान है।
हिन्दू, मुस्लिम, पारसी, बौद्ध, ईसाई, जैन। मैले मन दुखिया रहें, कहाँ नाम में चैन॥