चित्त-विशुद्धि से ही दुख-विमुक्ति
स्वयं के प्रति सचेत रहना ही होगा
- आचार्य सत्यनारायण गोयन्का
साधकों! मैं अपने तथा अपने परिचित हजारों साधकों के अनुभव के आधार पर कहता हूँ कि प्रक्रिया के अभ्यास मार्ग में कहीं कोई अलौकिक चमत्कार नहीं है। जो उपलब्धि होती है वह स्वयं अपने कठिन परिश्रम से ही होती है। मेरे पास मेरा मैला मानसिक आँचल है। सौभाग्य से यह विधि साबुन स्वरूप प्राप्त हुई। मैंने इस साबुन का जितना प्रयोग किया, उतना ही मैल धुला, अधिक नहीं। जितनी मात्रा में मैल बचे हैं, उतनी मात्रा में दुख हैं ही। काम कुछ न करूँ अथवा जरा-सा ही करूँ और मैल सारे धुल जाएँ, ऐसा कोई करिश्मा नहीं होता। वस्तुतः यह तो जीवनभर का काम है। सारे जीवन अपने आपके प्रति सजग-सचेत रहना ही होगा। अप्रमत्त रहना ही होगा। सचमुच काम कठिन है, पर दूसरा कोई रास्ता भी तो नहीं।लेकिन हमारा भोलापन है कि हम कोई करिश्मे का रास्ता ढूँढते हैं। ऐसा करिश्मा जिसकी वजह से हमें कोई कठिन श्रम न करना पड़े और सफलता भी मिल जाए। ऐसी अवस्था में हम फिर कल्पना लोक की उड़ानें भरने लगते हैं। इतने मनीषियों द्वारा परम सत्य की खोज हो जाने के बाद यह तो स्वीकार करना ही पड़ता है कि हमारे दुखों का कारण कोई देव या जगदीश्वर नहीं, हमारे अपने संचित कर्म-संस्कार ही हैं। परंतु फिर आशा बाँधने लगते हैं कि हमारे द्वारा हजार दूषित कर्म करने के बावजूद कोई ऐसा सर्वशक्तिमान और करुणासागर है जिसे किसी प्रकार प्रसन्न कर लें तो वह हमारे सारे दुखों को दूर कर देगा। इस आशा में फिर खुशामदें, भेंट, चढ़ावे आदि का क्रम चल पड़ता है। हम नहीं जानते कि हम कर क्या रहे हैं? अंधभक्ति के भावावेश में हमने जिस भगवान का निर्माण किया, उस बेचारे की ही कैसी मट्टीपलीत कर रहे हैं। कैसा है यह भगवान जो अपने मान-सम्मान से प्रसन्न होता है? अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा प्रशस्तियों से फूलकर कुप्पा हो जाता है। जी-हुजूरी करने वाले खुशामदी लोगों पर कृपा दृष्टि रखता है। भेंट चढ़ाने वालों पर अपनी महर बरसाता है। अपने प्रशंसक पर प्रसन्न होकर उसके काले को भी सफेद कर देता है। प्रवंचक अपराधी को निरपराधी के समकक्ष बैठा देता है। अहम का पुतला ऐसा कि कोई भूले-चूके भी उसका नाम ले ले तो उसे झट तार देने पर तत्पर हो जाता है।
ऐसी आसक्ति है उसे अपने नाम से। और ऐसी ही आसक्ति है उसे अपने संप्रदाय से! जिस-जिस संप्रदाय का भगवान है, उस-उस संप्रदाय के व्यक्ति का पक्ष लेता है और अलग-अलग संप्रदायों के हमने अलग-अलग पक्षपाती भगवान खड़े कर लिए। अरे, कोई सीमा है हमारे भोलेपन की भी? क्या सचमुच इस विशाल विश्व की व्यवस्था ऐसे किसी शासक या शासकों के हाथ में है जो पक्षपाती हैं, दंभी है, निरंकुश है, कानून-कायदों को, धर्म-विधान को ठुकराकर मनमानी करने वाले हैं? दुर्गुण ही दुर्गुण के भंडार हैं। यदि मान्यता ही करनी थी तो ऐसे दुर्गुणी की जगह किसी सद्गुण-संपन्न देवता की करते ताकि उसके गुणों का चिंतन कर, उससे प्रेरणा पाकर स्वयं सर्वगुणसंपन्न होने में तो लगते। कल्याण तो सधता। परंतु अपने भोलेपन में हम अपना ही अमंगल साधने लगे। चित्त-विशुद्धि से ही दुख-विमुक्ति है, इस विधान को स्वीकारते हुए भी चित्त विशुद्ध हो, न हो, इस विधान के परे किसी निरंकुश विधायक को प्रशंसाओं से प्रसन्न करने के भोलेपन में जुट गए।