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धर्मचक्र सभी दुखों का निरोधक

विपश्यना : धर्मचक्र प्रवर्तन का प्रत्यक्ष लाभ

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हमें फॉलो करें धर्मचक्र
- सत्यनारायण गोयन्का

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हमारे भीतर जो प्रति क्षण लोकचक्र चल रहा है, इससे छुटकारा पाने के लिए धर्मचक्र प्रवर्तित करना होगा। लोकचक्र हमारे समस्त दुखों का मूल है। धर्मचक्र सभी दुखों का निरोधक है।

लोकचक्र क्या है? लोकचक्र मोह, मूढ़ता है। लोकचक्र अज्ञान, अविवेक, अविद्या है, जिसके कारण हम निरंतर राग और द्वेष की चक्की में पिसते रहते हैं। हमारी छः इंद्रियाँ- आँख, नाक, कान, जिह्वा, शरीर की त्वचा और मन तथा इन इंद्रियों के छः विषय- रूप, गंध, शब्द, रस, स्पर्शव्य और कल्पनाएँ; इनका परस्पर संस्पर्श होता रहता है। नाक का गंध से, कान का शब्द से, चिह्वा का रस से, काया का किसी भी स्पर्शव्य पदार्थ से, मन का कल्पना से।

संस्पर्श होते ही तत्क्षण हमारे चित्त में कोई संवेदना जागती है। यदि वह संवेदना हमें प्रिय लगी तो हम तत्संबंधी विषय में चिपकाव यानी राग पैदा कर लेते हैं। यदि अप्रिय लगी तो दुराव यानी द्वेष पैदा कर लेते हैं। चाहे राग उत्पन्न हो अथवा द्वेष, दोनों ही हमारे मन में तनाव-खिंचाव और उत्तेजना पैदा करते हैं। इससे समता नष्ट होती है। विषमता आरंभ होती है। दुख संधि होती है। दुख आरंभ होता है। यही लोकचक्र का आरंभ हो जाना है।

नासमझी से हम जो उत्तेजना पैदा कर लेते हैं वह गहरी आसक्तियों में परिवर्तित होकर दूषित भवचक्र के रूप में बढ़ती है और हमें व्याकुल, व्यथित बनाती और हमारा दुख संसार बढ़ाती है। इसी भवचक्र को काटने के लिए हमारे भीतर धर्मचक्र जागते रहना बहुत आवश्यक है। यदि धर्मचक्र जागता है तो विवेक, विद्या और होश जागता है।

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जैसे ही किसी इंद्रिय और उसके विषय के संस्पर्श से चित्त में कोई संवेदना पैदा हो, प्रिय या अप्रिय, सुखद या दुखद- वैसे ही पागलों की तरह उस विषय के प्रति राग-रंजित और द्वेष-दूषित होने के बजाय उसके नश्वर-निस्सार स्वभाव को समझकर प्रज्ञा जागे, अनासक्तिभाव जागे। इसी से लोकचक्र का प्रवर्तन रुकता है। उसका विस्तार नहीं हो पाता। यही धर्मचक्र-प्रवर्तन है। धर्मचक्र-प्रवर्तन का यह प्रत्यक्ष लाभ है। विपश्यना साधना के सतत्‌ अभ्यास द्वारा अपने अंतर्मन में अनुभूत होने वाली प्रत्येक संवेदना को जानें और जानकर उसमें उलझें नहीं। तटस्थ बने रहें। यो धर्मचक्र प्रवर्तित रखें। धर्मचक्र प्रवर्तित रखने में हमारा मंगल-कल्याण है।

बंधन खुलते जाए

राग सदृश ना रोग है, द्वेष सदृश ना दोष।
मोह सदृश ना मूढ़ता, धर्म सदृश ना होश॥

राग-द्वेष की मोह की, जब तक मन में खान।
तब तक सुख का, शांति का, जरा न नाम निशान॥

तीन बात बंधन बँधे, राग-द्वेष-अभिमान।
तीन बात बंधन खुले, शील-समाधि-ज्ञान॥

धर्मचक्र चालित करें, प्रज्ञा लेयँ जगाए।
जिससे सारी गंदगी, मन पर की हट जाए॥

सुख-दुख आते ही रहें, ज्यों आवें दिन रैन।
तू क्यूँ खोवे बावला! अपने मन की चैन॥

भोक्ता बन कर भोगते, बंधन बँधते जाएँ।
द्रष्टा बन कर देखते, बंधन खुलते जाएँ॥

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